राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और आइपीआर के नियम कोविड-19 आम जन के टीकाकरण की राह में बाधा
कोविड-19 की वैक्सीन और इससे से संबंधित उत्पादों को लेकर बौद्धिक संपदा अधिकारों को अस्थायी रूप से निलंबित किये जाने के भारत-दक्षिणी अफ्रीका के प्रस्ताव पर विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों में बढ़ते समर्थन के बीच, 280 सदस्यीय यूरोपीय देशों की संसद (MEPs) और विभिन्न यूरोपीय देशों की संसदों ने यूरोपीयन यूनियन (ईयू) से इस प्रस्ताव को स्वीकार करने का अनुरोध किया है।
24 मार्च को अपना वक्तव्य जारी करने के एक हफ्ते पहले, 60 कानून-निर्माताओं के एक समूह जिसमें से अधिकतर डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य हैं, ने इस प्रस्ताव पर सहमत होने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति पर दबाव डाला। इस प्रस्ताव को सबसे पहले भारत और दक्षिणी अफ्रीका ने अक्टूबर 2020 को डब्ल्यूटीओ के समक्ष रखा था।
यह प्रस्ताव डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों का आह्वान करता है कि कोविड-19 के इलाज से जुड़ीं अपेक्षित दवाओं और उपकरणों तथा कोविड के विरुद्ध मानवीय आबादी को प्रतिरक्षित (इम्युनाइज्ड) करने के लिए पेटेंट, कॉपीराइट, औद्योगिक डिजाइनों, और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों (ट्रिप्स/TRIPS) की व्यवसायगत गोपनीयता के बहाने से लगाये जाने वाले प्रतिबंधों को निलंबित रखा जाए।
इसका विकासशील देशों में जेनेरिक दवाएं बनाने की क्षमता का मार्ग प्रशस्त करने के काम में उपयोग किया जाएगा, जो उसके उत्पादन को और बढ़ाएगा। यह विश्व के दक्षिणी हिस्से में रह रही आबादी के लिए अपरिहार्य है जिसकी मौजूदा आइपीआर के नियम के रहते 2023 तक कोविड-19 की वैक्सीन तक पहुंच नहीं बन पाएगी।
मौजूदा आइपीआर नियम के रहते, विश्व की सर्वाधिक आबादी को 2024 तक प्रतिरक्षित नहीं किया जा सकता।
पेटेंट-धारक दवा कम्पनियां 12.5 बिलियन वैक्सीन की आधी खुराकें इसी साल उत्पादित करने की योजना बना रही हैं, जिसे विश्व की कुल आबादी की महज 13 फीसदी ने पहले से अपने लिए सुरक्षित कर लिया है।
आर्थिक खुफिया ईकाई (EU) का आकलन है कि समृद्ध देशों की व्यापक आबादी के संभवत: 2022 के मध्य तक प्रतिरक्षित (इम्यूनाइज्ड) होने जा रही है। गरीब देशों में “आम जन को प्रतिरक्षित करने का काम 2024 तक ही हो पाएगा, अगर सब कुछ ठीक रहा तो।” इस आकलन का यह संकेत है कि इन गरीब अर्थव्यवस्था वाले देशों की प्रतिरक्षण-प्रक्रिया में एक साल की देरी के चलते 2.5 मिलियन लोगों की मौतों के रूप में कीमत चुकानी पड़ेगी, जिसे टाली जा सकती है।
इन निर्धन देशों में प्रतिरक्षण (इम्यूनाइजेशन) तक लोगों की पहुंच वैक्सीनेशन की ऊंची दरों के चलते बाधित होगी, जो इन देशों से ही वसूली जाएगी। इंटर प्रेस सर्विस न्यूज एजेंसी के एक हालिया लेख में कहा गया है कि “प्रसिद्ध सस्ती वैक्सीन उपलब्ध है, ऑक्सफोर्ड-एस्ट्रा जेनेका यूरोपीयन यूनियन के देशों को प्रति खुराक 2 डॉलर में मिल रही है। जबकि दक्षिणी अफ्रीका जहां इसका परीक्षण किया गया, वहां अब भी उससे दो गुनी कीमत पर बेची जा रही है। वहीं उगांडा, जो काफी गरीब है, इस वैक्सीन की चार गुनी ज्यादा कीमत चुकाता है!”
