हिजाब मामले पर कोर्ट का फ़ैसला, मुस्लिम महिलाओं के साथ ज़्यादतियों को देगा बढ़ावा
हिजाब पर सियासत खास उसी वक्त तेज रंग पकड़ने लगती है जब उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों में चुनाव अपने उफान पर आता है। खास तौर पर उत्तर प्रदेश चुनाव को साधने का एक खास काम कर्नाटक से बैठ कर अंजाम दिया जाता है। 25 फरवरी तक कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी अपना फैसला लॉक कर दिया था। कल या 15 मार्च को वो फैसला सब के सामने आ गया, कोर्ट का कहना है कि हिजाब इस्लाम का अभिन्न अंग नही है। कोर्ट की इस बात का एहतराम है इस बात की तस्दीक कुरान से भी होती है, कुरान का कोई आदेश ऐसा नही है जो औरत को एक खास किस्म का कपड़ा पहन लेने और उसी में ढकी-छुपी रहने का आदेश देता हो।
हिजाब, नकाब, बुर्का ये शब्द आजकल खूब सुनाई दे रहे है इन सब का अर्थ कमोबेश एक जैसा ही है यानी औरत के पर्दे से, इनमें बस थोडा़-थोडा अंतर है। हिजाब सर से लेकर गर्दन तक ढका जाने वाला एक कपडा होता है इसमें चेहरा खुला रहता है, नकाब पूरे चेहरे के साथ सर और गर्दन को भी ढंकता है लेकिन इसमें आंखों की जगह खुली रहती है, बुर्का सारा शरीर ढकने के लिए होता है, उसमें चेहरा ढकने की एक पट्टी भी लगी रहती है। जिसे जब चाहें चेहरे पर डाल सकते है और न चाहें तो हटा सकते है। पहले ये सब काले ही रंग के होते थे, लेकिन समय के साथ इनमें भी फैशन का असर नजर आया और इन पर कढ़ाई का चलन बढ़ा और दूसरे रंगों में भी बनाया जाने लगा, लेकिन अभी भी अधिकतर इनका रंग काला ही होता है। भारत में पहले एक खास किस्म का बुर्का जिसमें सर से पैर व चेहरा भी ढका होता था का चलन था, परंतु समय के साथ वह बुर्का भारत में लगभग समाप्त हो चुका है, अफगानिस्तान के कुछ कबायली इलाकों में ही वह नजर आता है।
इस हवाले से फिर ये समझना भी लाजमी हो जाता है कि कुरान आखिर क्या कहती है इसके बारे में। इस्लाम पूर्व के अरब समाज में बुर्का शब्द मौजूद था, सातवीं शताब्दी में अरबिक शब्दावली में बुर्का शब्द नजर आता है परन्तु कुरान में बुर्का शब्द नहीं है। कुरान में खिमार शब्द है जिसका अर्थ है कपडे़े का टुकड़ा, कुरान में कहा गया कि अपने खिमार को अपनेे जिलबाब यानी कमीज पर ड़ाल लो, अरबी शब्दकोश लिसान-अल-अरब के अनुसार बुर्का शब्द के दो अर्थ हैं। पहला- एक कपड़ा जिसका प्रयोग जानवरों को सर्दियों में ढंकने के लिए होता है। दूसरा अर्थ - एक कवर शाल जैसे, जिसका प्रयोग गॉंव की औरतें करती हैं। इतिहास बताता है कि मौजूदा वेल या बुर्का शब्द परशिया से आया है। भारत में हिजाब शब्द का प्रयोग भी बुर्के के बराबर होता है, लेकिन हिजाब का अर्थ होता है कर्टेन अर्थात दीवारों खिड़कियों, दरवाजों पर लगाया जाने वाला पर्दा। हिजाब शब्द का प्रयोग कुरान में जरूर सात बार आया है लेकिन आज प्रयोग होने वाले अर्थ में नही। कुरान का पूरा जोर मोडेस्टी, शालीनता, या सुसंस्कृत तरीके से कपड़े पहनने पर है, कुरान में मर्द और औरत दोनो को अपनी शर्मगाहों की हिफाजत करने का आदेश है न कि एक विशेष प्रकार का हिजाब, नकाब या बुर्का पहनने को कहा गया।
