मज़दूर किसान संघर्ष रैली : कॉर्पोरेट गठजोड़ के ख़िलाफ़ मेहनतकशों का संघर्ष
17 मार्च 2023 को महाराष्ट्र के जालना जिले के परतूर तहसील में आशा रमेश सोलंकी गन्ने के खेत में काम कर थी। वह गर्ववती थी लेकिन बागेश्वरी शुगर फैक्ट्री के लिए खेत में गन्ने काटने का काम करने के लिए मज़बूर थी कि अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। इस खेत मज़दूर के पास इतना समय नहीं था कि गर्भावस्था के इन आखिरी दिनों में वह घर पर रह सके क्योंकि गन्ने की कटाई का सीजन था और यह मौका था जब खेत मज़दूर कुछ पैसे कमा सकता है। इसलिए इस महिला ने गन्ने के खेत में ही बच्चे को जन्म दिया। फिर दो चार दिनों बाद ही काम पर लौटने के लिए मज़बूर हो गई।
फ़रवरी महीने में राजेन्द्र तुकाराम चौहान नाम का एक किसान लगभग 70 किलोमीटर का सफर करके सोलापुर की मंडी में 512 किलोग्राम प्याज बेचता है। खर्चा निकाल कर उसे केवल 2.49 रुपए बचत होती है। मतलब की उसकी प्याज की फसल की कुल कमाई 2.49 रुपए। गजब तो यह है कि 2.49 रुपए का भी उसे चेक दिया जाता है। मार्च महीने में ही उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों ने अपनी जायज मांगो के लिए हड़ताल का बुलाई। यूनियन बनाकर अपनी मांगो के लिए सामूहिक सौदेबाजी (कलेक्टिव बार्गेन) के अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने दमन चक्र चलाया। लगभग 29 मज़दूरों के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई और 1332 अनुबंद मज़दूरों को हड़ताल के दौरान काम से निकाल दिया गया। हालाँकि इस बहादुर मज़दूर संघर्ष में योगी सरकार को मूकी खानी पड़ी पर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार का दमन चक्र बदस्तूर चल रहा है।
यह हालत है हमारे देश के तीन महत्वपूर्ण उत्पादक वर्गों के जो देश का निर्माण कर रहे हैं। मज़दूर, किसान और खेत मज़दूर हमारे देश के प्रमुख उत्पादक वर्ग है जो सभी तरह की सम्पत्ति का उत्पादन करते है। अपने इन्ही हालातों के खिलाफ, अपने शोषण से इंकार करते हुए देश का मेहनतकश 5 अप्रैल को ऐतिहासिक मज़दूर किसान संघर्ष रैली के लिए दिल्ली आ रहें है। वह आ रहें है है देश के तथाकथित हुक्मरानो से अपना हिस्सा मांगने। तथाकथित इसलिए कि देश तो नागरिकों का है और जम्हूरियत में कोई हुक्मरान नहीं होता लेकिन केंद्र की भाजपा सरकार तो साहिब-ए-मसनद बन बैठी है।
मज़दूर, किसान और खेत मज़दूर आ रहे हैं देश की चुनी हुई तानाशाह सरकार को चुनौती देने कि पैदावार तो हम करते हैं फिर हमारी मेहनत से पैदा हुई सम्पति का मालिक कोई और कैसे बन जाता है। हमारे हिस्से में आती है ग़ुरबत और भूख। गौरतलब है कि ऑक्सफैम की रिपोर्ट 'सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट; द इंडिया सप्लीमेंट' के अनुसार भारत की 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति का स्वामित्व जनसंख्या के मात्र 1 प्रतिशत के पास है। देश के 10 सबसे अमीर लोगों की कुल संपत्ति वर्ष 2022 में 27.52 लाख करोड़ रुपये थी और वर्ष 2021 की तुलना में इसमें 32.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। और मेहनतकश तरस रहा है न्यूनतम मज़दूरी के लिए ताकि सम्मान से जीवन जी सके। शीर्ष एक प्रतिशत के हिस्से में जो सम्पति है उसे पैदा करने वाले देश के सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा है। उत्पादक वर्ग आ रहे है हिसाब मांगने इस असमानता का।
