क्यों आर्थिक विकास योजनाओं के बजट में कटौती कर रही है केंद्र सरकार, किस पर पड़ेगा असर?
जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने योजना आयोग को बंद कर दिया और छह दशक से चली आ रही पंचवर्षीय योजनाओं को हटा दिया, तो इससे स्पष्ट है कि मौजूदा नेतृत्व पूर्व-निर्धारित एजेंडे पर काम कर रहा था। 2014 में इस तरह के एक महत्वपूर्ण उलटफेर की घोषणा से पहले कोई परामर्श या बहस नहीं हुई थी। यह एक विध्वंसकारी निर्णय था जिसे उस वर्ष के लोकसभा चुनाव में एनडीए की जीत से पहले ही लिया गया था।
मनमाने ढंग से निर्णय लेने पर लगी सभी जाँचों और संतुलनों को धता बताते हुए योजना की प्रक्रिया से दूर जाने की नीति जारी है। 2022-23 के बजट अनुमान में, केंद्र ने अचानक पिछले वर्ष में योजना मंत्रालय के प्रति आवंटन को 1,062 करोड़ से घटाकर 321 करोड़ रुपए कर दिया था जो अपने आप में करीब दो तिहाई की कमी है। किसी अन्य मंत्रालय को फंडिंग में इतनी भारी गिरावट का सामना नहीं करना पड़ा है।
इस फंड-कट के विवरण में जाने से पता चलता है कि यह कितना हानिकारक साबित हुआ। 'सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लिए आधिकारिक विकास सहायता' शीर्षक वाले व्यय को 2021-22 के लिए 581 करोड़ का आवंटन मिला था। इसे 2022-23 में इसे घटा कर 0.1 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इसी वर्ष, यह भी सामने आया कि 2015 में संयुक्त राष्ट्र के 192 सदस्य देशों द्वारा अपनाए गए 2030 एजेंडा में 17 एसडीजी के लक्ष्य में भारत तीन पायदान नीचे खिसक गया है। इसी तरह, सर्वव्यापी 'चल रहे कार्यक्रमों और योजनाओं' पर 2020-21 में 309 करोड़ रुपये का वास्तविक व्यय देखा गया। फिर भी, अगले वर्ष, बजट अनुमान को घटाकर केवल मात्र 32 करोड़ और इस वर्ष इसे और संशोधित कर 6 करोड़ रुपए कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में, बाद के बजटों में इन खर्चों को पुनर्जीवित करने करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया है।
योजनाबद्ध आर्थिक विकास के प्रति आवंटन गिर रहा है, जिसमें योजनाएं और नीतियां शामिल हैं, जिनका भुगतान योजना मंत्रालय से परे है। इसलिए, जबकि कुछ राज्य विकेंद्रीकृत योजना शुरू कर रहे हैं, जैसे कि केरल, केंद्र इस श्रेणी में राज्यों की तुलना में अपने खर्चों में कटौती कर रहा है। इसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि फंड आवंटन केंद्रीकृत है, और केंद्रीय वित्त मंत्रालय के पास यह निर्धारित करने का अधिक विवेक है कि संसाधन कहां जाते हैं या जाने चाहिए। हाल ही में, कई राज्यों ने शिकायत की है कि केंद्र का उन क्षेत्रों में विवेकाधीन खर्च बढ़ा रहा है जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। कई लोगों ने शिकायत की है कि योजना प्रक्रिया के अंत का मतलब संसाधनों और आवंटन का केंद्रीकरण कम करने के बजाय अधिक केंद्रीकरण है, जो योजना आयोग को समाप्त करने के पीछे का घोषित उद्देश्य था।
नीति आयोग ने 2017 में 15 साल और सात साल की योजनाएँ बनाने के साथ तीन साल का रोडमैप बनाने में बदलाव किया है। हालांकि, वे व्यापक नीतिगत उद्देश्य थे इससे अधिक कुछ और नहीं। उदाहरण के लिए, सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी के विशेषज्ञ प्रोतिवा कुंडू ने मई 2018 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक पेपर में बताया कि शिक्षा के लिए आयोग की तीन साल की रणनीति में संसाधन जुटाने का प्रस्ताव नहीं था। हालांकि इसमें वे खर्चे शामिल थे जो राज्यों को करने होंगे। इसके अलावा, केंद्रीय बजट में शिक्षा के लिए आवंटन का हिस्सा भी हाल के वर्षों में नहीं बदला है।