इसके लेखकद्वय-संयुक्त राष्ट्र आर्थिक विकास के पूर्व सहायक महासचिव जोमो क्वामे सुंदरम्(Jomo Kwame Sundaram) और अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर अनिस चौधरी हैं, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में अनेक पदों पर काम किया है। इन दोनों लेखकों ने रेखांकित किया है कि “अमेरिका ने थोक में दामों को मोलतोल किया है। इसके तहत मॉडर्ना और फाइजर बायोएनटेक्क वैक्सीनों की अनेक निविदाओं के लिए प्रति खुराक 15.25 डॉलर से 19.50 डॉलर तक है, जिसका मतलब 60 से 80 फीसद मुनाफा है! मॉडर्ना पूरी दुनिया से प्रति खुराक 25-37 डॉलर की कीमत वसूल करेगा।”
पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च सेंटर के निदेशक कंवलजीत सिंह ने पीपुल्स डिस्पैच से कहा कि जब भारत और दक्षिणी अफ्रीका ने वैश्विक स्तर पर आम जन को प्रतिरक्षित (इम्यूनाइज्ड) करने के लिए उन बाधाओं को दूर करने के मकसद से एक प्रस्ताव लाया तो “डब्ल्यूटीओ के अंदर इस पर बहुत ही कमजोर प्रतिक्रिया हुई क्योंकि कई (विकासशील) देशों ने सोचा कि यह नहीं हो सकता और दवा उत्पादक कम्पनियां कभी अपने पेटेंट साझा नहीं करेंगी।”
लेकिन नागरिक समाज के समूहों और श्रम यूनियनें, डॉक्टर्स के संगठनों जैसे एमएसएफ और पश्चिम के औद्योगिक रूप से अग्रणी और विकासशील देशों, दोनों के ही अकादमिक संस्थानों ने इसे एक एजेंडे के बतौर अपनाया। इन्होंने इस तथ्य के आसपास अपना अभियान शुरू किया कि इस वैक्सीन के अनुसंधान एवं विकास में भारी मात्रा में सार्वजनिक कोषों का निवेश किया गया है।
कंवलजीत सिंह ने माध्यम में लिखे अपने आलेख में रेखांकित किया कि जनवरी से सितम्बर 2020 के बीच “19 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सार्वजनिक धन” के अलावा “अनेक तरीकों से कोविड-19 के टीके, उसकी चिकित्सा और नैदानिक (डायग्नोस्टिक्स) के लिए बड़ी दवा कम्पनियों में निवेश किया गया है।”
प्रस्ताव के पक्ष में असाधारण रूप से कदम उठाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की महानिदेशक टेड्रोस अदनोम घेबरेसस ने इस महीने की शुरुआत में पहले कहा था,“बौद्धिक संपदा अधिकारों को ट्रिप्स प्रावधानों के तहत निलंबित किए जाने से वैक्सीन उत्पादन की क्षमता वाले देश अपने यहां वैक्सीन के उत्पादन का काम शुरू कर सकते हैं। वे प्रावधान आपातकाल में ही उपयोग करने के लिए है। अब अगर ऐसे समय में उन प्रावधानों का उपयोग नहीं किया जाएगा तो फिर कब किया जाएगा?”
पिछले कुछ महीनों में इस प्रस्ताव के प्रति पूरी दुनिया में समर्थन बढ़ा है। मौजूदा समय में डब्ल्यूटीओ के 100 से ज्यादा सदस्य देशों, जिनमें दो तिहाई बहुमत विकासशील दुनिया का है, ने इस प्रस्ताव के प्रति अपना समर्थन जताया है। यद्यपि इस प्रस्ताव के क्रियान्वयन के लिए 163 सदस्य देशों के समर्थन की दरकार है। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीयन यूनियन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और उनके सहयोगी देश इस प्रस्ताव पर आम सहमति बनने देने में लगातार अडंगेबाजी कर रहे हैं।
तीसरा रास्ता?
