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कश्मीर: 'इजरायल मॉडल' के प्रति शासक वर्ग का प्रेम

कश्मीर कहीं एक उपनिवेश में न तब्दील हो जाये, इसे रोकने के लिए जरूरी है एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक राह।
Kashmir: Rulers Love for ‘Israeli Model’

इस बात पर यकीन करने का दिल तो नहीं करता कि किसी भारतीय राजनयिक ने जो अभी भी भारतीय विदेश विभाग में अपनी सेवाएं प्रदान कर रहा हो, वह न्यूयॉर्क में कश्मीरी पंडितों की एक सभा के समक्ष आधिकारिक हैसियत से यह कहने की हिम्मत रखता है कि कश्मीरी संस्कृति “भारतीय संस्कृति है, और यह हिंदू संस्कृति है"।

 फिर एक कदम आगे बढ़कर  यह भी सुझाये कि “इजराइली मॉडल” जो कि अपने आप में हैवानियत के लिए बदनाम है, उस इजराइली नीति के तहत पुनर्वासन के लिए उकसाए। कश्मीरी संस्कृति को पूरी तरह से "हिंदू" संस्कृति साबित करना न केवल इसके भारी मुस्लिम बहुमत को उनकी अपनी संस्कृति में उनकी किसी भी प्रकार की भूमिका को नकार देना है, बल्कि कश्मीर से कश्मीरी मुसलमानों को बहिष्कृत करने का औचित्य साबित करने का एक साधन है। इस बात पर भी यकीन करना मुश्किल है कि कश्मीर में सेवारत कोई आईपीएस अधिकारी किसी जनसांख्यिकीय रूपांतरण को अंजाम दे सकता है।

इस प्रकार की दकियानूसी सोच भी किसी की हो सकती है, इस पर विश्वास करना काफी मुश्किल है - जब तक कि उसमें कश्मीर के सवाल पर भारतीय जनता पार्टी सरकार की नीति का समावेश नहीं हो जाता। नौकरशाही में कई ऐसे लोग हैं जो सत्तारूढ़ दल के लिए दीक्षा प्राप्त सदस्य के रूप में पेश आते हैं। मुंबई में हाल ही में एक सार्वजनिक बैठक में एक इजरायली राजनयिक ने अपने विचार रखे थे कि हिंदुत्व और ज़िओ निज्म हुबहू एक जैसे हैं।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि, कश्मीरी पण्डितों की घर वापसी सुनिश्चित की जानी चाहिए और कश्मीर का हल किसी झगड़े में नहीं ढूँढना चाहिए। लेकिन कश्मीरी पण्डितों की पीठ पर सवारी कर घिनौने विचारों को हवा देना साबित करता है कि भारतीय प्रतिष्ठान अपने भयानक ख्वाब को साकार करने के लिए किस स्तर तक गिरने को तैयार है।

कश्मीर के संदर्भ में इजरायल की रंगभेद नीति के लिए आकर्षण को आप अनुच्छेद 370 और 35A  को निरस्त करने में देख सकते हैं। जिसमें जम्मू-कश्मीर क्षेत्र को केंद्रशासित प्रदेश में तब्दील कर अब स्थानीय आबादी को कश्मीर से बाहर खदेड़ने के लिए मजबूर करके, वहाँ पर पुनर्वास की नीति को लागू करना शामिल है। अब जब उनके पास जो विशेष दर्जा हासिल था उसे भी उन्होंने खो दिया है, और कश्मीर में भूमि पर नियंत्रण और स्वामित्व अब केंद्र सरकार के पास हस्तांतरित हो चुका है। इस प्रकार केंद्र सरकार के पास करीब-करीब वे सभी शक्तियां सन्निहित हैं, जिसमें वह इस भू-स्वामित्व के साथ जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है। यहां तक कि अचल संपत्ति के पंजीकरण का अधिकार भी अब केंद्र सरकार के पास ही है।

सरकार जब बंदी जीवन जी रहे लोगों से गुजारिश करे कि वे अपनी जमीन का सौदा सबसे ऊँची बोली लगाने वाले से करने के लिए स्वतंत्र हैं, तो यह उस सार्वजनिक अभियान का हिस्सा है,जो उस खतरे की याद दिलाता है, जहाँ "मखमली दस्ताने में लोहे की मुट्ठी" छिपी है। इसलिए सरकार का गेम प्लान इजराइल वाले रास्ते को ही अनुसरण करने वाला लगता है, जो मूल निवासियों को निर्वासित करने और बाहर से आये हुए लोगों को बसाने की ओर इशारा करता है।
आइए देखते हैं कि इसके मद्देनजर कौन-कौन से अकल्पनीय झूठ शामिल हैं।

