मकतबा जामिया फिर से खुला लेकिन बिना सैलरी के स्टाफ़ वाला ये बुकस्टोर क्या कभी भी बंद हो सकता है?
जामा मस्जिद के क़रीब 'मकतबा जामिया लिमिटेड' नाम का एक उर्दू बुकस्टोर है। ये बुकस्टोर 1920-22 में दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के प्रेस के तौर पर शुरू किया गया था। लेकिन पिछले दिनों इस बुक स्टोर के पहले बंद होने और फिर खुलने की ख़बर आई। क्या वजह है क़रीब सौ साल पुराने इस बुकस्टोर के चर्चा में आने की?
जामा मस्जिद के गेट नम्बर एक के सामने से जाती सड़क और दिन के वक्त ट्रैफिक के शोर में डूबा उर्दू बाज़ार, इसी उर्दू बाज़ार की एक छोटी सी दुकान, 'मकतबा जामिया लिमिटेड' ( Maktaba Jamia Limited ) की एक शाखा। दुकान के अगले हिस्से में दिन की रौशनी का उजाला रहता है लेकिन अंदर के हिस्से में एक गहरा अंधेरा रहता है जहां बिना लाइट के कुछ तलाश करना मुश्किल होगा। हम जैसे ही दुकान में दाखिल हुए, एक बुज़ुर्ग अपने काम में बहुत मसरूफ दिखे। ये मकतबा जामिया के इंचार्ज अली ख़ुसरो ज़ैदी साहब थे जो इतने शोर में भी अपनी ही दुनिया में मगन थे, ऐसा लग रहा था जैसे ट्रैफिक का शोर भी उनके काम में ख़लल नहीं डाल सकता।
''उर्दू म'आशरे ( समाज) की ख़ुदगर्ज़ी दिखी''
हम मकतबा जामिया पहुंचे ही थे तो देखा हमारे साथ ही एक और लड़की दुकान में घुस रही थी, ये दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा हुमा क़ौसर थी। हुमा उर्दू की छात्रा हैं और राजेंद्र मनचंदा बानी की शायरी पर पीएचडी कर रही हैं। हुमा को जैसे ही पता चला कि मकतबा जामिया बंद हो रहा है उर्दू से वास्ता रखने वाले दूसरे तमाम लोगों की तरह वो भी ग़मगीन हो गईं, लेकिन एक बार फिर से दुकान के खुलने पर वो ख़ुश हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने अपने टॉपिक से जुड़ी तो कम लेकिन उर्दू की दूसरी तमाम किताबें यहां से ख़रीदी हैं। हुमा इस बात से कुछ उदास थी कि जिस वक़्त इस बुक स्टोर के बंद होने की ख़बर सोशल मीडिया पर चल रही थी तो इस तारीख़ी यादगार बुक स्टोर को बचाने के लिए जिस तरह सी कोशिश होनी चाहिए थी वो नहीं दिखी, वे कहती हैं, ''ऐसे वक़्त में भी बहुत से लोगों ने ख़ामोशी अपनाई, यूनिवर्सिटी से कोई नहीं खड़ा हुआ, उर्दू म'आशरे (समाज) की ख़ुदगर्ज़ी दिखी।"
दरअसल पिछले दिनों उर्दू के इस पब्लिशिंग हाउस से जुड़ी ख़बर आई थी कि इसे बंद कर दिया गया है। जिसकी कोई साफ वजह नहीं पता चल पा रही थी किसी ने कहा स्टाफ की कमी की वजह से तो किसी ने कहा कि इस बुक स्टोर को चलाने में फंड की कमी पेश आ रही है। उर्दू से जुड़े लोगों के लिए ये एक उदास करने वाली ख़बर थी। लेकिन इस सोमवार (11 सितंबर 2023 ) को मकतबा जामिया एक बार फिर खुला दिखा।
मकतबा जामिया लिमिटेड
बताया जाता है कि 1920-22 में जामिया मिलिया इस्लामिया के संस्थापकों में से एक डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने मकतबा जामिया को विश्वविद्यालय प्रेस के रूप में स्थापित किया था। (मतलब ये पब्लिशिंग हाउस दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से जुड़ा हुआ है) मकतबा जामिया लिमिटेड से उर्दू की किताबें पब्लिश होती रही हैं, यहां बहुत ही कम दाम पर किताबें मिलती हैं। ज़्यादातर उर्दू-अदब की किताबें यहां मिलती हैं। साथ ही जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, ज़ाकिर हुसैन समेत कई नामी चेहरों से जुड़ी किताबों का यहां ट्रांसलेशन पब्लिश किया गया। साथ ही बच्चों से जुड़ी उर्दू की किताबें भी पब्लिश होती रही हैं। लेकिन बीते कुछ सालों से मकतबा जामिया बहुत ही बुरे दौर से गुज़र रहा है। लेकिन हालात इतने ख़राब है शायद ही किसी को अंदाज़ा होगा।