लगे हाथ हिंदू धर्मशास्त्रों के जानकार पुरूषोत्तम अग्रवाल की यह बात भी कही जानी लाजमी है कि वो कहते हैं हिंदू धर्म की अनगिनत किताबों में से एक भी किसी किस्म के विशेष पहचान सूचक पहनावे का आदेश नहीं देती चाहे वह भगवा टोपी हो गमछा या दुशाला। पहनावे की चीजें सामाजिक शिष्टाचार, नियम-कायदों और परिपाटी का अंग भलें हों पर धार्मिक बाध्यता निश्चित रूप से नही है।
दोनो ही बातें अपनी जगह अहमियतखेज हैं। लेकिन इस सब के बरअक्स हमारे मुल्क में परंपराओं का एक खासा किरदार रहा है, वो परंपराएँ औरतों पर ज्यादा आयद रहीं, पितृशाही ने भी उसे बनाए रखने में अपना खासा रोल निभाया। औरतें अक्सर घर के माहौल, आसपड़ोस, या किसी दबाव में भी इसे पहनने लगती हैं, वो लिबास उनकी चाहत भी बन जाता है, उसमें अक्सर वो सहज भी महसूस करने लगती हैं। लेकिन जब कोई औरत इसे उतारती है तो वह सिर्फ और सिर्फ अपनी समझदारी से उतारती है। उसे खुद ये लगता है कि उसे यह नही पहनना चाहिए। बिल्कुल ऐसा ही घूंघट या किसी अन्य बंदिश के साथ होता है। गांव में औरतें घूंघट में सहज रहती हैं, लेकिन वही औरतें शहरों में उसे उतार देती हैं।
बात यह है कि इसे पहनना या उतारना औरत का खुद का चुनाव होता है। वह उसे झटक कर फेंक दे यह भी उसका चुनाव। लेकिन जो बहस देश में खड़ी की गई वो एक खास मंशा और खास समय को ध्यान में रखे हुए की गई। जिसकी बुनियाद में बहुत सी गलतियां हैं।
पहली बात उडुप्पी के जिस प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज में जहां 2004 से यूनिफार्म की व्यवस्था थी, लेकिन न तो लिखित आदेश था और न ही उन्हें कभी हिजाब पहनने से रोका गया। लड़कियां हर साल जिन्हें पहनना था वह पहनती रहीं। जहां तक सरकार के प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज पर लागू होने वाले कानून का प्रश्न है वह कर्नाटक शिक्षा अधिनियम-1983 में अनिवार्य नही थे। 1995 में पारित कुछ नियमों में कॉलेज विकास समितियों को अपने-अपने कॉलेज के लिए यूनिफार्म के नियम बनाने के साथ अन्य नियम बनाने की अनुमति दी गई है। इसके बावजूद भी पिछले 18 साल से यूनिफार्म के नियम का कड़ाई से न तो पालन होता रहा है और न ही बुर्का या हिजाब पहनने पर आपत्ति हुई है। अगर रोक का आदेश होता तो लड़कियां वहां दाखिला ही नही लेतीं। जब अचानक उन्हें रोका गया और बाद में ओढनियों को भी रोका गया तब अभिभावकों ने थोड़ा ऐहतेजाज किया। बात अंदर खाने बढ़ी और 29 दिसंबर को कॉलेज के गेट पर विरोध प्रदर्शन हुआ।
पहली नजर में देखा जाए तो हिजाब पर पाबंदी लगाने का शैक्षणिक संस्थानों का यह फैसला किसी विधिशास्त्रीय कारणों की तस्दीक नही करता। देखा जाए तो यह छात्राओं के शिक्षा लेने के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन भी है। राज्य सरकार ने मामले को स्थानीय स्तर पर नियंत्रित करने के बजाए ऐसे कपड़ों को पहनने पर पाबंदी लगाने का फरमान दे डाला, ऐसा फरमान भारत में समानता, अखंडता, और नागरिक