खोता बचपन और शिक्षा का ‘राजमार्ग’
पाँच साल से लेकर अठारह साल के मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों के घर का कोना फिर से वर्चुअल स्कूल में बदल चुका है। मोबाइल या लैपटॉप को ईयरफोन से जोड़कर इन्हें घर-घर में देख सकते हैं। थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो साफ पता चल जाएगा कि 'वर्चुअल क्लास' की गतिविधियों के अलावा भी बहुत कुछ है जो चल रहा है। सो मैंने पूछ लिया बेटे से। खैर थोड़ी देर में ही उसने बता दिया कि जब उसे मन नहीं लगता तब वह उसमें वीडियो देख लेता है, चैटिंग कर लेता है। जब शिक्षक पत्नी से बेटे का हाल बताया तो उन्होंने कहा कि यह सिर्फ इसका नहीं ज्यादातर बच्चों का हाल है, सो चिंता मत करो। मेरी चिंता और बढ़ गयी थी, क्योंकि यह आने वाली एक पूरी पीढ़ी की सामूहिक प्रवृत्ति का संकेत है।
असल में 'सीखना' जिसे शिक्षा कहते हैं - वह तो एक सामूहिक प्रक्रिया है। ऊपर से भले ही यह व्यक्तिगत प्रतिभा दिखे, लेकिन है तो यह सामाजिक प्रक्रिया ही। कोरोना और उसके कारण ऑनलाइन शिक्षा के उत्साह ने शिक्षा की इस मौलिक अवधारणा को ही दरकिनार करने की कोशिश की है। इसे समझने के लिए बेटे से जो बात हुई उसे आपके सामने पेश कर रहा हूँ। मेरे यह पूछने पर कि क्या ऑनलाइन क्लास में मन नहीं लगता ? तभी तो वीडियो देखते हो ? - उसने कहा कि नहीं, मैं तब देखता हूँ जब जो बताया जा रहा होता है वह 'बोरिंग' लगता है। मैंने कहा कुछ उदाहरण से बताओ। उसने कहा जैसे इंग्लिश पीरियड में शब्दों को चुनने और उसके इस्तेमाल की बात होती है तब!
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उसके इस जवाब ने मेरी परेशानियों को बढ़ा दिया था। यह प्रवृत्ति तो भगोड़ेपन की है। हमारे घर में हिंदी का माहौल है। ऐसे में इंग्लिश भाषा उसे स्कूल में ही सीखने को मिलता है जो सामूहिक या सामाजिक प्रक्रिया में उसे प्राप्त होता है। इंग्लिश का मुश्किल होना उसके लिए स्वाभाविक है, लेकिन यह मुश्किल स्कूल की सामूहिक या सामाजिक प्रक्रिया में सीखने की भी स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है। यही कारण है कि मुश्किलों का सामना करने की सहज प्रवृत्ति को स्कूली शिक्षा में निर्मित किया जा सकता है। लेकिन यही 'मुश्किल' वर्चुअल स्पेस में वैकल्पिक विचलन के लिए तमाम संभावनाओं को भी प्रस्तुत कर देता है। यूट्यूब से लेकर चैटिंग तक यही वैकल्पिक विचलन की संभावनाएं हैं। मगजपच्ची, जिसे ब्रेन-स्ट्रोमिंग कह सकते हैं की बजाय दिमाग को ही 'अन्य भटकाव' जिसमें उसे 'मजा' आता है - की तरफ मोड़ देता है। मगजपच्ची या मगजमारी की सामूहिक प्रक्रिया एक आनंदायक खेल हो सकता है, लेकिन यही प्रक्रिया एकांतिक रूप में बोरिंग भी।
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इंटरनेट से लैश मोबाइल फोन, टैब या कंप्यूटर लेकर जब बच्चा एकांत में शिक्षा लेने के लिए तैयार किया जा रहा है, तब हमें इसकी सीमा को पहचानने की भी जरूरत है। आज हालात क्या हैं ? अधिकांश मध्यम वर्गीय परिवार जो इस ऑनलाइन शिक्षा का हिस्सा है उनके घरों में देखेंगे तो आपको सिंगल चाइल्ड दिखेगा। आज वह सिंगल चाइल्ड 'अकेला' पड़ चुका बच्चा है। लंबे समय तक उससे सामूहिकता या सामाजीकरण की प्रक्रिया छिन गयी है। विकल्प क्या है ? हमारे एक डॉक्टर साथी जो बताते थे कि उनका बेटा इलेक्ट्रॉनिक गजट से दूर है अभी तक। उसे आउट डोर गेम पसंद है, आज बता रहे कि वह भी उन्हीं में लगा हुआ है। वजह यह कि कोई दूसरा विकल्प मौजूद नहीं है।
इस सबका नकारात्मक असर पढ़ने की क्षमता पर देखा जा सकता है। जैसे-जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का प्रयोग बढ़ रहा है दृश्य-श्रव्य माध्यम से ही सीखने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। पढ़ने की प्रवृत्ति में जबरदस्त गिरावट देख सकते हैं। किताबों में रुचि जबरदस्त घटी है। क्लास रूम में बच्चों के इस पढ़ने की प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए सामूहिक गतिविधि करवायी जाती रही है। अभी हालात यह है कि हमारे एक मित्र ने यूट्यूब चैनल शुरू किया, जिसमें मात्र साहित्य के टेक्स्ट का पाठ किया गया है। पूछने पर पता चला कि हरिशंकर परसाई का 'भोला राम का जीव' जब बच्चे नहीं पढ़े तो मैंने यह प्रयोग किया। सब बच्चों ने यूट्यूब में उसे सुन लिया।