उर्दू में पब्लिश रविंद्रनाथ टैगोर की किताब
''डेढ़ साल से सैलरी नहीं मिली''
इस दुकान के एक स्टाफ मोहम्मद नेमत से मुलाक़ात हुई। नेमत यहां ऑफिस बॉय के तौर पर काम करते हैं, हमने नेमत से बात करनी शुरू की तो उनकी आंखें डबडबा गई और गला रुंध गया। उन्होंने कहा, ''मैं क़रीब 20 साल से यहां काम कर रहा हूं, लेकिन पिछले डेढ़ साल से सैलरी नहीं मिली है'' हमने नेमत से पूछा कि अगर इतने लंबे वक़्त से उन्हें सैलरी नहीं मिली तो घर कैसे चल रहा है तो उन्होंने अपने आंसू छुपाते हुए कहा ''घर चलाने के लिए गाड़ियां साफ करता हूं, शाम को बैटरी रिक्शा चला लेता हूं, उसी से थोड़ा बहुत गुज़ारा चल रहा है, नौकरी छोड़ भी नहीं सकता क्योंकि हमारा इतना पैसा रुका हुआ है।"
मकतबा जामिया की इस ब्रांच में तीन से चार लोगों का स्टाफ था लेकिन फिलहाल तीन लोग हैं। और उनमें सबसे पुराने और बुजुर्ग अली ख़ुसरो ज़ैदी हैं जो यहां के इंचार्ज भी हैं। वे बताते हैं कि उन्होंने 1978 से यहां पर काम करना शुरू किया था और 2014 में वे रिटायर हो गए थे लेकिन उस वक़्त के डायरेक्टर डॉ. ख़ालिद महमूद ने उन्हें दोबारा रख लिया और उस दिन से वो आज तक यहां काम कर रहे हैं।
''हालात से तंग आकर मैंने 31 अगस्त को मैनेजमेंट को चाबी सौंप दी थी''
ज़ैदी साहब बताते हैं कि ''मुख्य वजह थी चार आदमी थे चार में से एक साहब ने भारी मुश्किलों की वजह से नौकरी छोड़ दी, एक साहब को दफ़्तर बुला लिया गया, एक साहब कभी आए, कभी नहीं मैं यहां अकेला हो गया, मुझे भी तकरीबन 11-12 महीने की तनख्वाह नहीं मिली थी, इन्हीं सब हालात से तंग आकर मैंने 31 अगस्त को मैनेजमेंट को चाबी सौंप दी थी, मेरे जाने के बाद करीब 10 दिन तक दुकान बंद रही, लेकिन फिर हमारे ऑफिस इंचार्ज और मैनेजिंग डायरेक्टर शहज़ाद अंजुम साहब ने कहा कि आप आ जाइए, मेरे भी जान-पहचान के लोगों ने मुझे कहा कि मकतबे के हक में आप आ जाइए, तो मैं फिर से आ गया।"
हालांकि इन सब के बीच ज़ैदी साहब की तो रुकी हुई सैलरी मिल गई लेकिन बाकी के स्टाफ का मामला ज्यों का त्यों लटका पड़ा है।
बुकस्टोर के इंचार्ज
''हमारा स्टाफ़ रिक्शा चला कर बच्चों को पाल रहा है''
आख़िर क्यों नहीं मिल रही मकतबा जामिया के स्टाफ को सैलरी, ये जानने के लिए हमने ऑफिस इंचार्ज रिज़वान मुस्तफा अर्शी से फोन पर बात की हमने उन्हें बताया कि उनके स्टाफ के मोहम्मद नेमत के घर के हालात ठीक नहीं वो बहुत परेशान हैं उन्हें डेढ़ साल से सैलरी नहीं मिली है जिसके जवाब में अर्शी कहते हैं ''डेढ़ साल नहीं दो साल होने को आया कि उन्हें सैलरी नहीं मिली है। हमारी वाइस चांसलर मैडम (नजमा अख़्तर) में रहम नाम की चीज़ नहीं है, हमारा स्टाफ़ रिक्शा चला कर बच्चों को पाल रहा है।"
''स्टाफ़ को 23 महीने से सैलरी नहीं मिली''
वे आगे हमें मकतबा जामिया के हाल के बारे में बताते हुए कहते हैं कि ''मकतबा जामिया की हमारी चार ब्रांच हैं, अलीगढ़, मुंबई और दिल्ली में दो, एक जामा मस्जिद में और दूसरी हमारे कैंपस ( जामिया-मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी) में कुल मिलाकर हमारा 16-17 लोगों का स्टाफ है और ये मान लीजिए कि ये 23 वां महीना चल रहा है और किसी की तनख्वाह नहीं मिली है।"
वे जामिया यूनिवर्सिटी के पिछले वी सी को याद करते हुए कहते हैं कि ''जब जंग साहब ( नजीब जंग) थे और उनके बाद आए तलत अहमद थे उन्होंने मकतबा की भलाई के लिए जितना भी काम हो सकता था किया लेकिन मैडम ( नजमा अख़्तर) ने आते ही हाथ खींच लिया, मैडम ने मकतबा के किसी कर्मचारी से मुलाकात नहीं की, कभी किसी से नहीं पूछा कि मकतबा कैसा चल रहा है।"
