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कर्नाटक का संदेश: टीपू और बसवा की धरती ने दिखाया नया रास्ता

यह सच है कि यह एक राज्य का चुनाव था और इसके नतीजों के state-specific कारण और विशिष्टताएं हैं। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा conjuncture पर इसके निहितार्थ राष्ट्रीय महत्व के हैं और आने वाले दिनों में उसे shape करने में इन चुनाव नतीजों का ऐतिहासिक महत्व दर्ज किया जाएगा।
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फ़ोटो साभार : PTI

कर्नाटक में भाजपा की पराजय सर्वांगीण (comprehensive) है। वैसे तो इसके कुल मत प्रतिशत में ( .3% ) की मामूली गिरावट है, पर अगर विजेता कांग्रेस के सापेक्ष देखा जाय, जिसके मतों में 5 % से अधिक की वृद्धि हुई है, तो भाजपा की हार जनसमुदाय के लगभग तबकों और अंचलों में हुई है।

यह सच है कि यह एक राज्य का चुनाव था और इसके नतीजों के state-specific कारण और विशिष्टताएं हैं। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा conjuncture पर इसके निहितार्थ राष्ट्रीय महत्व के हैं और आने वाले दिनों में उसे shape करने में इन चुनाव नतीजों का ऐतिहासिक महत्व दर्ज किया जाएगा।

कुछ विश्लेषक कांग्रेस की जीत को महज अल्पसंख्यकों, दलितों आदि के भारी समर्थन में reduce कर दे रहे हैं, यह big picture और इसके राष्ट्रीय संदेश को miss कर देना है।

सच्चाई यह है कि ये नतीजे " डबल इंजन " भाजपा-राज की विनाशकारी नीतियों और चौतरफा तबाही के ख़िलाफ़ जनसमुदाय के सभी तबकों के बहु-आयामी आक्रोश की cumulative अभिव्यक्ति है। जिन तबकों पर कारपोरेट लूट की अर्थनीति, सामाजिक अन्याय और नफरती राज की मार जितनी ज्यादा पड़ी है, उनकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से उतनी ही तीखी है। यह मुख्यतः ग्रामीण इलाकों, गरीबों, हाशिये के तबकों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के जबरदस्त backlash का नतीजा हैं। ऐसे संकेत हैं कि 1st टाइम वोटर समेत युवा मतदाता 2014 के बाद पहली बार भाजपा के खिलाफ होने लगे हैं।

इस चुनाव का सबसे बड़ा संदेश यह है कि ब्रांड मोदी फेल हो गया है। फैसलाकुन और दूरगामी महत्व की इस लड़ाई में वह भाजपा की कोई मदद नहीं कर सका, उल्टे बजरंगबली के नाम पर उनके उन्मादी प्रचार ने सेकुलर, अल्पसंख्यक मतों का consolidation करके भाजपा का नुकसान ही किया है।

मोदी ने जो 20 रैलियां कीं उनमें 15 जगह भाजपा हार गई, मात्र 5 जीत पाई, बंगलौर जहां उन्होंने 3 रोड-शो किये, वहां कमोबेश यथास्थिति बनी रही। केवल और केवल अपने ब्रांड को आगे कर, मोदी द्वारा अपने को पूरी तरह दांव पर लगा कर लड़े गए इस चुनाव में भाजपा की crushing defeat ने कारपोरेट-मीडिया द्वारा भारी निवेश करके गढ़े गए मोदी मैजिक की अपराजेयता के मिथक को हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया है।

ठीक इसी तरह हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय, उसके सबसे आक्रामक बुलडोजर मॉडल के नए " हीरो " योगी आदित्यनाथ भी बेअसर साबित हुए। उन्होंने कर्नाटक के मंड्या ज़िले में धुआंधार रैली की थी। लेकिन वहां की 8 विधान सभा सीटों में से 6 कांग्रेस ने जीतीं, 1 JDS और 1 SKP ने। बीजेपी का वहाँ खाता भी नहीं खुला।

Region-wise देखा जाय तो बंगलौर में कमोबेश कायम यथास्थिति के अपवाद को छोड़ कर कर्नाटक के सभी अंचलों में कांग्रेस के मतों और सीटों में वृद्धि हुई है और भाजपा हर जगह पीछे गयी है।

पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के गढ़ दक्षिण कर्नाटक में कांग्रेस का मत 6.5% बढ़ गया और उसे 73 में 47 सीटें मिलीं, जेडीएस 8.6% मत गिरावट के साथ मात्र 15 सीट पर सिमट गई। दिलचस्प यह है कि वोक्कालिगा में expansion की नई रणनीति से भाजपा के मतों में 3.1%की वृद्धि जरूर हुई, लेकिन उसकी सीटें 9 से घटकर 6 रह गईं। दरअसल यहाँ उसने जेडीएस के वोक्कालिगा वोट में सेंधमारी करके कांग्रेस की मदद कर दी।

भाजपा के मुख्य सामाजिक आधार और सबसे बड़े वोटबैंक लिंगायत समुदाय में कांग्रेस ने निर्णायक सेंधमारी की है। मुंबई/किट्टूर और सेंट्रल कर्नाटक में उसका मत 5.9% बढ़ गया और सीटें 64 में 44 पर पहुंच गईं, जबकि भाजपा का मत 4.5% गिर गया और मात्र 18 सीटें मिलीं। इस बार कांग्रेस टिकट पर पिछली बार के 16 की तुलना में 34 वीरशैव लिंगायत जीते जबकि भाजपा से पिछली बार के 38 की जगह मात्र 18 जीते।

हैदराबाद कर्नाटक में कांग्रेस का मत 4.2% बढ़ गया और उसे 40 में 26 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा 3.4% मत गिरावट के साथ मात्र 10 सीटें पा सकी।

तटीय कर्नाटक में जिसे भाजपा का गढ़ माना जाता था और जहाँ उन्मादी साम्प्रदायिक प्रचार से भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा होने की उम्मीद थी, वहां भी 2.3% वृद्धि के साथ कांग्रेस 3 से बढ़कर 6 सीट पर पहुंच गई और भाजपा 3.1% गिरे मत के साथ पहले से 3 कम 13 पर जीत दर्ज कर सकी।

ग्रामीण क्षेत्र में जहां कांग्रेस का मत 6.2% बढ़कर 43.2% पर पहुंच गया और भाजपा 3.6% गिरकर 36.9% पर आ गयी, वहीं अर्ध ग्रामीण क्षेत्र में 6.6% बढ़कर कांग्रेस 44.3% पहुँच गई जबकि भाजपा मात्र .7 % वृद्धि के साथ मात्र 28.7% पर रह गयी।

ठीक इसी तरह राज्य के ( प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से ) 5 सबसे गरीब जिलों में कांग्रेस का मत 2.9% बढ़कर 44.8% पर पहुंच गया, जबकि भाजपा का मत 3.5%घटकर 38.4% रह गया।

जाहिरा तौर पर ग्रामीण व अर्ध ग्रामीण क्षेत्र के किसानों, गरीबों, मजदूरों का कांग्रेस के प्रति भारी समर्थन इस चुनाव का प्रमुख निर्णायक तत्व बना। बेशक इसमें कांग्रेस की 5 प्रतिज्ञाओं तथा सामाजिक न्याय पर वायदों ने बड़ी भूमिका निभाई।

दूसरी ओर शहरी क्षेत्र में भी भाजपा 3.7% बढ़कर भले 45.7% पर पहुंच गई, लेकिन कांग्रेस भी 3.8% बढ़कर 43% पहुंच गई। ऐसा लगता है कि भाजपा के शहरी गढ़ों में भी शहरी गरीबों, अल्पसंख्यकों और 1st time voters समेत युवा मतदाता कांग्रेस के पक्ष में गए।

अमूल और नंदिनी के विवाद ने भी कांग्रेस को फायदा पहुंचाया, उन जिलों में जेडीएस का 6.3% मत टूटकर उसका बड़ा हिस्सा 5.3% कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत हो गया और वह 40.8%पहुँच गया जबकि भाजपा को उन जिलों में 27.9% ही मिला। जबकि पहले ऐसे अनुमान आ रहे थे कि शायद इसका अधिक फायदा JDS को मिले। लेकिन कई अनेक कारकों के cumulative इफ़ेक्ट के फलस्वरूप कांग्रेस ही इसकी benefeciary रही।