5 अप्रैल की मज़दूर किसान रैली के लिए पूरे देश में गांव गांव, हर कारखाने, मनरेगा कार्यस्थलों, नुक्कड़ों, खेतो, खलिहानों आदि में चर्चाएं हो रही हैं, जन सभाएं की जा रही हैं, जत्थे चल रहे हैं। देश की जनता में अलख जगाया जा रहा है कि अब नकारना होगा इन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को जिसमे इंसानी जीवन से ज्यादा जरुरी है मुनाफा। लड़ाई करनी होगी इन नीतियों के युग के खात्मे के लिए जहां बाजार के बेरहम नियम तय करते है नीतिया जिसमे देश की चुनी हुई सरकार नागरिको के लिए नहीं बल्कि कुछ कॉर्पोरेट घरानों के मुनाफे बढ़ाने के लिए काम कर रही है। मुनाफे के इस बाजार में छोड़ दिया जाता है असहाय मेहनतकश वर्गों को और सरकार खड़ी होती है शोषक के साथ। इसका परिणाम भुखमरी, बेरोजगारी और महंगाई तो होता है पर यह बेहरहम व्यवस्था मजबूर करती है मेहनतकशों को आत्महत्या के लिए। हर वर्ष देश में उत्पादकों की आत्महत्या केवल एक आंकड़ा बन कर रह जातीं है। इसमें हर वर्ष इजाफा होता जा रहा है। वर्ष 2021 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश में 5318 किसानों और 5563 खेत मजदूरों ने आत्महत्या की है। 2014 के बाद से दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याओं में भी लगातार वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2021 में 42004 दिहाड़ी मज़दूरों ने आत्महत्या की है। हर दिन लगभग 115 दिहाड़ी मज़दूर अपने परिवार को छोड़ मरने के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह आत्महत्याएं नहीं हैं बल्कि क़त्ल है देश के मेहनतकशों का इस क्रूर व्यवस्था के हाथों। मेहनतकश वर्गों ने तय किया है कि अब आत्महत्या नहीं संघर्ष होगा इस निज़ाम और उसकी नीतियों के खिलाफ। जो संघर्ष के रास्ते पर है वह जगह जगह जाकर जगा रहे हैं अपने वर्ग के बाकी साथियों को, इस रैली के प्रचार के दौरान। एक प्रतिरोध का वातावरण बन रहा है जिसमे लड़ाई आमने सामने की है।
अपने अनुभवों से जनता ने सरकार के चरित्र और उसकी नीतियों की पहचान कर ली है। जब देश भूख से त्रस्त है और विश्व मे भूख से पीड़ितों में से लगभग एक तिहाई और खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे एक चौथाई लोग भारत रहते हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हमारा देश 2021 में 101वीं रैंक से और नीचे गिरकर 107 (121 में से) रैंक पर पहुँच गया है। देश की सरकार ने 2023 के बजट में खाद्य सब्सिडी के आबंटन में पिछले वर्ष की तुलना में 31 प्रतिशत की कमी की है। जो अनाज पैदा करता है उसे ही भूखे रहना पड़ रहा है। देश के अपार मानव संसाधन को काम चाहिए। नौजवानो के हाथो को रोजगार चाहिए परन्तु सरकार की नीतिया नए रोजगार तो पैदा नहीं कर रही बल्कि रोजगार ख़त्म कर रही है। प्राइवेट क्षेत्र में भी छंटनी चल रही