कहीं सरकार की अति-महत्वाकांक्षा का शिकार न हो जाए 'चीता प्रोजेक्ट'?
कूनो क्षेत्र में प्रति वर्ग किलोमीटर में लगभग 20 चीतल हैं और यह संख्या चीतों के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि चीते प्रमुख तौर पर चीतल के शिकार के आदी हैं और कूनो में तुलनात्मक रूप से चीतल उनकी भूख को मिटा नहीं सकते। देखा गया है कि चीता अन्य प्रजातियों की तरह शिकार नहीं करते हैं, लेकिन शिकार करने के लिए लंबी दूरी तय करते हैं। कूनो की क्षमता 10 से 12 चीतों को रखने के लिए पर्याप्त बताई गई है। ज्यादा से ज्यादा यह 15 तक रह सकती है, लेकिन इससे ज्यादा नहीं।
प्रारंभिक अवस्था में दो चरणों के तहत कूनो क्षेत्र के अंतर्गत 20 चीतों को स्थानांतरित किया गया है। हालांकि, मध्यप्रदेश सरकार उन्हें गांधी सागर और नौरादेही वन्यजीव अभयारण्यों में छोड़ने की योजना बना रही है, लेकिन चीतों के लिए इन अभयारण्यों को बनाने के लिए समय चाहिए। इतना ही नहीं वहां चीतों के लिए आशियाना बनाने के लिए सरकार को करीब 750 करोड़ रुपये का निवेश करना है। इस बीच यदि कोई चीता मर जाता है तो इसकी असफलता का दाग भी सरकार के सिर होगा।
गुजरात के मना करने के बाद
दूसरी तरफ, मूल रूप से कूनो राष्ट्रीय उद्यान एशियाई गिर शेरों के लिए बनाया गया था, लेकिन इसे चीता प्रवास के लिए चुना गया है, क्योंकि गुजरात सरकार ने गिर के शेरों को उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया था। वहीं, पहले जत्थे में नामीबिया से लाए गए आठ चीतों में से पांच को खुले जंगल में छोड़ने का फैसला किया गया। इनमें से चार चीतों को छोड़ दिया गया और पांचवें चीते में हाल ही में मृत हुई मादा चीता 'साशा' को भी जंगल में छोड़ा जाना था, लेकिन 'साशा' की मौत के बाद एक बार फिर सवाल उठ गए कि सरकार और वैज्ञानिकों के बीच इस परियोजना को लेकर ठीक तरह से तालमेल है या नहीं?
दरअसल, 2009 में तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस परियोजना का उद्घाटन किया था तब यह सपना दिखाया गया था कि भारत से विलुप्त हो चुके चीते भारत की धरती पर फिर दिखेंगे। तेरह वर्ष बाद कई बाधाओं को पार करते हुए इस प्रोजेक्ट के तहत विदेशी जंगलों से जब चीतों को आयात किया गया तो इसके कुछ समय बाद ही मोदी सरकार द्वारा इस दिशा में काम करने वाले प्रमुख वैज्ञानिकों को तक नजरअंदाज करते हुए श्रेय लेने की होड़ भी देखी गई।
हालांकि, तब भी हमारे देश में घास के चारागाहों की कमी, मानव-वन्यजीवों के बीच बढ़ता संघर्ष और चीतों के लिए भोजन की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस दिशा में कई स्तरों पर स्थितियों को चुनौतीपूर्ण बताया जा रहा था। तब इन चीतों को आठ हजार 405 किलोमीटर का सफर तय करके व्यावसायिक या निजी विमान के जरिये अफ्रीका से भारत लाया गया था। इससे पहले वर्ष 1970 के आसपास ईरान से एशियाई चीतों को भारत लाने का प्रयास किया गया था, लेकिन ईरान से लाये गए चीतों के लिए भारत की जलवायु अनुकूल न होने के कारण तब प्रयोग विफल हो गया।