आरक्षण पर भाजपा के चुनावी खेल और मूलतः साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए उसे इस्तेमाल करने की शातिर चाल बुरी तरह नाकाम हो गई, बल्कि उसे reverse polarisation से नुकसान ही हो गया। उत्पीड़ित समुदायों ने उसकी gimmick को reject कर दिया और कांग्रेस के सामाजिक न्याय सम्बन्धी वायदों और आर्थिक कल्याण की घोषणाओं पर भरोसा किया। उधर लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय को 2-2% आरक्षण के वायदे का भी कोई असर नहीं हुआ।

SC आरक्षित सीटों पर कांग्रेस का मत 5.5%बढ़कर 44.6%हो गया, जबकि BJP का पहले से 2.1% घटकर 32.7% रह गया। इसी तरह ST आरक्षित सीटों पर कांग्रेस का मत 9.8% बढ़कर 47.7% हो गया और BJP का 5.1% घटकर 34.8% रह गया। Son of the soil खड़गे फैक्टर का असर दलित लेफ्ट- राइट दोनों पर दिखा। नतीजतन SC आरक्षित सीटों पर 36 में 22 कांग्रेस को मिली जबकि पिछली बार 12 ही थीं, ST रिजर्व सीटों में अबकी बार 15 में 14 सीटें कांग्रेस को मिलीं जबकि पिछली बार 8 ही थीं। सरकार ने आरक्षण से छेड़छाड़ किया था और बिना समुचित कानूनी प्रावधान किए उसे बढ़ाने का जो वायदा किया, उस पर लोगों ने उचित ही यकीन नहीं किया।

5 सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले जिलों में भाजपा का वोट .3% बढ़कर 44.5% हो गया, पर उसी के समांतर कांग्रेस का मत भी 2.1% बढ़कर 42.5% पहुंच गया, जबकि जेडीएस का वोट 3.9% घट गया। जाहिर उन इलाकों में भी ध्रुवीकरण से जिस फायदे कि उम्मीद भाजपा ने की थी, वह उसे नहीं मिल सका।

JD(S) की सीटें पिछली बार के 37 से लगभग आधी रह गईं, 19। त्रिकोणीय संघर्ष में किंग मेकर बनने की देवगौड़ा पिता-पुत्र की उम्मीदें धरी रह गईं और उसी के साथ कांग्रेस को सत्ता में आने से रोक देने की भाजपा की रणनीति पर भी पानी फिर गया। जेडीएस के वोक्कालिगा सामाजिक आधार में जो टूटन हुई, उसका एक हिस्सा भाजपा के साथ गया, तो दूसरा हिस्सा कांग्रेस में। साथ ही लंबे समय से उसके साथ रहने वाला मुस्लिम आधार कांग्रेस के साथ ध्रुवीकृत हो गया।

दरअसल कर्नाटक में चुनाव राष्ट्रीय दलों के दो ध्रुवों के बीच ध्रुवीकृत हो गया। यह राष्ट्रीय स्तर पर जनता के उभरते आम पॉपुलर मूड की अभिव्यक्ति है।

जेडीएस का जो हश्र हुआ है , उसका सन्देश जाति/समुदाय आधारित क्षेत्रीय दलों के लिए बिल्कुल स्पष्ट ( loud and clear ) है -जनता बदलाव के मूड में है। वह भाजपा को हटाने के लिए एक हो रही है और सारे दलों को एक होते देखना चाहती है। इसमें जो अलग और अकेला चलते दिखेगा, उसे भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला माना जायेगा और पॉपुलर परसेप्शन में वोटकटवा/खलनायक बनते ही वह खेल से बाहर हो जाएगा। शायद तमाम क्षेत्रीय दलों ने इसे भाँप लिया था। इसीलिए कर्नाटक में AAP, TMC, सपा, बसपा समेत लड़े तो तमाम क्षेत्रीय दल, लेकिन किसी ने बहुत जोर नहीं लगाया।

उम्मीद की जानी चाहिए कि कर्नाटक से निकलने वाला संदेश संघ-भाजपा की विनाशकारी नीतियों के खिलाफ जन-संघर्षों को नया आवेग तथा भाजपा विरोधी एकजुटता को नया तर्क देगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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