चलिए हम बाहरी दुनिया से शुरुआत करते हैं। एक अन्योन्याश्रित दुनिया में, भारत को इजरायल नहीं समझा जाना चाहिए। इजरायल के विपरीत, निश्चित तौर पर कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान का समीकरण सामने आ जाता है, चाहे इसे भारत पसन्द करे या नहीं, और अब तो चीन भी। इसके अलावा, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारतीय जनता को क्या बताया जाता है, तथ्य यह है कि जहाँ एक ओर दुनिया यह चाहती है कि पाकिस्तान कायदे से रहे और उन आतंकवादियों को काबू में रखे जिसका उसने पालन पोषण किया है। लेकिन वे भारत की किसी भी चाल को अस्वीकार कर देंगे, जिसमें इस क्षेत्र में अस्थिरता पैदा करने की बू आती है क्योंकि फिर चीजें नियंत्रण से बाहर हो सकती हैं। खासतौर से तब जबकि भारत ने अब पाकिस्तान को "पुलवामा और उरी का बदला चुकता करने के लिए" खुद को खुले तौर पर प्रतिबद्ध दिखाया है और इसके लिए वह सैन्य प्रतिक्रिया के रूप में जवाबी कर्यवाही के लिए तैयार है।

न तो दोनों महाशक्तियाँ, अमेरिका और चीन, और ना ही रूस, यूरोपीय संघ और जापान ही पाकिस्तान को दीवार से चिपकने पर मजबूर करने की इजाज़त देने वाले हैं। अफगानिस्तान में पुनर्वासन के मामले में, पाकिस्तान ने तालिबान को वार्ता की मेज पर लाने की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और उसकी भूमिका ईरान और सऊदी अरब के बीच एक दूत की है। ये दोनों तथ्य इस बात के संकेत हैं कि, उसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है और उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न तो अफगानिस्तान में और ना ही ईरान-सऊदी मध्यस्थता में भारत ने अपनी कोई भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त इस बात को भी याद रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान भी कश्मीर विवाद में एक पक्ष है। जिसका अर्थ यह है कि भारत के लिए अपनी मर्जी से सैन्य कार्यवाही कर पाना मुश्किल होगा।

भारतीय इस बात का दावा कर सकते हैं कि यदि इजरायल या कोई अन्य देश जब अपने यहाँ इस तरह के जनसांख्यिकीय परिवर्तन ला सकते हैं, तो भला भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता है? इसका उत्तर यह है कि भारत इजरायल नहीं है, जो हत्या करके साफ़ बच निकले। इजराइल ऐसा कर सकता है क्योंकि उसे संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका) का समर्थन और संरक्षण प्राप्त है। पूर्व राजनयिक एम के भद्रकुमार ने इजरायल और भारत के बीच के ढेर सारे फर्क को बेहद सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है।

इजरायली मॉडल को अमेरिकी और यूरोपीय संघ के समर्थन में, यह आम जन को इस बात की याद दिलाता है कि इजरायल राज्य ने फिलिस्तीनियों का क्या हाल किया है। इसके अलावा, भारत के बदहाल होते आर्थिक संकट, ’टैक्स आतंक’, संदिग्ध डेटा और सांख्यिकी के आँकड़ों से छेड़छाड़ ने घरेलू और विदेशी दोनों ही प्रकार के निवेशकों को चौकन्ना कर दिया है। यह एक ऐसा दौर भी है जब भारत अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर जोर देकर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक समझौते (RCEP) पर हस्ताक्षर नहीं कर पाने पर अपनी इज्जत बचाने के लिए इससे होने वाले नुकसान की भरपाई करने का इच्छुक है। यह हमें अमेरिका के घरेलू क्रॉस-करंट के समक्ष कम नहीं बल्कि कहीं अधिक चपेट में ले जाता है, जहां भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन करने के बाद भारत के लिए द्विदलीय समर्थन के रूप में गिरावट आई है।

भारतीय विदेश मंत्री इस बात को साबित करने के लिए बाल नोच सकते हैं कि भारतीय पीएम ने ट्रम्प को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन नहीं किया है, लेकिन वे अपनी सरकार की तरह ही यकीन दिला पाने में असमर्थ हैं, जो खुद संवैधानिक नैतिकता को महाराष्ट्र में नष्ट करने के अगले ही दिन उसकी दुहाई देने लगती है।