अधिकारों को चोट पहुॅंचाता है। संघ के एजेंडे को अमली जामा पहनाने के मौके की तलाश में बैठे कर्नाटक बीजेपी प्रमुख अनिल कुमार कटील ने इसे शिक्षा का तालिबानीकरण कह डाला, उनके इस गैरजिम्मेदाराना बयान से नाराजगी और बढ़ी। एक ऐसे वक्त में जब उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, बीजेपी ने सारे मुद्दों को दरकिनार कर अपना पूरा फोकस हिजाब पर केंद्रित कर दिया। बड़ी-बड़ी सभाओं में प्रधान मंत्री, गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री अपना रिपोर्ट कार्ड जनता के सामने रखने के बजाए हिजाब पर बात करने लगे, वोटों का ध्रुवीकरण करने का इससे मोफीद मौका और क्या हो सकता था।
टीवी चैनलों की बेअसर डिबेट हिजाब, बुर्के से भर गईं, बीजेपी का आईटी सेल उसके जवाब में मुस्लिम इंतेहापसंद दलों का आईटी सेल एक दूसरे पर इल्जामतराशी के दलदल में गहरे उतरते चले गए। इंतेहापसंद हिंदू संगठनों ने गमछा टोपी डाले नौजवान लड़कों को आगे कर सुलगती आग को दहका दिया। दूसरी तरफ पौपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया का सहयोगी संगठन कैंपस फ्रट ऑफ इंडिया भी मैदान में आ गया। औरत नियंत्रण में रहें इसके लिए हिंदू या मुस्लिम दोनो कट्टरपंथी मर्द पूरी ताकत झोक देने को तैयार रहते हैं, पर औरत क्या चााहती है इससे किसी को क्या लेना देना।
क्या-क्या होंगे इस फैसले के नुकसान:-
इस फैसले के असरात काफी गंभीर हो सकते हैं, हिंदू कट्टर पंथी ताकतों को और बढ़ावा मिलेगा, जिस काम के लिए नौजवान लड़कों का इस्तेमाल किया गया उन्हें भगवा गमछा पहनाया गया, यह काम वह देश में सभी जगह दोहराऐंगे। दूसरे स्कूलों, दफ्तरों में काम करने वाली हिजाबपोश महिलाएं निशाना बनाई जाएंगी। उनके प्रति नफरत पैदा की जाएगी। दूसरी तरफ वह मुस्लिम परिवार जहां हिजाब पहना जाता था, वह अपनी लड़कियों पर और कट्टरवाद थेापने का काम करेंगे। वो लड़कियां जो बुर्का हिजाब के सहारे तालीम ले रही थीं, ऐन मुमकिन है कि उनकी तालीम रोक दी जाए। पित्रसत्तात्मक परिवार में औरत की स्थिति और खराब हो जाए। लड़कियों को एक खास तरह के स्कूलों में डाला जाएगा जो प्रगतिशीलता से दूर होंगे। इस सब के बीच नुकसान होगा तो सिर्फ औरत का होगा।
मुस्लिम औरतें जो प्रगतिशीलता की ओर बढ़ रही हैं, अपने आंदोलन खड़े कर रही हैं, बड़ी बेबाकी से अपनी बात कहने लगी हैं मानो उनकी प्रगति पर बुलड़ोजर चलाने की तैयारी कर दी गई है। 1985 का वो तूफान जो शाहबानों के दौर में उठा था वो वापस उठ सकता है। इस संभावना से भी इनकार नही किया जा सकता।
हमें उन लड़कियों की निगाह से भी देखना होगा जो कभी बिना हिजाब बुर्का स्कूल नहीं गईं, अब उन्हें कितना असहज रहना पड़ेगा, कल को आरएसएस ऐसी भी तैयारी कर सकता है कि हिजाब पहनी औरत किसी सार्वजनिक स्थल पर नही आ सकती। बात यह है कि जब मंशा में ही खोट हो तो किसी सद्भाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यह समझना होगा कि बदलाव कभी डंडे के जोर पर नही लाया जा सकता। वह एक प्रक्रिया के तहत ही आता है। जिसका मौका हर नागरिक को दिया जाना चाहिए।
