मोदी राज में दूसरों पर दोष मढ़ने के झाँसे में नहीं फँसेगा बंगाल
प्रधानमंत्री की ओर से 17 जून को आयोजित एक वीडियोकांफ्रेंसिंग में राज्य के प्रतिनिधि के बतौर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शामिल होने से इंकार कर दिया था, क्योंकि वे उन चुनिन्दा आमंत्रित सदस्यों में से एक थीं जिन्हें इस आभासी बैठक में अपनी बात रखने के लिए समय आवण्टित नहीं किया गया था। देखने में ऐसा नजर आ सकता है कि ऐसा निर्णय गुस्से में लिया गया होगा, जो मुख्यमंत्री की गरिमा के अनुरूप नजर नहीं आता, लेकिन यदि सन्दर्भों में देखें तो वास्तव में यह विरोध अपनी जगह पर बिल्कुल वाजिब है। यह देखते हुए कि पश्चिम बंगाल को न सिर्फ कोरोनावायरस संकट बल्कि अम्फान चक्रवात के बाद के हालातों से भी जूझना पड़ रहा है, ऐसे में बंगाल के केस को पेश करने के लिए मौका मिलने की उम्मीद करना कहीं से भी गलत नहीं कह सकते हैं।
अब जैसा कि वास्तव में घटित हुआ है कि इस महा-चक्रवात ने कोलकाता और तीन जिलों को जहाँ मटियामेट कर डाला है वहीँ कई अन्य को इसने तहस-नहस करके रख दिया है, लेकिन इस सबके बावजूद नरेंद्र मोदी शासन की और से इस घटना के तत्काल बाद "अग्रिम सहायता" के तौर पर 1,000 करोड़ रूपये की मंजूरी के अलावा किसी भी प्रकार की सहायता की घोषणा (कुछ जेब ढीली करने की तो बात ही भूल जाएँ) अभी तक नहीं की गई है। जबकि अनुमान है कि राज्य को इससे करीब 1 लाख करोड़ रूपये मूल्य का नुकसान हुआ है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस बात से निश्चित तौर पर हैरान-परेशान होना चाहिए कि राज्य में मौजूदा अन्य विपक्षी दलों- खासकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कांग्रेस ने जो कि करीब-करीब अन्य सभी मामलों में तृणमूल की कटु आलोचक रही हैं, इन दोनों ने ही इस मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस को अपना समर्थन दिया है और केंद्र पर बंगाल के खिलाफ भेदभाव करने का आरोप लगाया है।
भेदभाव के आरोपों को बल तब जाकर और मिला जब गुरूवार को केंद्र की ओर से इस बात की घोषणा की गई कि वह छह राज्यों- बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के उन सभी 116 जिलों में लौट चुके या लौट कर आने वाले प्रवासी श्रमिकों के लिए रोजगार मुहैय्या कराने के लिए 50,000 करोड़ रूपये तक की योजना की शुरुआत करने जा रही है। इस श्रेणी में चुने जाने की कसौटी के तौर पर कम से कम 25,000 प्रवासियों को उन जिलों में वापसी तय पाई गई थी। और इसमें कोई शक नहीं कि बंगाल में ऐसे कई जिले हैं जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, लेकिन बंगाल को इसमें शामिल नहीं किया गया है।
बंगाल को (और अन्य) इससे बाहर रखकर, विशेषकर अम्फन चक्रवात के बाद के हालत के मद्देनजर मोदी शासन ने अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति जिस प्रकार का असहिष्णु व्यवहार और सरकारी मशीनरी के अवैधानिक और पक्षपातपूर्ण लाभ के क्रम को जारी रखा है, वह हैरत में डालने वाला है।
उदाहरण के लिए याद करिये कि किस प्रकार से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 9 जून को बंगाल विधानसभा चुनावों जिन्हें सालभर के भीतर होना है, के लिए वस्तुतः अपनी पार्टी का अभियान छेड़ दिया है, जिसमें परम्परागत तौर पर बनर्जी के खिलाफ जोरदार हमले से इसकी शुरुआत की गई। जहाँ तक उनके भाषण के सार का प्रश्न है तो जैसा कि वह आमतौर पर होता है, उससे कुछ ख़ास अलग नहीं था, लेकिन इसकी टाइमिंग और सन्दर्भ को लेकर कई प्रश्न खड़े होते हैं।