इस गतिरोध के बीच,1 मार्च 2021 को डब्ल्यूटीओ की महानिदेशक का पदभार ग्रहण करने वाली तथा अमेरिकी और नाइजीरिया की नागरिक नगोजी ओकोन्जो-इवेला ने एक प्रस्ताव किया है, जिसे वह “तीसरा रास्ता” कहती हैँ। कंवलजीत सिंह का तर्क है कि इवेला का यह प्रस्ताव आवश्यक रूप से “यथास्थिति बनाए रखने की तरफ-एक पहला कदम है”। उनका प्रस्ताव आवश्यक रूप से यह है कि डब्ल्यूटीओ तीसरी दुनिया की दवा-उत्पादक कम्पनियों और बड़ी दवा उत्पादक कंपनियों के बीच ट्रिप्स के प्रावधानों को लागू किये बिना ही तकनीकी हस्तांतरण को सुगम बनाने के लिए बातचीत करेगा। कंवलजीत कहते हैं, “यह डब्ल्यूटीओ का काम नहीं है। यह डब्ल्यूएचओ का मैनडेट है।”
इसके अतिरिक्त, मौजूदा व्यवसाय व्यवस्था ऐसे तकनीक हस्तांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती। दरअसल, TRIPS समझौता कंपनियों की आइपीआर और सरकार की अपने लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरी करने के उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बैठाने के लिए अपने लक्ष्यों और सिद्धांतों को स्पष्टता से रेखांकित नहीं करता है।
“लेकिन समझौते में कामकाजी प्रावधान तकनीकी के स्वामी के पक्ष में झुके हुए हैं और इसके उपभोक्ताओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है।” यह कहना है, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन और योजना केंद्र में प्रोफेसर विश्वजीत धर का। उन्हौंने पीपुल्स डिस्पैच से बातचीत में कहा, “तकनीकी हस्तांतरण को रोकने के लिए समझौते में ऐसा कुछ भी नहीं है। दरअसल, इसकी आवश्यकता को स्पष्टता से भी विवेचित किया गया है। किंतु तकनीकी हस्तांतरण की आवश्यकता का यह मतलब नहीं है कि तकनीकी हस्तांतरण किया ही जाएगा।”
प्रोफ़ेसर धर ने आगे कहा कि प्रत्येक तरीके से जिसमें डब्ल्यूटीओ के मुहावरे में “ट्रांसफर” शब्द का उपयोग किया जाता है, वह गुमराह करने वाला है। उनका कहना है, “तकनीक एक वस्तु है। इसका हस्तांतरण नहीं किया जाता, इसे खरीदा और बेचा जाता है।” और यह व्यवसाय जो मौजूदा TRIPS व्यवस्था के तहत होता है, वह विकासशील देशों के हितों के विरुद्ध है।
विश्व की सबसे बड़ी वैक्सीन उत्पादक कंपनी सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और नोवेवेक्स के बीच समझौता ‘तीसरे रास्ते’ का एक अच्छा उदाहरण है। यह समझौता वैक्सीन की 2 बिलियन खुराकों के उत्पादन के लिए किया गया है। प्रो. धर ने कहा “समझौते में स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख किया गया है सिरम को वैक्सीन के उपयोग में आने वाली सामग्री के उत्पादन का कोई अधिकार नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि हम सदा-सदा की आपूर्ति के लिए मूल कंपनी पर आश्रित हैं।”
प्रोफ़ेसर ने कहा,“ विकासशील देशों में ऐसी कंपनियां, जिनके पास वैक्सीन की खुराकों को विकसित करने और उनका उत्पादन करने की सहज क्षमताएं हैं, वे इनके पेटेंट-स्वामियों और उनके अपने देशों द्वारा थोपी गई शर्तों और नियमों के कारण पंगु हो जाएंगी।”
प्रोफेसर धर और कंवलजीत सिंह दोनों का विश्वास है कि TRIPS एग्रीमेंट में इन धाराओं को अस्थाई रूप से निलंबित करने से वैश्विक आबादी की जरूरतों के मुताबिक 2022 के मध्य तक वैक्सीन के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
पिछले हफ्ते 23 मार्च को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 40 में सत्र के समापन अवसर पर 130 देशों ने प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए पूरी दृढ़ता से सभी देशों से अर्ज किया कि वे वैक्सीन से किसी भी तरह की आर्थिक, वित्तीय और व्यवसाय उपायों के लाभ लेने से अपने को दूर रखें जो कोविड-19 वैक्सीन तक समान, वहनीय, निष्पक्ष, समयबद्ध तथा वैश्विक पहुंच, विशेषकर विकासशील देशों में, उसकी आपूर्ति को सुनिश्चित कर सके।”