अर्शी साहब आरोप लगाते हैं कि साल में चार बार बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग होती है मैडम (वीसी नजमा अख्तर) ने एक भी मीटिंग नहीं होने दी और न ही वो बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मेंबर बनीं, वे मकतबा की बदहाली का जिम्मेदार वीसी नजमा अख़्तर और रजिस्ट्रार को बताते हैं। साथ ही वे बताते हैं कि मकतबा जामिया लिमिटेड में 92 प्रतिशत शेयर जामिया के हैं और 8 फीसदी जिमखाना और दूसरे लोगों के।
ऐसे हालात में क्या मकतबा जामिया दोबारा बंद हो सकता है? हमने ये सवाल अर्शी साहब से पूछा तो उनका कहना था, "ये किसी भी वक़्त बंद हो सकता है क्योंकि 23-24 महीने से स्टाफ को सैलरी नहीं मिली है, कोई हाल पूछने वाला नहीं है, कोई काम नहीं है, मैं वी सी मैडम को तीन-तीन लेटर लिख चुका हूं कि मकतबा जामिया की आर्थिक स्थिति ये है कि डेढ़ करोड़ Deficit ( अभाव/ घाटे ) है। कोई एक्शन लीजिए, मैडम ने कोई एक्शन नहीं लिया सिर्फ एक कमेटी बना दी, एक साल से वो कमेटी फैसला ही कर रही है कि मकतबा के लिए क्या बेहतर किया जाए।"
हमने अर्शी जी से पूछा कि अगर मकतबा जामिया बंद होता है तो ये उर्दू और उर्दू अदब के लिए कितना बड़ा नुकसान होगा? जिस पर वे कहते हैं कि ''ये बड़ी बे-हिसी ( चेतनाशून्य ) है उर्दू वालों की, उर्दू वालों को अब तक जो क़दम उठाना चाहिए था नहीं उठाया, जो Rare Book ( दुर्लभ किताबें ) मकतब जामिया के पास है वो किसी भी पब्लिशर्स के पास नहीं है, मकतबा ने एक हज़ार बच्चों की किताबें पब्लिश की है।"
नेहरू-गांधी की किताबों का उर्दू तर्जुमा भी पब्लिश किया
वहीं मकतबा जामिया ( जामा मस्जिद) के इंचार्ज अली ख़ुसरो ज़ैदी साहब बताते हैं कि '' ये दुकान 1949 से यहां पर है, लेकिन ये इदारा ( संस्था ) पहले करोल बाग़ में था लेकिन फिर यहां आ गया, यहां से कई हज़ार किताबें छपी हैं, एक सिलसिला मेयार-ए-अदब का शुरू किया और वो बहुत ही कामयाब सिलसिला था, तमाम क्लासिकी अदब को हमने बहुत कम क़ीमत पर छापा, बच्चों से जुड़ी बहुत सी किताबें छापी। बहुत पहले हमने एक किताब छापी थी 'तलाश-ए-हक' ये महात्मा गांधी की थी, नेहरू साहब की चिट्ठियों का कलेक्शन 'कुछ पुराने ख़त' के नाम से दो वॉल्यूम में है, एक किताब 'जगबीती' छापी थी वो भी पंडित जवाहरलाल नेहरू की है।"
ज़ैदी साहब कहते हैं कि ''जो भी उर्दू अदब का शौक रखता होगा वो मकतबा जामिया को जानता होगा और मकतबा जामिया वो ज़रूर आया होगा'', वे बताते हैं कि दिल्ली-6 में 'कुतुबखाना अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू' और 'मकतबा जामिया' ही ऐसी दो दुकानें हैं जहां अदब से जुड़ी किताबें मिलती हैं वर्ना बाकी की दुकानों पर मज़हबी किताबें ही मिलती हैं। वे कहते हैं '' अदब से जुड़ी शायरी की, उपन्यास, अफसाने, ड्रामे की किताबें यहां मिलती हैं।"
ज़ैदी साहब से बात करके लग रहा था कि उम्र के इस पड़ाव पर भी वे शानदार याददाश्त के मालिक हैं, कई पुरानी किताबों के नाम उन्हें ज़बानी याद थे साथ ही उन किताबों से जुड़ी तमाम बातें उन्हें याद हैं। बेशक उनकी इसी काबिलियत को ध्यान में रखते हुए मकतबा जामिया ने उन्हें रिटायरमेंट के बाद दोबारा बुलाया होगा।
हमसे लंबी बातचीत ख़त्म करते-करते ज़ैदी साहब कुछ उदास हो उठे और कहने लगे ''जो इसका ( मकतबा जामिया) हक था वो इसे नहीं मिला, अब जामिया इंतज़ामिया को चाहिए कि वो कुछ ध्यान दें और हमारी परेशानी को ठीक करें।"
इन हालात में भी ज़ैदी साहब भले उदास दिखे लेकिन वे मायूस नहीं थे, उन्हें इस बात की तसल्ली थी कि भले ही सोशल मीडिया पर कोई तो उर्दू की इस तारीख़ी दुकान के लिए खड़ा हुआ, वे कहते हैं ''कुछ लोगों ने ही सही आवाज़ तो उठाई, कोई कुछ तो बोला।"
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