अपने पार्टी कार्यकर्ताओं वाले दर्शक समूह की "आभासी" रैली को संबोधित करते हुए अमित शाह ने जो हल्ला बोला, वह दो विषयों के इर्दगिर्द केन्द्रित था: नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 और लॉक-डाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों की दुःख भरी दास्ताँ। पहला वाला कुछ ख़ास रोचक नहीं था क्योंकि यह परम्परागत तौर पर जबानी जमाखर्च करने जैसा था जो आजके दिन में चलन में नहीं रहा, लेकिन रिकॉर्ड के लिए बताते चलें कि शाह ने इस कानून की मुखालफत के लिए राज्य सरकार पर जमकर हल्ला बोला और आरोप लगाये कि इसके जरिये मातुआ और अन्य नागरिकता के अवसरों से लोगों को वंचित किया जा रहा है। ये सब हम सबने पहले भी कही बार सुन रखा है।
लेकिन शाह के गीत का मुख्य स्वर यह था कि ममता बनर्जी बंगाल के उन प्रवासी मजदूरों के साथ अत्याचार कर रही हैं, जो अभी भी देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे हुए हैं। ऐसा वह श्रमिकों की घर वापसी के लिए आवश्यक पर्याप्त श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की माँग को ठुकराकर कर रही हैं। उनका कहना था कि उत्तर प्रदेश ने जहाँ 1,700 ट्रेनों और बिहार ने 1,500 के लिए मांगपत्र रखा था, वहीँ बंगाल ने मात्र 235 की ही अनुमति दी थी – जिसके चलते वे एक ऐसे समय में हजारों लोग फंसे रह गये, जब वे अपने-अपने घरों को वापस जाने के लिए बैचेन थे।
और वे इतने पर ही नहीं रुके। शाह का कहना था कि ममता बनर्जी ने उन गाड़ियों को अपमानित कर उन सबका अपमान किया था, जिन पर बैठकर वे घर लौट रहे थे। अपने दर्शकों को संबोधित करते हुए शाह ने कहा था “ममता ने श्रमिक ट्रेनों को कोरोना एक्सप्रेस का नाम देकर बंगाल के मजदूरों को अपमानित करने का काम किया है। यह कोरोना एक्सप्रेस जल्द ही एग्जिट तृणमूल एक्सप्रेस में तब्दील होने जा रही है।“
शाह की यह ऊँची जमीन पर तूफ़ान खड़ा करने की जोरदार कोशिश हास्यास्पद लगती है। वे प्रवासी मजदूर जिनकी दुर्दशा ने इतनी गहराई से उनके दिल के तारों को झिंझोड़कर रख दिया है, वे मजूदर शायद ही तथ्यों को एकबारगी विस्मृत कर पायें। यदि शुरू से देखें तो यह दिल्ली की बीजेपी सरकार ही थी जिसने चार घंटों के भीतर समूचे देश में इस प्रकार के खूंखार लॉकडाउन को अचानक से थोपने की पहल की, जिसने लाखों प्रवासियों को अपने-अपने कार्यस्थलों पर अचानक से असहाय हालत में पटकने का काम किया था. जहाँ अब उनके पास अपनी आजीविका के लिए कोई साधन शेष नहीं रह गया था और वे सभी कोरोनावायरस संक्रमण की चपेट में आने के लिए पहले से कहीं अधिक बाध्य कर दिए गए थे। अब इस पर बहस करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि उस मौके पर ऐसा करना ही अपरिहार्य क्यों था।
केंद्र यदि चाहता तो उसके लिए यह पूर्णरूपेण संभव था कि वह मार्च के आरंभ से ही लॉकडाउन की योजना बनाना शुरू कर सकता था और प्रवासी श्रमिकों एवं अन्य को यथोचित सूचना और नोटिस के जरिये इतना समय मुहैय्या करा सकता था कि वे सभी अपने घर सकुशल पहुँच सकते थे। यदि ऐसा हो गया होता तो इस एक अनार-सौ बीमार वाली श्रमिक स्पेशल ट्रेनों की जरूरत शायद ही किसी को पड़ी होती, साधनहीन भूखे लोगों द्वारा एक अंतहीन सफर पर पैदल ही निकल पड़ने की तो कल्पना करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती।