यह प्रस्ताव स्पष्ट रूप से ट्रिप्स एग्रीमेंट में धाराओं को छोड़ देने का आह्वान नहीं करता। यह हालांकि “ इसके उपयोग के अधिकारों की पुष्टि करता है...इसके दायरे में लचीलेपन की बात करता है, जैसा कि ट्रिप्स एग्रीमेंट और जन स्वास्थ्य पर दोहा घोषणा पत्र में इसकी पुन: तसदीक की गई है। इसमें यह माना गया है कि देशों के अपने लोगों के आम स्वास्थ्य, विशेषकर सभी के लिए दवाओं तक पहुंच बनाने, जैसे कोविड-19 वैक्सीन को सभी लोगों तक पहुंच बनाने के अधिकार के संरक्षण में समझौते के प्रावधानों की व्याख्या और उनका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।”
यद्यपि समझौते में कामकाजी ढांचा दोहा घोषणा पत्र के सिद्धांतों को महसूस करने के लिए व्यवहार में बहुत कम जगह छोड़ता है, प्रोफेसर धर ने कहा इन सिद्धांतों की मान्यता देना ही अपने आप में विकासशील देशों के लिए एक बड़ी जीत है, जो इस सदी की शुरुआत में एचआइवी महामारी की पृष्ठभूमि में डब्ल्यूटीओ में एकजुट खड़ा रहा था।
इस घोषणा पत्र के आधार पर निर्माण और TRIPS के चार खंडों के निलंबन पर जोड़ देना एक राजनयिक मंच है, जो विकासशील देशों के बीच वैसे ही एकता की जरूरत को मांग करता है, जिसकी प्रोफ़ेसर धर को कमी दिखाई देती है। ब्राजील जैसे देश जिसने आइपीआर के जरिए बड़ी दवा उत्पादक कंपनियों के बोलबाले के विरुद्ध तीसरी दुनिया के देशों के संघर्ष की अगुवाई करता था, वह अपने नेता जायर बोलसोनारो की कमान में पूरी तरह अमेरिकी शिविर में चला गया है।
दूसरी तरफ, सह-प्रस्तावक होने के बावजूद भारत ने इस मामले में अपनी पर्याप्त राजनीतिक पूंजी का निवेश नहीं किया है, जैसा कि कंवलजीत सिंह का मानना है। इस महीने के प्रारंभ में चतुष्टय (क्वाड) शिखर सम्मेलन हुआ था, जहां भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च नेता वर्चुअली मिले थे और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में वैक्सीन उत्पादन को बढ़ाने-कहिये कि आवश्यक रूप से चीनी वैक्सीन के प्रसार को रोकने-के बारे में विचार-विमर्श किया था। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने इस प्रस्ताव पर अमेरिका की अगुवाई में डब्ल्यूटीओ में हो रहे विरोध का मामला तक नहीं उठाया था।
प्रोफेसर धर ने कहा कि इसके बजाय प्रधानमंत्री मोदी ने चतुष्टय (क्वाड) में यह घोषणा की कि भारत और तीन अन्य देश जो प्रतिरक्षण को बाध्यकारी बनाने का विरोध कर रहे हैं, वे “पहले की तुलना में और करीब होंगे।” धर ने कहा कि भारत दो समान रूप से बेमेल लक्ष्यों को एक साथ साधता है—एक तरफ वह अमेरिका के साथ अपने नजदीकी रिश्ते बनाता है और दूसरी तरफ उसने सस्ती वैक्सीन तक अपनी पहुंच बनाया है—इसने भारतीय राजनय को “असमंजस” में डाल दिया है।
कमोबेश इसी तरह की परिस्थितियां अन्य विकासशील देशों में भी हैं, जिनकी सरकारों ने इस प्रस्ताव के समर्थन करने के बावजूद, डब्ल्यूटीओ में पश्चिमी देशों की सरकारों और बड़ी दवा कंपनियों के समर्थक देशों के विरुद्ध राजनयिक रूप से जोर देने के लिए पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया है। इस परिस्थिति में, विश्व के नागरिक समाज और संघों के समक्ष ही लाखों लोगों की मृत्यु को टाली जा सकने में सक्षम वैक्सीन के निर्माण के मार्ग में आइपीआर की मौजूदा इन बाधाओं को दूर करने का बड़ा काम पड़ा हुआ है।
सौजन्य : पीपुल्स डिस्पैच
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
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