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केवल शराबबंदी नहीं, बल्कि बिहार की प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ाने से शराब की लत से मिलेगा छुटकारा 

बिहार की प्रति व्यक्ति आमदनी, देश की औसत आमदनी की महज 33 फ़ीसदी है। बिहार के कई इलाके अफ्रीका से भी ज्यादा गरीब हैं। ऐसे में शराब से छुटकारा पाने के लिए कैसे केवल शराबबंदी कारगर उपाय हो सकती है?
alcohol
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

समाज को शराब खोरी की लत से पैदा होने वाली परेशानियों से बचाने के लिए शराबबंदी कारगर उपाय है। लेकिन शराब से पैदा होने वाली परेशानियों को रोकने के लिए राज्य द्वारा शराबबंदी का कानून बना देने के बाद अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से खुद को मुक्त कर लेना शराबबंदी के कारगर उपाय को भी बेकार बना देता है।

बिहार को ही देख लीजिए। अप्रैल 2022 में बिहार में पूर्ण शराबबंदी के छह साल पूरे हो जाएंगे। अप्रैल 2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आबकारी कानून में संशोधन कर के बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी थी। जिसके तहत बिहार में शराब निर्माण परिवहन, बिक्री और खपत पर रोक लग गई।

पूर्ण शराबबंदी का बिहार में मौजूद शराब खोरी की परेशानियों से छुटकारा पाने में ठीक ठाक असर पड़ा।  राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 के मुताबिक बिहार की लगभग 29 फीसद आबादी शराब की उपभोक्ता थी।  साल 2019-20 में  यह संख्या घटकर 15.5 फीसद रह गई है।  2021 में बिहार की अनुमानित आबादी 12.48 करोड़ है। ऐसे में शराब के उपभोक्ताओं की संख्या में गिरावट का मतलब है कि राज्य में लगभग एक करोड़ लोगों ने शराब पीना छोड़ दिया है। लेकिन पूर्ण शराबबंदी के बाद भी बिहार की तकरीबन 15.5 फ़ीसदी आबादी शराबखोरी की गिरफ्त में है। यह बहुत बड़ी संख्या है।

यह इतनी बड़ी संख्या है, जो बताती है कि सड़क-चौक-चौराहे पर शराब की बिक्री बंद कर देने, शराब निर्माण और इसकी आवाजाही पर प्रतिबंध की नीति पूरी तरह से कारगर नहीं हुई है। केवल अच्छी बात यह है कि शराब पीने वालों की संख्या पहले से कम हुई है। बढ़ी नहीं है। यही सोचने वाली बात है कि आखिर कर क्या वजह है कि शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देने के बाद भी शराब खोरी की आदत बड़ी मात्रा में कम नहीं होती।

समाज को शराब की परेशानी से बचाने में जुटे कार्यकर्ताओं का कहना है कि बहुत लंबे समय तक शराब की आदत से समाज को बचाने के लिए जब केवल पूर्ण प्रतिबंध का उपाय जारी रहता है, और इसके साथ दूसरे जरूरी उपायों का इस्तेमाल नहीं होता है, तो समाज में अपने आप भीतर ही भीतर शराब पीने वाले एक नेटवर्क की तरह काम करने लगते हैं।

बिहार को ही उदाहरण के तौर पर देखें तो पता चलता है कि बिहार कोई कटा छटा द्वीप नहीं है। जो समुद्र के बीचो-बीच मौजूद हो। बल्कि एक ऐसी जगह है जो चारों तरफ से ऐसे राज्यों और इलाकों से घिरी हुई है, जहां शराब पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। इसलिए शराब की आवाजाही पर निगरानी रखना पुलिस या किसी के लिए भी बहुत बड़ी चुनौती होती है।