एक बार फिर से यह सरकार के जिम्मे था, जिसमें शाह नंबर दो की हैसियत से हैं उसे इस बात की घोषणा करने में 37 दिन लग जाते हैं कि प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए विशेष ट्रेन सेवाएं शुरू होने जा रही हैं- ध्यान से देखें तो कुल जमा पांच सप्ताह से अधिक का समय इसी घोषणा में खर्च हो गया था। और जब तक पहली ट्रेन किसी स्टेशन से श्रमिकों को लेकर उनके गंतव्य को निकली तबतक तकरीबन छह हफ्ते बीत चुके थे।
इस सबके बावजूद केंद्र ने जिस प्रकार से इस पूरे अभियान के संचालन में बदइन्तजामी दिखाई, जैसा कि अक्सर देखने को मिला जिसमें यही साफ़ नहीं हो पा रहा था कि किराया भाड़ा किसे चुकाना है। मजदूर अपनेआप से टिकटों को कैसे बुक कर सकते हैं और गंतव्य तक जाने के लिए ट्रेनों की शेड्यूलिंग में बातचीत कैसे होनी है, इन सबकी वजह से ट्रेनों के सुचारू रूप से संचालन शुरू कर पाने से पहले ही इन सबमें काफी समय बर्बाद किया गया। कुलमिलाकर लुब्बोलुबाब यह रहा कि कुल सात हफ्ते इस अफरातफरी में बीत जाने के बाद भी मई के मध्य तक प्रवासी मजदूर क्यों मझधार में अटके पड़े थे, यह किसी की भी समझ से बाहर की चीज है।
कुलमिलाकर यह भी देखने को मिला है कि मोदी और शाह की सरकार का योगदान सिर्फ ट्रेनों को चलाने की अनुमति देने और रेलवे को उसके संचालन के लिए आदेश मात्र देने तक सीमित रहा था। ट्रेनों के समय-निर्धारण में समन्वय को लेकर उसकी कोई भूमिका नजर नहीं आई, इस पूरे अभियान में नेतृत्वकारी भूमिका की तो बात ही भूल जाएँ। राज्यों को अपनेआप से ही सब कुछ करना पड़ा था और इस पूरे अभियान को सम्पन्न करने में होने वाले खर्चों को वहन करना था। जबतक कि वे यह नहीं चाहते कि प्रवासी मजदूर इस सबका भुगतान खुद की जेब से करे।
यहीं पर एक समस्या नजर आती है। क्या शाह को वास्तव में लगता है कि सारी जिम्मेदारी को दूसरों पर थोप देने और दोष मढ़ देने से काम बन जाएगा जब उनकी खुद की सरकार सुस्पष्ट तौर पर किसी भी मामले में मदद के लिए हाथ बढाने से हठपूर्वक इंकार करती रही हो? निश्चित तौर पर उन लोगों के गले के नीचे से यह बात नहीं उतरने जा रही है जिन्होंने लगातार कई हफ्ते खुद को जिन्दा बनाए रखने की जद्दोजहद में गुजारे हों।
फिर इसके साथ ही इसकी टाइमिंग को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। भले ही शाह के लिए चक्रवात अम्फान एक छोटा मुद्दा हो सकता है जिसे वे भूल गए होंगे, लेकिन इस इलाके के लोग इसे भूल जाएँ यह मुमकिन नहीं है। इस घटना को तीन हफ्ते भी नहीं बीते थे जब शाह ने अपनी इस आभासी रैली को अंजाम दिया था। एक ऐसे समय में जब राज्य सरकार सदी की सबसे भयानक महामारी और चक्रवात के दोहरे मार से जूझ रही हो, ऐसे में उस पर ट्रेनों को जानबूझकर रोके रखने का आरोप मढना हजम नहीं होता।
आपदा में राजनीतिक उद्यमशीलता की तलाश में आकंठ डूबे ऐसे भयानक चरित्र को हजम कर पाना उन लोगों के लिए काफी मुश्किल होगा जो खुद को किसी तरह बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। स्पष्ट तौर पर अपने साथ किये गए भेदभाव को भुला पाना उन लोगों के लिए काफी कठिन होगा जो आज अपनी जिन्दगी के बिखरे हुए तिनकों बीनने के बीच से गुजर रहे हैं। और मोदी और शाह की आगलगाऊ कपटी ब्रांड से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। ऐसे में इस बात की सम्भावना नजर नहीं आती कि बंगाल में लोग अपने विवेक से काम नहीं लेंगे।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को भी आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-
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