है। ग्रामीण भारत में एक बड़ी आस, मनरेगा को सरकार निशाना बनाये हुए जिसे नवउदारवादी आर्थिक नीतिया अपने रास्ते का रोड़ा मानती है। इसलिए इस कानून की मूल धारणा 'मांग के आधार पर सभी परिवारों के लिए प्रतिवर्ष 100 दिन का रोजगार' को बदल कर आम कल्याणकारी योजना में तब्दील करने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे है। इसकी आधार है बजट में कटौती से। इस वर्ष भी मनरेगा के लिए बजट में 33% की कमी की गई है। सरकार के पास हमारे देश के कल्याणकारी ढांचे के लिए तो फण्ड नहीं है लेकिन कॉर्पोरेट को रियायत देने के लिए प्रयाप्त संसाधन है। विभिन्न अनुमानों के अनुसार नरेंद्र मोदी के शासन के पहले आठ वर्षों में बड़े कोर्पोरटो द्वारा बैंकों से लिए गए 12 लाख करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाल लिए गए है। इसके मायने है कि अपने मित्रो को 12 लाख करोड़ रुपए का फायदा। मोदी सरकार का चेहरा देश की जनता के सामने बेनक़ाब है और जनता इसके खिलाफ संघर्ष को तैयार है इसलिए बड़ी संख्या में 5 अप्रैल तो देश की राजधानी में हुंकार भरने आ रही है।
पिछले कुछ वर्षो के सांझे संघर्षो से देश के मेहनतकश वर्गों ने अपनी वर्ग एकता का महत्व जान लिया है। देश की आज़ादी के बाद देश के उभरते हुए पूंजीपति शासक वर्ग ने ज़मीदारो के साथ समझौता करते हुए सत्ता देश के मेहनतकश वर्ग तक नहीं जाने दी। राजनीतिक आज़ादी को आर्थिक और सामाजिक आज़ादी में रूपांतरण के लिए जरुरी नीतियां सत्ताधारियों के वर्ग हितों के खिलाफ थी।
नतीजतन आज़ादी के 75 वर्षो बाद भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अपने हक़ से महरूम है। अब तो देश में नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों का युग में जब विदेशी पूँजी आक्रामक रूप धारण किए हुए है। ऐसे में जनता के मेहनतकश वर्गों के शोषण का मूल कारण यह आर्थिक नीतियां ही है। इन आर्थिक नीतियों का लागू कर रहा है बड़े पूंजीपति और सामंतो का गठजोड़ जिसने विदेशी पूँजी के साथ सहयोग कर लिया है। मेहनतकशों के संगठनो जैसे किसानो, खेत मज़दूरों और मज़दूरों ने मुद्दों पर आधारित स्वतंत्र और संयुक्त संघर्षो के दौरान मेहनतकश वर्गों ने अपना वर्ग शत्रु पहचाना है। जब अपने दुश्मन की पहचान हुई तो अपने दोस्त पहचानना मुश्किल नहीं था। इसी समझ से पिछले कुछ समय में मुद्दों के आधार पर इन तीनो उत्पादक वर्गों के संघर्ष हुए है जिसमे लड़ाई न केवल देश की सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ थी बल्कि सत्ता के चालक कॉर्पोरेट के खिलाफ भी सीधी लड़ाई की गई। इसका एक बड़ा उदहारण है ऐतिहासिक किसान आंदोलन जिसका वेग अडानी अम्बानी और मोदी-शाह की सत्ता के खिलाफ था। किसान आंदोलन में किसानो, मज़दूरों और खेत मज़दूरों की जीत ही नहीं थी बल्कि इसने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को भी चुनौती पेश की।
