जेएनयू : नक़ाबपोश हमले के एक महीने बाद भी तनाव का माहौल
नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर के भीतर एबीवीपी से जुड़े नक़ाबपोश सदस्यों द्वारा किए गए अभूतपूर्व हमले को 5 फ़रवरी को एक महीना हो गया है। इस हमले में कई छात्र और शिक्षक घायल हो गए थे। पुलिस ने इस मामले में अभी तक एक भी गिरफ़्तारी नहीं की है।
हालांकि, दिल्ली में चुनाव अभियान बड़े ज़ोर-शोर से चल रहा है, फ्रिंज चरमपंथी समूह इस दौरान भी "देश विरोधी तत्वों को शरण देने" के लिए जेएनयू को स्थायी रूप से बंद करने का आह्वान कराते पाए गए।
परिसर के अंदर, हालांकि, छात्र सुरक्षा और शैक्षणिक माहौल के बारे में चिंतित हैं, और वे परिसर के उस वातावरण को फिर से हासिल करने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, जिसे अब तक शांतिपूर्ण लेकिन ज़बरदस्त बहस के लिए जाना जाता था। न्यूज़क्लिक ने हमले के एक महीने बाद छात्रों से उनकी भावनाओं, चिंताओं और उम्मीदों को जानने के लिए उनसे बात की।
द्रपिता सारंगी, पश्चिम बंगाल से एम.ए. भाषाविज्ञान के प्रथम वर्ष की छात्रा हैं। सारंगी को गंभीर चोट लगी थी तब जब उन्होंने और अन्य छात्राओं ने छात्र पंजीकरण की प्रक्रिया का विरोध करने के लिए स्कूल क्षेत्र में एक मानव श्रृंखला बनाई थी। वो कहती हैं, “जब भी कोई विरोध होता है, तो छात्राएं हमेशा किसी भी तरह के हमले को रोकने के लिए आगे की कतारों में रहती हैं। अब तक ऐसा माना जाता था कि कोई भी महिला छात्रों पर हमला नहीं करेगा। इस बार, यह धारणा पूरी तरह से टूट गई।"
विश्वविद्यालय में अपने दाख़िले को याद करते हुए, सारंगी ने बताया कि उन्होंने कोलकाता के बेथ्यून कॉलेज से अंग्रेजी में स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। “मैं भाषा विज्ञान में एम॰ए॰अपने करना चाहती थी। इसलिए, स्वाभाविक रूप से, जेएनयू का ख़याल आया। यहां लिंग्विस्टिक्स विभाग न केवल भारत में, बल्कि विश्व में भी सर्वश्रेष्ठ है।"
यह पूछे जाने पर कि उन्होंने विभाग को इतना ऊंचा दर्जा क्यों दिया, सारंगी ने बताया कि उप-महाद्वीप में लिंग्विस्टिक्स के क्षेत्र में आयशा किदवई, प्रमोद कुमार पांडे और अन्य शिक्षकों को जाना जाता हैं। "इसी तरह, हमें एक प्रमुख पत्रिका में भाषा विज्ञान के अध्ययन के मामले में शीर्ष 100 विभागों में स्थान मिला है।"
सारंगी ने कहा कि 5 जनवरी की हिंसा के बाद, छात्रों में बेचैनी और अनिश्चितता की भावना है।
उन्होंने कहा, “5 जनवरी के बाद से परिसर असुरक्षित हो गया है। अब कुछ भी हो सकता है। हमने देखा है कि कैसे कुछ लोगों ने शाहीन बाग और जामिया विश्वविद्यालय में बंदूकें लहराते हुए गोलियां चलाईं। इसके साथ दिल्ली में चुनाव चल रहे हैं और हम परीक्षा भी दे रहे हैं। इसलिए, अगर कुछ होता है, हमारे पास जाने के लिए कोई जगह भी नहीं है।”
जब उनसे पूछा गया कि इस हिंसा का उनके व्यक्तिगत जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है, तो सारंगी ने कहा कि उनका परिवार इससे काफ़ी "चिंतित" है। “कैंपस में 9 फ़रवरी की घटना (कन्हैया कुमार को लेकर 2016 की घटना) के बाद पुलिस में भी दरार देखी गई है। लेकिन, इस बार तो हद ही हो गई। पुलिस अधिकारी तब पूरी तरह से मूकदर्शक बने रहे जब छात्रों को घसीटा गया और पीटा जा रहा था।”
न्यूज़क्लिक ने 5 जनवरी को साबरमती हॉस्टल में हमला करने वाले एक अन्य छात्र से मुलाकात की। नाम गुमनाम रखने की शर्त पर छात्र ने बताया कि हिंसा उसके लिए अप्रत्याशित आघात लेकर आई थी और उन्हें नहीं पता था कि इससे कैसे निपटा जाए।