बिहार के 38 जिलों में से 21 जिलों की सीमा उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और नेपाल सी लगती है। बिहार और नेपाल के बीच तकरीबन 800 किलोमीटर की सीमा आपस में जुड़ी हुई है। सीमाओं पर तकरीबन बिहार के 6000 से अधिक गांव मौजूद है। हर महीने बिहार और नेपाल के बीच तकरीबन दो लाख लोगों की आवाजाही होती है। इसके अलावा बिहार के गांव देहात के इलाकों में मुखिया सरपंच बीडीसी पंचायत प्रमुख विधायक सांसद सबको जानकारी होने के बावजूद भी शराब बनाने वाले शराब बनाने का काम अंजाम देते रहते हैं। ना कोई रोकता है, ना कोई टोकता है, ना कोई आवाज उठती है। आवाज तभी उठती है, जब अवैध शराब की वजह से कोई मर जाता है।

अब ऐसे में पूर्ण शराबबंदी का कानून महज किताबी बनकर रह जाता है। चुपचाप दबे पांव कई तरह के भ्रष्ट कामों के साथ पुलिस प्रशासन जनता नेता सबकी आपसी गैर कानूनी देखरेख में शराब का धंधा चलता रहता है।

शराबबंदी के बाद भी शराब बनती है। शराब बिकती है। शराब की आवाजाही होती है। यह सब गैर कानूनी तौर पर होता रहता है। चूंकि यह गैर कानूनी तौर पर होता है तो बनने वाली शराब पर सरकार की निगरानी नहीं होती। ऐसे में इसका सबसे बड़ा खतरा होता है कि शराब बनाने से जुड़े उचित मापदंड नहीं अपनाए जाते हैं।

सरकार की निगरानी के अभाव में बनने वाली शराब नशे की बजाय जहर की तरह से काम करने लगती है। यही वजह है कि बिहार के कई इलाकों से हर महीने शराब पीने की वजह से मरने की खबर आती है। दिवाली से पहले समस्तीपुर गोपालगंज और पश्चिमी चंपारण जिले से शराब पीने की वजह से तकरीबन 40 लोगों के मरने की खबर आई।

शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगने से गैर कानूनी तौर पर शराब की खपत बढ़ जाती है। गैर कानूनी तौर पर शराब की खपत बढ़ने की वजह से खराब शराब की बिक्री होती है। लोगों के मरने की खबरें भी आने लगती है। यही बहुत अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। इस साल बिहार में अवैध शराब पीने की वजह से तकरीबन 90 लोगों की मौत की खबर आ चुकी है।

इसीलिए पूर्ण शराबबंदी ठीक-ठाक परिणाम देने के बाद भी गरीब और गैर जागरूक लोगों से भरे भारत जैसे देश में बहुत अधिक जटिल मामला बन जाता है। पूर्ण तौर पर शराबबंदी लगती है लेकिन जब शराबबंदी की अवधि बढ़ने लगती है तब धीरे-धीरे भीतर ही भीतर अपराध से जुड़ा नेटवर्क खड़ा होने लगता है। शराब माफिया बनने लगते हैं। शराब माफिया से जुड़ा अपराध तैयार होने लगता है।

जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि हमें समझना चाहिए कि शराब पीना कोई अपराध नहीं होता है। लेकिन शराब पीकर अनियंत्रित अवस्था में जिस तरह के काम होते हैं, वह अपराध की श्रेणी में चले जाते हैं। शराब पीने के बाद औरतों के साथ होने वाली बदसलूकी और हिंसा सबसे पहले नंबर पर आता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का डाटा कहता है कि बिहार में शराबबंदी होने की वजह से 37% हिंसा के मामलों में कमी आई है। औरतों के साथ हिंसा के मामले में 45% की कमी आई हैं।

शराबबंदी के इर्द गिर्द मौजूद इन सभी बहसों का मतलब यह है की शराबबंदी शराब से जुड़े परेशानियों को रोकने के लिए  प्राथमिक तौर पर एक ठीक ठाक उपाय है। लेकिन यह कोई जादू की छड़ी नहीं है कि शराब से होने वाली सारी परेशानी पूर्ण शराबबंदी से ठीक हो जाए। अवैध शराब का कारोबार बढ़ जाता है। अवैध शराब से जुड़े अपराध का नेटवर्क बढ़ जाता है।अप्रैल 2016 से लेकर अब तक बिहार पुलिस ने 2 लाख से अधिक प्राथमिकी दर्ज की हैं। लगभग 2.12 लाख लोगों को शराबबंदी कानूनों के उल्लंघन के लिए गिरफ्तार किया है। इनमें से अधिकतर अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय से जुड़े हैं। (जिनमें से अधिकतर जमानत पर रिहा हो गए हैं।)