वास्तविक जीवन में, जो चटनी बत्तख के लिए है वही चटनी हँस के काम आयेगी, से काम नहीं चलता है। अंत में जो बात मायने रखती है वह है गणना क्रम में उस देश की हैसियत किस स्थान पर है, उसकी अंदरूनी ताकत क्या है, इत्यादि। इसी बात से यह तय होता है कि कौन से देश नरसंहार की नीतियों पर चलने के बावजूद बच निकलेंगे, जबकि बाकियों को धर दबोचा जाएगा। भारत सरकार अब जाकर इस बात पर शोध करने जा रही है कि उसने जनसांख्यिकीय परिवर्तन की दिशा में नीतिगत बदलाव करके कश्मीर के मुद्दे को ही अंतर्राष्ट्रीयकरण करने में मदद कर दी है, जो आत्म-संरक्षण और दो परमाणु हथियारों से संपन्न देशों के बीच विस्फोटक स्थिति पैदा कर बदहवासी को किसी भी क्षण तेज करने के खतरे की ओर धकेल रहा है । और, जैसा कि हर कोई जानता है कि जब सवाल कश्मीरी लोगों के आत्म-संरक्षण को लेकर हो, तो इस टकराव से बचना नामुमकिन है।

जहाँ तक अंदरूनी मामले का सम्बन्ध है तो इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आजादी से पूर्व जमीन का हक जम्मू कश्मीर में सामन्ती जागीरदारी व्यवस्था में डोगरा हिन्दू शासकों ने उनसे छीन लिया था। जिसे आजादी के बाद कश्मीरी और जम्मूवासियों को क्रन्तिकारी भूमि सुधारों के जरिये, जिसने जमीन पर खेतिहरों के मालिकाने को स्थापित कर दिया था, के चलते जमीन के मालिक होने पर गर्व महसूस करते हैं।  भारत के अन्य स्थानों की तरह, जहां लोगों ने सरकारी और निजी निगमों द्वारा भूमि अधिग्रहण किये जाने की हरकतों के खिलाफ दशकों तक संघर्ष किया है, अपने अतीत में जम्मू और कश्मीर भी ऐसे संघर्षों का साझीदार रहा है। सिर्फ कश्मीर में ही नहीं, बल्कि जम्मू में भी  हिंदू कृषक आबादी में, बाहरी लोगों से अपनी जमीन हड़पे जाने का भय सता रहा है। यह एक धर्मनिरपेक्ष भावना है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले तीन दशकों से भारत ने कश्मीरी जनता के ऊपर सैनिक दमन का जैसे युद्ध छेड़ रखा हो, क्योंकि उन्होंने आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करने की हिमाकत की थी। उनकी इस इच्छा को आतंकवाद रोधी अभियानों के माध्यम से खत्म नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब-जब अवसर निर्मित किये गए, तब-तब राजनीतिक नेतृत्व की कमी देखी गई। और अब  "परिवर्तन" के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह एक इजरायली-शैली की पुनर्वास पालिसी है।

5 अगस्त के बाद से अभी तक किसी प्रकार का भूमि-अधिग्रहण सम्पन्न नहीं हुआ है, लेकिन इसे लेकर जो योजनाएं शुरू हुई हैं वे सुझाव दे रही हैं कि इसे किस प्रकार से आगे बढ़ाया जाना है।सवाल यह है, कि क्या भारत इसे लागू कर सकता है? क्या यह उन लोगों का सामना करने के लिए तैयार है, जिन्हें तीन दशकों में गंभीर दमन का सामना करना पड़ा है, जिनके पास खुद का इससे पहले 40 साल का अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण संघर्षों का इतिहास रहा हो। यदि इस पहले से समस्याग्रस्त इलाके में उनकी भूमि से उन्हें हटाने का खतरे को भी जोड़ देते हैं, तो यह आ बैल मुझे मार वाली मुसीबत को आमंत्रित करने सरीखा होगा। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रहे एक पूर्व कैबिनेट मंत्री ने हाल ही में अपनी कश्मीर यात्रा के बाद कहा कि वहां अब कोई बीच का रास्ता नहीं बचा है। यह एकतरफा रास्ते से कहीं अधिक सच है।

आज जब स्वायत्तता तक का कवच मौजूद नहीं है, ऐसे में सारी आबादी को 117 दिनों से अधिक समय तक  इंटरनेट की पहुंच से वंचित रखा गया है और वे सशस्त्र बलों की दया पर आश्रित हैं, जो उन्हें जिन्दा रहने या मार देने की शक्ति को लहराते रहते हैं। उनके बुद्धिजीवियों को या तो गिरफ़्तार कर लिया गया है या गिरफ़्तारी की धमकी दी गई है, और जहाँ तीन दशकों तक कश्मीरियों पर किए गए सभी अपराधों को भुला दिया गया हो,  तब ऐसे क्षण में लोगों के पास चुनाव करने के लिए बेहद कम विकल्प बचते हैं। तो, यह टकराव को बढाने के लिए उत्तेजित करने वाला शर्तिया रामबाणी नुस्खा है।