इस तरह यदि गौर करें तो केंद्र-राज्य विकास परियोजनाओं के समन्वय के प्रयासों को भी अब कम प्राथमिकता मिल रही है। ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत आने वाले 'ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को प्रबंधन सहायता देने और जिला योजना प्रक्रिया का सुदृढ़ीकरण' करने जैसे कार्यकर्मों के वार्षिक बजट में 364 करोड़ रुपए से 212 करोड़ रुपये की कटौती देखी गई है। संशोधित अनुमान में, यह राशि सिर्फ 176 करोड़ रुपए रह गई है। समस्या सिर्फ कटौती की नहीं है, बल्कि इस बात के स्पष्टीकरण का अभाव है कि योजना ने क्या किया, इसकी विफलताएं या सफलताएं क्या रही, और इसे प्राथमिकता से क्यों हटाया गया। पिछले बजट दस्तावेजों के अनुसार, यह योजना प्रशिक्षण देना, जागरूकता पैदा करना, निगरानी को मजबूत करना और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को पूरा करने जैसे काम करती थी। यह स्पष्ट नहींहै कि क्या इसे बंद कर दिया गया, क्योंकि यह भी स्पष्ट नहेने अहि कि अन्य विभागों ने इन भूमिकाओं को संभाल लिया था या वे बेमानी हो गए थे।
हालांकि, भले ही लक्ष्य अस्पष्ट दिखाई दें, लेकिन आवंटन में गिरावट के परिणाम खोजना मुश्किल नहीं है। गिरते आवंटन, आर्थिक परिवर्तन, भारत के गिरते मानकों को दर्शाते हैं। भारत में सांख्यिकी की गुणवत्ता में सुधार के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत) 2021-22 में 28.50 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जो अब घटकर 0.01 करोड़ रुपए हो गया है यानी 2022-23 में 1 लाख रुपए।
भारत में आर्थिक स्थिति तेजी से बदल रही है, लेकिन आम लोगों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों पर इसके प्रभाव को ट्रैक करने के लिए न्यूनतम बजट या प्रयास भी बहुत कम किए जा रहे हैं, याद रखें कि नोटबंदी पर आधिकारिक रिकॉर्ड अभी भी जनता के सामने नहीं आया है। यह बात जीएसटी पर लागू होती है, जिसमें लक्ष्य के मुक़ाबले अधिक इकट्ठा कर पा रहे हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि जीएसटी संग्रह वास्तव में अधिक है, लेकिन यह रोजगार-गहन अनौपचारिक क्षेत्र की कीमत पर औपचारिक क्षेत्र के उभार का संकेत दे रहा है, जबकि अनौपचारिक क्षेत्र को दोहरे झटके लगे हैं- एक नोटबंदी और जीएसटी, और दूसरा कोविड से निपटने के लिए लगाए गए लंबे समय तक के लॉकडाउन। इसके अलावा, कोविड -19 लॉकडाउन के प्रभाव पर सरकारी आंकड़े भी कमजोर और अपर्याप्त रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन जैसी ताजा अनिश्चितताओं के चलते और तेजी बदलती जटिल दुनिया को कई अधिक योजना की जरूरत है, न कि कम की। एनडीए शासन को योजना आयोग को समाप्त करने और 2017 में समाप्त हुई 12वीं योजना के बारे में अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। वर्तमान स्थिति प्रभावशाली व्यक्तियों (और ताकतों) और क्रोनी पूंजीवाद या संकीर्ण हितों को बढ़ावा देती है। जब मजबूत योजनाएं होती हैं, तो खर्च के बारे में सवाल जल्दी उठने की संभावना होती है। आज कोई भी गलती चेतावनी के साथ आती है: इसका पता बहुत देर से लग सकता है। योजना का आवश्यक कार्य नीतिगत विकल्पों को लोगों की आवश्यकताओं के साथ जोड़ना है। जब यह अनुपस्थित हो जाता है, तो न्याय पर आधारित विकास प्रभावित होता है। हम इसे सामाजिक और आर्थिक असमानताओं में अभूतपूर्व वृद्धि, बढ़ते अभाव और अरबपतियों की बदलती किस्मत में देखसकते हैं।
कुछ हद तक, स्वतंत्र विशेषज्ञ और संगठन योजना में पैदा हो रही कुछ कमियों को दूर करने में मदद कर सकते हैं। लेकिन भारत में सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रणनीतिक हस्तक्षेप की व्यापक जरूरत को केवल हुकूमत ही पूरा कर सकती है।
(लेखक, कैंपेन टू सेव अर्थ नाउ से जुड़े हुए हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:
India’s ‘No-Plan’ Planning Will Hurt its Weakest Sections the Most
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