इस पूरे मसले को स्थानीय और स्कूल स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था, लेकिन सरकार से लेकर स्कूल की दिलचस्पी तो सिर्फ किसी कौम को निशाना बनाने में ही रही। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई का बयान आना कि बाहरी लोगों की संलिप्तता ने बहुत भ्रम पैदा किया है। अगर कॉलेज प्रशासन ,छात्र और अभिभावक मामले को सुलझाते तो अब तक यह सुलझ चुका होता। सवाल यह भी है कि प्रदेश सरकार ने शुरूआत में इसमें दखल क्यों नही दिया।
2002 फातिमा हुसैन मुंबई, 2015 नदा रहीम केरल, 2016 आमनी बिंत बशरी आदि मामले पहले भी आए हैं जब मेडिकल प्रवेश परीक्षा में आधी बाजू की कमीज पहनने पर असहजता के कारण ये लड़कियां कोर्ट गई थीं तो कोर्ट ने उन्हें परीक्षा से आधा घंटा पहले आने को कहा था और पूरी बाजू का कुर्ता व बुर्का पहनने की इजाजत दी थी, और मामला वहीं खत्म हो गया था। 2018 में केरल के शबरी माला मंदिर में उन महिलाओं के प्रवेश को रोका गया था जब उन्हें माहवारी आती हो, इस पर भी कोर्ट ने महिलाओं की बात सुनकर उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत दी थी।
हमारे सामने ऐसे भी उदाहरण है जब न्यूज़ीलैंड ने 2020 में ऐसी योजना बनाई कि ज्यादा संख्या में मुस्लिम महिलाएं पुलिस सेवा में आएं, इस लिए उन्होने पुलिस वर्दी में हिजाब को शामिल कर लिया। कुछ सकारात्मक कदम भी उठाए जा सकते थे महिला शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए।
प्रगतिशीलता की ओर बढ़ते मुस्लिम समुदाय की औरतें समय के साथ खुद हिजाब, बुर्के पर बहस करतीं , उसे अपनी आजादी के लिए गैरजरूरी समझतीं और उसे झटक कर फेंक देतीं, और अपने सुंदर उड़ते बालों को हवा में लहरातीं, तो बात अलग होती, लेकिन किसी के तन के लिबास को अचानक छीन लेना, उसे सड़क पर उतारने को बाध्य करना क्या इससे प्रगतिशीलता को परखा जाएगा?
बुर्कापोश औरतें भी बड़े काम कर रही हैं, देश के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। जिन्होने एनआरसी विरोधी आंदोलन में एक नई इबारत लिख ड़ाली। इन बुर्के वालियों के हुजूम से हुकूमत को ड़रते देखा, शाहीनबाग की अम्मा जी दुनिया की 10 असरदार औरतों में शुमार की गईं।
सबसे फिक्र की बात ये है कि मुल्क में इस वक्त जिस तरह का माहौल तैयार किया जा रहा है वो इंसानियत परस्त नही है, वो हिंदुत्व की तरफदारी करता है, जा-बेजा की परवाह किए बिना नौजवान इसी सोच के शिकार बनाए जा रहे हैं, लोकतंत्र में चुनाव जीतना मानों किसी जंग को फतेह करना सरीखा बन गया है, मोहल्ला पड़ोस हिंदू मुस्लिम खानों में बांट दिया जा रहा है, नफरत के निजाम में कयादत ललकार रही है, कि ये देश हिंदुओं का ही है, इसके नुकसानात तो अगली पीढ़ी को भी उठाने ही पडेंगे। ऐसे माहौल में हिजाब पर इस पूरी कवायद को प्रगतिशीलता के ढांचे में तो नही ही देखा जा सकता।
(लेखिका एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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