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पढ़ना और लिखना आधुनिक ज्ञान निर्माण की आरंभिक शर्त है। ऑनलाइन शिक्षा का सबसे बड़ा हमला इसी पढ़ने और लिखने की ठोस भौतिक प्रक्रिया पर हुआ है। वर्चुअल एजुकेशन में आज पढ़ने और लिखने का विकल्प देखना और सुनना हो गया है। देखना और सुनना ज्ञान का उपभोक्ता तो बना सकता है निर्माता नहीं। भविष्य निर्माण की योजना बनाते हुए हमें देखना होगा कि आखिर हम 'नॉलेज क्रियेटर' बना रहे हैं या मात्र 'कंज्यूमर' तैयार कर रहे हैं। शिक्षा के जरिए पूरी दुनिया की नॉलेज इकॉनोमी में भारत का योगदान उसकी खासियत रही है। क्या इस नई शिक्षा नीति में हम भविष्य के ज्ञान निर्माता की भूमिका निभा सकेंगे ? मात्र उपभोक्ता बनकर वैश्विक आर्थिक ताकत बन पाना क्या संभव है? थोड़ी देर के लिए उपभोक्ता की ताकत का एहसास चीनी एप्प पर प्रतिबंध लगाकर भले ही महसूस कर लें, लेकिन यह भविष्य का सत्य नहीं बन सकता।
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भविष्य की ताकत बनना है तो मात्र मध्यवर्गीय ऑनलाइन उत्साह से हमें निकलना होगा। सोचना होगा अपनी सबसे बड़ी ताकत यानी अपनी 70% आबादी का जो आज गरीबी रेखा को छू रही है। निजीकरण और ऑनलाइन जैसे वैकल्पिक मॉडल जो नई शिक्षा नीति के आधार हैं - उसके दायरे से यह 70% बाहर होगा। इस बड़ी संख्या को अगर हमने 'नॉलेज इकोनॉमी' का 'वॉरियर्स' बना लिया तो वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का दबदबा बनने से उसे कोई रोक नहीं सकता। वास्तविकता इससे ठीक उलट है। आज वैश्विक पूँजी के फायदे के लिए हम दुनिया के देशों की तकनीक के भरोसे अपने सस्ते अनस्किल्ड लेबर, पर्यावरण के नष्ट होने की शर्तों पर और मध्यमवर्गीय उपभोक्ता-बाजार के जरिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की ताकत बनने का सपना पाल रहे हैं।
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निजी पूँजी देशी हो या विदेशी क्या उसने राष्ट्र निर्माण की भूमिका अतीत में भी निभाई है ? तो फिर भविष्य में उससे उम्मीद करना शुतुरमुर्गी दृष्टि ही होगी। कितने शैक्षणिक या स्वास्थ्य संस्थानों का निर्माण भारत की आज़ादी के बाद से लेकर नब्बे के दशक तक देशी पूंजीपतियों ने किया है? उंगलियों पर इनकी गिनती हो सकती है। निजीकरण की प्रक्रिया में गुणवत्तापूर्ण चंद स्कूल एवं उच्च संस्थानों के टापू का निर्माण ही किया गया। इनके अलावा ज्यादातर संस्थान धन लाभ के लिए ही खोले गए। आदिवासी, दलित, पिछड़ा एवं महिलाओं का अधिकांश गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित है। इतनी बड़ी मात्रा में जो जन-शक्ति मौजूद है उसका सशक्तिकरण किए बिना राष्ट्र निर्माण और वैश्विक शक्ति बन सकना बस दिवास्वप्न है।
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कोरोना संक्रमण के बाद एक बार फिर से सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य के यूनिवर्सल स्वरूप के विकास की जरूरत वर्तमान ही नहीं भविष्य की राष्ट्रीय जिम्मेदारी बन गई है। इसके बिना कोई भी राष्ट्रीय सामूहिक स्वप्न देखना या दिखाना देश को धोखा देना होगा। इस सामूहिक राष्ट्रीय स्वप्न को निजी पूँजी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। निजी पूँजी को अपने लाभ के लिए उपभोक्ता मात्र चाहिए। वह छात्र को भी उपभोक्ता के नजर से ही देखता है। राष्ट्र निर्माण उसके एजेंडे से बाहर है। ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माताओं को निजीकरण एवं ऑनलाइन के विकल्प से बाहर निकलकर राष्ट्रीय स्वप्न देखना-दिखाना होगा। वही भविष्य का राष्ट्रीय मार्ग हो सकता है।
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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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