जो लोग शराब छोड़ चुके होते हैं, उनके लिए तो अच्छी बात होती है लेकिन जो शराब के नशे से अब भी बाहर नहीं आए हैं (बिहार की 15.5 फ़ीसदी आबादी) उनके लिए परेशानियां जस की तस  हैं।

राजस्थान में शराब के नशे से बर्बाद हो रहे लोगों को बचाने के लिए काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे का कहना है कि शराब की परेशानी को एक तरह की बीमारी की तरह समझना चाहिए। इसे केवल शराबबंदी के जरिए ठीक नहीं किया जा सकता है। समाज सेहत आर्थिक और मानसिक स्थिति सहित कई क्षेत्र शराब  की परेशानी से जुड़े हुए हैं।

इसलिए इन सभी क्षेत्रों पर काम करना होगा। 35 साल से ग्रामीण क्षेत्र में काम करने का मेरा अनुभव कहता है कि शराब की परेशानी से लड़ने के लिए सबसे अधिक महिलाएं पहल करती हैं। क्योंकि इन्हें सबसे अधिक परेशानी सहनी पड़ती है।

निखिल डे की इस बात के साथ जोड़ा जाए तो दिखता है कि शराब खोरी से लड़ने के लिए महिलाओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। महिलाओं को मुख्य किरदार बनाते हुए सरकार पहल कर सकती है।

बिहार देश के सबसे गरीब राज्य में से एक है। इसकी आर्थिक बदहाली शराब की परेशानी से भी सीधे तौर पर जोड़ती है। जिन घरों में शराब को लेकर एक तरह की स्वीकार्यता है, वह घर आर्थिक तौर पर मजबूत घर होते हैं, इसलिए वह शराब से पैदा होने वाली परेशानी को नहीं समझ पाते। गरीब घरों में शराब अनियंत्रित मानसिक स्थिति में सहारा बनती है और कई सारे अनियंत्रित काम करवाती है। जो अपराध की श्रेणी तक पहुंच जाते हैं।

1997-98 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय ₹4018 थी। उस समय की देश की औसतन प्रति व्यक्ति आय का महज 31% थी। साल 2019-20 में  यह प्रति व्यक्ति आय बढ़कर तकरीबन ₹45000 हुई है। लेकिन अब भी देश के औसतन प्रति व्यक्ति आय काम महज 33% है। यह आंकड़ा बिहार की बदहाली को बताता है। पिछले 20 साल में महज 2% का इजाफा है। बिहार के कई इलाके अफ्रीका से भी ज्यादा गरीब हैं। यहां पर शराब की परेशानी केवल शराब बंदी से कभी ठीक नहीं होगी। लोगों की आर्थिक हैसियत मजबूत करने के काम भी करने होंगे।

जब यह आर्थिक हैसियत मजबूत होगी तभी जागरूकता आएगी और तब ही शराब के प्रति एक नियंत्रण कारी स्थिति पपनेगी। लोग शराब की लत से खुद को दूर रख पाएंगे। तभी लोगों को पता चलेगा कि जब शराब की खतरनाक लत लग जाती है, उसकी आदत छूटती नहीं है, तो वे किसी मनोवैज्ञानिक के पास जाए। किसी रिहैबिलिटेशन सेंटर में जाए। शराब छोड़ने के उन तमाम उपायों की तरफ बढ़े जो गरीबों को नहीं पता होते हैं। केवल शराबबंदी नहीं। बल्कि आर्थिक स्थिति मजबूत करने के साथ, सरकार द्वारा शराब की लत में पड़ चुके सारे उपाय करने चाहिए। यह तब तक नहीं होगा जब तक गांव देहात के मुखिया सरपंच, प्रशासन से जुड़े प्रशासनिक अधिकारी,राज्य से जुड़े विधायक और केंद्र से जुड़े सांसद सहित बिहार का नागरिक समाज आपस में मिलकर काम नहीं करेगा। आपस में मिलकर कब करेगा? इसके बारे में किसी को कुछ अता-पता नहीं।

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