बता दें कि भारत भेजे जाने वाले आठ चीतों को डेढ़ महीने तक नामीबिया में क्वारंटाइन में रखा गया था। मादा चीता 'साशा' की मौत के बाद यह जानकारी सामने आई है कि सरकार ने वैज्ञानिकों की इस बात को नजरअंदाज कैसे कर दिया जब यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि साशा और अन्य दो चीतों को जंगल में छोड़ दिया गया तो वे अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाएंगे।
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तो बढ़ेगा मानव-चीता संघर्ष
दूसरी तरफ, भारत भेजे गए 20 चीतों में से चार को जंगल में छोड़ दिया गया है। वहीं, बाकी चीते जंगल में छोड़े जाने को लेकर इंतजार कर रहे हैं। चीता एक्शन प्लान में कम से कम अगले पांच वर्षों के लिए हर साल अफ्रीकी देशों से 10 से 12 चीते आयात करने की बात कही गई है। कूनो के छोटे से 748 किलोमीटर इलाके में उन्हें रोक पाना नामुमकिन है। वे इस जंगल से बाहर आएंगे और फिर से मानव-वन्यजीव संघर्ष को नई शुरुआत होगी। चीतों और उनके प्रबंधकों की असली परीक्षा शुरू होने और जारी रहने वाली है। इस संघर्ष को होने से पहले ही रोक कर उन्हें पार्क में रोकना चुनौतीपूर्ण है।
इस क्षेत्र के जानकारों के मुताबिक राजनीतिक पक्षपात को दूर रखते हुए परियोजना का भविष्य तभी सुरक्षित किया जा सकता है, जब चीतों को राजस्थान के मुकुंदरा अभयारण्य में स्थानांतरित कर दिया जाए, वरना 'चीता प्रोजेक्ट' पर नाकामी की तलवार लटकती रहेगी। लेकिन, आशंका है कि भारतीयों के लिए यह महत्वाकांक्षी परियोजना सरकार की अति-महत्वाकांक्षा के कारण विफल न हो जाए।
बदल दिया बाघों की गणना का तरीका
चीता प्रोजेक्ट पर उठ रहे सवालों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों बहुप्रतीक्षित बाघ जनगणना रिपोर्ट की घोषणा कर दी। इसमें बताया गया कि बाघों की संख्या में इजाफा हुआ है। लेकिन, इस सफलता से जुड़ी खबरों के बीच यह तथ्य कहीं छिपा दिया कि बाघों की गिनती के तरीके बदल गए हैं।
पहले ट्रांजिट लाइन तय की जाती थी और उस पर चलकर बाघ के अस्तित्व के भौतिक साक्ष्य एकत्र किए जाते थे। पुरानी गणना में 18 महीने से अधिक उम्र के शावकों को ही शामिल किया गया था। लेकिन, नए तरीके में अभयारण्यों के साथ-साथ बाहरी अभयारण्यों में भी बाघों की गणना को शामिल किया गया। इस कैलकुलेशन के लिए दो ऐप्स का इस्तेमाल किया गया। इस नई गणना में एक वर्षीय शावक भी शामिल किए गए। बाघ के दहाड़ने, पेड़ों पर उसके बाल, घर्षण के निशान, पेशाब की गंध, पेशाब पर फंगस के काले धब्बे आदि भी बाघ के व्यवहार के प्रमाण के रूप में लिए गए थे।
दूसरी तरफ, देखा गया है कि मानव-बाघ संघर्ष पिछले कुछ वर्षों में बढ़ा है। बाघों की संख्या में वृद्धि के साथ यह और बढ़ रहा है। वहीं, जगह की कमी के कारण बाघ आपस में ही लड़ते हैं। बदलती परिस्थितियों में बाघों ने जंगल से बाहर गांवों, शहरों, सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों, कृषि जैसे आवासों को भी अपना लिया है और ऐसे व्यस्त क्षेत्रों में भी बाघिन बच्चों को जन्म दे रही हैं। यही वजह है कि मानव-बाघ संघर्ष बढ़ता जा रहा है। यदि इस संघर्ष को और अधिक नहीं बढ़ाना है तो संरक्षित क्षेत्रों के बाहर भी बाघ प्रबंधन को बढ़ाना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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