उन्होंने कहा, “हिंसा के बाद, मैं अपने गाँव चला गया। इस बीच, मैंने मनोरोगी चिकित्सक से सहायता ली। हालांकि, मुझे लगा कि यह इससे मुझे अधिक परेशानी हो रही है। इसलिए, मैंने इलाज त्याग दिया। मैं ठीक हो रहा हूं, लेकिन इसमें समय लगेगा। वे मेरे दरवाज़े को पीटने के लिए छड़ों का इस्तेमाल कर रहे थे। आज एक महीने के बाद भी, जब कोई दरवाज़े को भेड़ता भी है, तो मैं डर जाता हूं।"
अपनी शैक्षणिक स्त्थिती के बारे छात्र ने बताया कि उसे जुलाई में पीएचडी जमा करनी है। “हिंसा से पहले, मैंने पढ़ाई की थी और तय किया था कि थीसिस में क्या लिखा जाना चाहिए। अब, मैं सब कुछ भूल गया हूं। मैं रोजाना पुस्तकालय में 10 घंटे तक पढ़ता हूं लेकिन मैं 500 शब्द भी नहीं लिख पाता हूँ।
जेएनयू प्रशासन और पुलिस की भूमिका और उनकी प्रतिक्रिया की आलोचना करते हुए, छात्र ने कहा कि: “जब हमें प्रशासन की सबसे अधिक जरूरत थी, तो वह हमारे साथ नहीं था। कोई भी रजिस्ट्रार या रेक्टर हमसे बात करने नहीं आया। इससे हमारे भीतर आत्मविश्वास पैदा होता। इसी तरह, दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने भी हमसे बात करना तो दूर यह कहने की भी जहमत नहीं उठाई कि अगर कोई इमरजेंसी हो तो उन तक पहुँचने के लिए ये नंबर हैं।"
ध्यान दिया जाए तो 5 जनवरी को हुआ हमला हालिया याददाश्त में पहला नहीं था। उन्होंने कहा, "इसके लिए हमें दिल्ली के राजनीतिक भूगोल को समझने की ज़रूरत है। यह किसी किसान संघर्ष का केंद्र नहीं है। न ही, यह कोई दलित-बहुजन-मुस्लिम राजनीति का एक शक्ति केंद्र है। इसलिए, छात्रों के रूप में इसका केवल एक राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र है, जिनमें से अधिकांश वाम दलों के साथ जुड़े हुए हैं। इसलिए, यह स्वाभाविक रूप से वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच की लड़ाई है। यहाँ सरकार सख़्ती बरतना चाहती है, ताकि किसी भी तरह की असहमति और आलोचना की अनुमति न दी जाए। इसलिए हम जेएनयू पर लगातार हमले देख रहे हैं। अगर कोई भी समझदार व्यक्ति इस मुद्दे से निपट रहा होता, तो मामला इस हद तक नहीं भड़कता। फ़ीस वृद्धि का मुद्दा केवल 7 करोड़ रुपये का था। लेकिन उन्होंने इसे एक 'अहम्' मुद्दा बना दिया।"
बाद में, न्यूज़क्लिक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्र संघ (जेएनएनयूयू) की अध्यक्ष आइशी घोष से मुलाकात की। जिस दिन हिंसा हुई, उस दिन सभी टीवी चैनलों पर खून से सनी घोष की छवि थी। वे ख़ुद स्वीकार करती हैं कि निष्पक्ष जांच के अभाव में छात्रों में असुरक्षा की भावना व्याप्त है। घोष कहती हैं, "हिंसा के बाद, मैं जो कुछ भी देख रही हूं, वह छात्रों और छात्र समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ा रहा है।" वह कहती हैं कि उन्हें निष्पक्ष जांच की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
उन्होने कहा, “इसके बजाय, हिंसा में घायल व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज़ किए गए। व्यक्तिगत रूप से, यह मेरे लिए मानसिक थकावट थी। डर ने मेरी आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया, भले ही मैंने जानबूझकर ऐसी कोशिश नहीं की ... किसी को नहीं पता कि क्या होगा। इस घटना ने प्रसिद्धि दिलाई और लोग अब मुझे तुरंत पहचानने लगे हैं। वे मेरा अभिवादन करते हैं और अक्सर सकारात्मक प्रतिक्रिया होती है। लेकिन जिस तरह से पुलिस ने मुझे एक दोषी के रूप में दिखाया, वास्तव में नहीं जानती कि इस पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए। कई लोग हैं जो सोचते हैं कि पुलिस जो कह रही है वह सही है। फिर, ऐसे लोग हैं जो किसी भी हद तक जा सकते हैं।”
दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा विश्वविद्यालय को बंद करने की मांग के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में घोष कहती हैं, "ऐसा कभी नहीं होगा। इस प्रचार को चलाने वाले लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि उन्हें लोगों के बारे में दुष्प्रचार करने और धृविकरण के लिए एक आंतरिक दुश्मन की जरूरत है। ज़रा शाहीन बाग़ की तरफ़ देखिए। उन्होंने इसे 'आंतरिक दुश्मन' बना लिया है। इसलिए, जेएनयू बंद नहीं होगा। वे जेएनयू पर हमला क्यों करते हैं, इसे समझने की जरूरत है।
जेएनयू उन गिने-चुने विश्वविद्यालयों में से है, जहां हमारे पास मजबूत छात्र संघ हैं। सिर्फ दिल्ली में ही देखें, जामिया में छात्रों की यूनियन नहीं है, कर्नाटक में छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया है। जब हमने फीस वृद्धि का मुद्दा उठाया, तो इसी तरह की मांग अन्य विश्वविद्यालयों से भी उठाई गई। अगर वे फीस बढ़ोतरी को वापस ले लेते, तो यह एक मजबूत संदेश होता। इसलिए, उन्होंने अन्य संस्थानों के शुल्क को कम कर दिया, लेकिन जेएनयू में ऐसा नहीं किया। वे रिवर्स रणनीति का उपयोग कर रहे हैं, ताकि प्रतिरोध के स्रोत पर अंकुश लगाया जा सके।”
न्यूजक्लिक ने प्रोफेसर सुचरिता सेन से भी बात की, जिन्हें एक महीने पहले हुए हमले में गंभीर चोटें आई थीं। उन्होंने कहा कि परिसर को अब आतंक के एक स्थल के रूप में देखा जाता है, जिसे वह पहले अपने घर की तरह से मानते थे।
उन्होंने कहा, “हमला केवल एक छात्रावास और कुछ शिक्षकों पर था। लेकिन अन्य छात्रावासों के निवासियों को लगता है कि उन पर भी हमला किया जा सकता है। इसी तरह, हमले के तौर-तरीकों से पता चलता है कि जो छात्र मुझे अच्छी तरह जानते थे, उन्होंने हमलावरों का मार्गदर्शन किया था। केवल कुछ सहकर्मियों और छात्रों को मेरी कार का पता है और हमले के दिन इसे बुरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया था। तो, शिक्षकों में भी विश्वास की कमी है। हमारे मतभेदों के बावजूद, वांम और दक्षिण सह-अस्तित्व में रह सकते हैं और जिस चाहे पार्टी में जा सकते हैं। अब ऐसा नहीं हो रहा है, और मुझे लगता है कि यह शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया का विरोधी है।”
सेन को दिल्ली पुलिस से सकारात्मक कार्रवाई की उम्मीद भी नहीं थी। “अपराध शाखा ने मेरे पास आने और विवरण जानने की भी जहमत नहीं उठाई। मैंने शिकायत की, लेकिन उन्होंने इसे एफआईआर में तब्दील नहीं किया। मैं अब अदालत का रुख कर रही हूँ लेकिन दो महीने बाद की तारीख मिली है।
यह पूछे जाने पर कि क्या विश्वविद्यालय पर लगातार हमलों का कोई विशेष कारण था, सेन ने कहा कि वह निश्चित रूप से नहीं जानती, लेकिन एक अनुमान ही लगा सकती हैं।
उन्होंने कहा, “जनवरी 2016 में वर्तमान कुलपति की नियुक्ति के बाद चीज़ें बदलने लगीं हैं। उनके आने के एक महीने बाद, 9 फ़रवरी की घटना हुई। विश्वविद्यालय में भारी बदलाव आया है। मैं अनुमान लगा सकती हूं कि हम शीर्ष विश्वविद्यालय बने रहे और नंबर एक पर हैं। हम एक ऐसा विश्वविद्यालय हैं जहाँ एससी, एसटी (अनुसूचित जाति और जनजाति) के छात्र और अन्य समुदायों की लड़कियाँ अध्ययन कर सकती हैं। मैंने कभी ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं देखा, जिसका देश भर से इतना विविध प्रतिनिधित्व हो। इसलिए, यह हमला क्यों हो रहा है यह एक सवाल है जिसका जवाब सत्ताधारी पार्टी (भाजपा) को देना चाहिए।"
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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