हमारे देश में पिछले आठ वर्षो में एक फासीवादी संगठन की राजनितिक पार्टी की सरकार है जो खुले तौर पर देश के संविधान के खिलाफ काम कर रही है। देश पर दोहरा हमला है। एक तरफ देश के संसाधनों और जनता की आर्थिक लूट जारी है। नवउदारवादी नीतियों के अगले चरण को पूरी तानाशाही के साथ लागू किया जा रहा है। वही देश के संविधान के खिलाफ सरकार साम्रदायिक एजेंडा लागू कर रही है। संविधान की जगह मनुस्मृति सरकार की दिशानिर्देशक बनती जा रही है जिसका आधार है रक्त की शुद्धता और कुछ लोगो की श्रेष्ठता तथा बहुजन की दासता। जो न केवल देश को हिंदुत्व की और लेकर जा रहा है बल्कि धार्मिक आधार पर देश के मेहनतकश की एकता भी तोड़ती है। यही है भाजपा और उसके पैतृक संगठन आरएसएस की विशेषता। इसलिए आरएसएस को पूंजीपतियों की पैदल सेना भी कहा जाता है। देश के जनवाद, जनवादी संस्थानों और वंचित तबकों पर हमला हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ की नीतियों को लागू करने की पहली शर्त है। पिछले आठ वर्षो में बड़ा सवाल था कि इसका सामना कौन और कैसे करेगा। जवाब है देश के मेहनतकश वर्गों की एकता और मुद्दों के आधार पर व्यापक संघर्ष। यह केवल सिद्धांत नहीं बल्कि कुछ हद तक किसान आंदोलन में अभ्यास में सफल हुआ है।
एक ऐसे समय में जब देश के राज करने वाले वर्ग जनता के शोषण के लिए मज़बूती के साथ एकता कायम किए है। पूंजीवाद के अंतर्निहित प्रणालीगत संकट के कारण देश में अडानी समूह के भ्रष्टाचार का पर्दफ़ाश (हिंडनबर्ग रिपोर्ट) होने के बाद जब पूरा विश्व सवाल खड़े कर रहा है तो देश के प्रधानमंत्री सहित देश के सभी शासक वर्ग मज़बूती से अडानी के साथ न केवल खड़े है बल्कि अडानी समूह को बचाने के लिए जनता पर आर्थिक हमले तेज कर रहें है। ऐसे समय में देश के उत्पादक वर्ग के पास उत्पीड़क वर्ग के खिलाफ अपनी वर्गों की एकता और संघर्ष के आलावा कोई रास्ता ही नहीं है। इसलिए दुश्मन वर्गों के खिलाफ जनता के मेहनतकश वर्गों की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है 5 अप्रैल की मज़दूर किसान संघर्ष रैली।
जब देश की चुनी हुई सरकार ही संसद को चलने नहीं दे रही। जानबूज कर जनता के मुद्दों पर चर्चा नहीं होने दे रही। विपक्ष जो कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से बनता है और जिसकी जिम्मेवारी है जनता की नीतियों पर सरकार से सवाल पूछना, को सरकार उनके सवाल पूछने और चर्चा करने के अधिकार से महरूम कर रही। सत्ता के अहंकार में संसद आवारा हो गया है तो देश के मेहनतकश वर्ग, देश की जनता की तरफ से संसद पर लगाम लगाने दिल्ली आ रहे है। बकौल राममनोहर लोहिया 'अगर सड़कें खामोश हो जांए तो संसद आवारा हो जाएगी' । देश के मेहनतकश, किसान और खेत मज़दूर संसद को आवारा होने से बचाने के लिए 5 अप्रैल को दिल्ली पहुँच रहा है। यह केवल उनके कुछ मुद्दों की लड़ाई नहीं हैं बल्कि संघर्ष है मेहनतकश और शासक वर्गों के बीच जिससे देश का संसद, लोकतंत्र और संविधान बच सके। 5 अप्रैल की मज़दूर किसान संघर्ष रैली महत्वपूर्ण पड़ाव है एक ऐसा देश बनाने के बड़े संघर्ष का जिसका सपना भगत सिंह ने देखा था जिसमे असल सत्ता मज़दूरों, किसानो और खेत मज़दूरों के हाथ में होगी न कि कुछ कॉर्पोरेट और सामंतो के हाथ में।
(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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