यह हर संभव तरीके से पूर्वोत्तर के इलाके को संदेश भेजता है, जहां "सभी विद्रोहों की जननी" जिसका नेत्रत्व नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (इसाक-मुइवा) या एनएससीएन (आईएम) करती है, का अभी तक खात्मा नहीं हुआ है। भारत सरकार को एनएससीएन (आईएम) को दिए गए अपने अल्टीमेटम, जिसमें उसे 31 अक्टूबर तक रास्ते पर आने और अपने लिए एक अलग झंडे और संविधान की मांग की शर्त को त्यागने की चेतावनी को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा है। यदि वार्ता विफल होती है, तो डर है कि पूर्वोत्तर में उग्रवाद का एक नया चरण न धधक उठे, जिसकी संभावना अधिक है।

इसके फलस्वरूप, अब से कश्मीर में लिए गए प्रत्येक प्रतिगामी कदम पर पूर्वोत्तर राज्यों की कड़ी नजर बनी रहेगी, जो पहले से ही नागरिकता संशोधन विधेयक, और सारे देश के लिए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के सवाल पर हथियारबंद हैं। सरकार के इन फैसलों से उन्हें इस बात का भय सता रहा है कि कहीं वे लोग बाहरी लोगों से न घिर जाएँ।

परेशानी का सबब यह है कि सत्ता के शिखर पर बैठे मुट्ठी भर लोग यह तय कर रहे हैं क्या होना है। सत्ता के गलियारों में कुछ ही लोग हैं जो सच बोलने की हिम्मत रखते हैं। तो हर इन्सान इस बात से हैरान है कि, ऐसी सरकार जो आंकड़ों को छुपाने में विश्वास रखती हो, उसे विकृत करती है और वास्तविकता को गलत तरीके से पेश करती है, और जो हमेशा चापलूसों से घिरी रहती हो, तो क्या ऐसी सरकार हमारे सामूहिक हितों के बारे में सोचने में भी सक्षम हो सकती है? जब वास्तविक जमीनी हकीकत को समझने की कुव्वत इतनी ख़राब है, तो निर्णय लेने की क्षमता में औसत दर्जा और झूठापन झलकना स्वाभाविक है।

प्रबुद्ध स्व-हित की भावना से पूरी तरह से लैस होने के बजाय, हम अपनी आँखों के सामने से विचारधारात्मक स्तर पर संचालित अजेंडे को परत दर परत खुलते हुए देखने के साक्षी हैं। जिओनिस्ट सेटलमेंट के विनाशकारी इतिहास और उसके परिणामों से सीखने के बजाय, जिसने वास्तव में इजरायल को कमजोर और असुरक्षित बना दिया है, भारत का शासक वर्ग उसका अनुसरण करने की ओर बढ़ रहा है। हाँ, आज इजराइल अपने पुनर्वासन और कब्जे के साथ मौज करता दिख रहा है, लेकिन जिस दिन अमेरिका ने इजरायल के सिर से अपना हाथ हटा लिया, उसी दिन से उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। उसे कोई दोस्त ढूंढे न मिलेगा, वह खुद को ढेर सारे दुश्मनों से घिरा पायेगा, जो उसने खुद बनाए हैं।

इसीलिए इजरायल उधार की जिन्दगी जी रहा है। अगर यही वह रास्ता है जिस पर भारत सरकार आगे बढ़ाना चाहती है, तो मैं अनिष्ट की आशंका से भयभीत हूँ। इस टकराव की प्रकृति फिलिस्तीनी लोगों द्वारा झेली गई प्रकृति से बेहद जुदा होने वाली है, जिन्हें लड़ने के लिए वस्तुतः अकेला छोड़ दिया गया था। ऐसा नहीं हो सकता कि कश्मीर में ऐसा कुछ हो और वहाँ के घटनाक्रमों से पड़ोस में रहने वाला अफगानिस्तान इससे अछूता रह जाये, पाकिस्तान का जिक्र करने की तो जरुरत ही नहीं है। यह बेहद उग्र होने जा रहा है क्योंकि इस हलचल में धार्मिक मामला भी घुल जाने वाला है।

एक ऐसी सरकार जो हर बात पर उसके लिए अतीत को दोष देने पर तत्पर रहती है, या यह ढोंग करती है कि अर्थव्यवस्था में कुछ भी गलत नहीं है, वह सरकार कश्मीर पर और वहां की स्थिति के बारे में भारतीय लोगों को कितना धोखे में रख सकती है, इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं। विडंबना यह है कि यह एक बार फिर से स्पष्ट करता है कि भारत में लोकतांत्रिक सोच रखने वाले लोगों के लिए इन परिस्थितियों में एकमात्र रास्ता खुला है। उन्हें आह्वान करना होगा कि जम्मू और कश्मीर के लोगों द्वारा स्वतंत्र रूप से व्यक्त की गई लोकतांत्रिक पसंद का सम्मान करने की जरुरत है : एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक राह जो, कश्मीर को एक उपनिवेश के तौर पर तब्दील किये जाने के निषेध में है।

ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Kashmir: Rulers Love for ‘Israeli Model’

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