मीलॉर्ड!, नूपुर शर्मा संघ-भाजपा की सोच और रणनीति का ही प्रतिबिंब हैं
सर्वोच्च न्यायालय ने नूपुर शर्मा के खिलाफ एक बेहद सख्त टिप्पणी में कहा है कि उन्होंने पैगम्बर के खिलाफ टिप्पणी या तो सस्ता प्रचार पाने के लिए या किसी राजनीतिक एजेंडे के तहत या किसी घृणित गतिविधि के तहत की। न्यायालय ने माना कि उदयपुर जैसी घटना के लिए उनका बयान जिम्मेदार है। यह नोट करते हुए कि उनके बयान के चलते पूरे देश में हालात बिगड़े है, न्यायालय ने उनसे पूरे देश से माफी मांगने को कहा है।
यह सर्वविदित है कि नूपुर शर्मा की सोच संघ-भाजपा establishment की फ्रिंज नहीं, वरन मुख्यधारा की सोच और रणनीति का प्रतिबिम्ब है। उनके जैसे अनगिनत नेता और प्रवक्ता अहर्निश ध्रुवीकरण के नफरती अभियान में लगे हैं। अनायास नहीं है कि, जैसा कि SC ने भी नोट किया नूपुर शर्मा पुलिस की पहुंच से बाहर हैं और ज़ुबैर जैसे लोग सलाखों के पीछे हैं।
देश आज उथल-पुथल भरे एक अभूतपूर्व दौर में प्रवेश कर गया है, जिसका कम से कम अगले आम चुनाव तक जारी रहना तय है। मौजूदा निज़ाम ने हमारे राष्ट्रीय जीवन को सर्वांगीण ( comprehensive ) -राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक-तबाही की राह पर धकेल दिया है।
जैसे जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहा है, सत्ताधीश इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि उनके राज में जारी भयावह आर्थिक तबाही कभी भी विस्फोटक आयाम ग्रहण कर सकती है। लगातार ढलान की ओर जाती, stagflation के दुष्चक्र में फंसी अर्थव्यवस्था, टूटता रूपया, असह्य बेरोजगारी और जानलेवा महंगाई से निजात मिलने के दूर-दूर तक आसार नहीं हैं। इस सब के खिलाफ वास्तविक जीवन की पीड़ा से पैदा होने वाला जनता का संचित गुस्सा सड़क पर उतरा तो क्या रूप ग्रहण कर सकता है, इसे सरकार ने किसान आंदोलन में भी देखा है और अब बीच-बीच में फूट पड़ने वाले युवा आक्रोश में भी देख रही है। यह युवाओं का मूलतः बेरोजगारी के खिलाफ गुस्सा है जिसकी अभिव्यक्ति कभी रेलवे भर्ती की अनियमितताओं को लेकर हो रही है तो कभी सेना की 4 साला भर्ती के खिलाफ।
अग्निपथ के खिलाफ नौजवानों का गुस्सा सुलग रहा है, भले ही संगठित नेतृत्व के अभाव और राजनीतिक विपक्ष के नाकारापन के कारण अभी वह बड़े जनान्दोलन का रूप न ग्रहण कर पा रहा हो, भर्ती चालू होने पर बेरोजगारी की आग में झुलसते नौजवान भले ही मजबूरी में उसमें जाने को अभिशप्त हों, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी नाराजगी खत्म हो गयी है। जाहिर है यह सब विस्फोटक आंदोलनात्मक संभावना भी लिए हुए है और 2024 में मोदी जी की अखण्ड राज की महत्वाकांक्षा पर भी रोक लगा सकता है।
संघ-भाजपा के नीति नियामक इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि उनकी चुनावी सफलताएं चाहे जितनी प्रभावशाली लगती हों, वे मूलतः विपक्ष के बिखराव का नतीजा हैं। उनके पक्ष में होने वाले मतदान प्रतिशत का जो ट्रेंड पिछले 8 वर्षों से चल रहा है, गहराते आर्थिक संकट के बावजूद वह अगर बना रहे, तब भी opposition unity इंडेक्स में सुधार होते ही सत्ता उनके हाथ से निकल जायेगी।
इन संभावनाओं से सशंकित मोदी सरकार बहुआयामी रणनीति पर अमल कर रही है। एक ओर असहमति की हर आवाज को खामोश कर देने, अपने विरोध में उठने वाली प्रतिवाद-आंदोलन की हर संभावना की कुचल देने की कोशिश हो रही है, विपक्ष को एक न होने देने, कमजोर करने, डराने, सत्ता और संसाधनों से वंचित करने की अनवरत मुहिम जारी है, सर्वोपरि अल्पसंख्यकों पर दमन और मीडिया की मदद से समाज और राजनीति के पूरे विमर्श को लगातार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर केंद्रित रखने का अभियान रात-दिन जारी है ताकि जन-जीवन के ज्वलंत सवाल एजेंडा बनने ही न पाएं। इसके लिए वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को हर सम्भव तरीके से तोड़-मरोड़ रहे हैं, संवैधानिक संस्थाएं compromised हैं।
आज हालत यह है कि हमारे लोकतंत्र के सारे pillars ध्वस्त पड़े हैं। मोदी जी विदेश में जाकर लोकतंत्र के लिए अपनी पीठ चाहे जितनी ठोंक लें, सच्चाई यह है कि उनके राज में भारत में लोकतंत्र आज केवल form में बचा है, उसका essence खत्म हो चुका है।
वैसे तो अब हर दिन ही देश में लोकतंत्र के लिये अपशकुन बन कर आता है, पर इस बार Emergency day खास रहा।
इमरजेंसी डे के दिन ही तीस्ता सीतलवाड़ को गिरफ्तार कर लिया गया, तीस्ता पिछले 20 वर्षों से post-Godhra गुजरात में हुई हिंसा के पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ने वाली योद्धा हैं।
तीस्ता की गिरफ्तारी के साथ देश 8 वर्ष से जारी दमनचक्र के एक बिल्कुल नए दौर ( phase ) में, लोकतंत्र व संवैधानिक मूल्यों पर हमले के अगले चरण में प्रवेश कर गया है।
देश के न्यायिक इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कोर्ट गए याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्रवाई का आदेश हुआ है। याचिकाकर्ताओं को कठघरे में खड़ा करने की मांग स्वयं न्यायालय ने की थी। सत्ता प्रतिष्ठान तो जैसे इस फैसले का इंतज़ार ही कर रहा था। पहले गृहमंत्री अमितशाह ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए तीस्ता का नाम लेकर हमला बोला, और फिर गुजरात ATS ने अकल्पनीय तेजी दिखाते हुए तीस्ता को गिरफ्तार कर लिया। तीस्ता के साथ ही एक बेदाग छवि के पूर्व पुलिस अधिकारी श्रीकुमार को भी गिरफ्तार किया गया है, संजीव भट्ट पहले से ही में जेल में हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना को 300 से ज्यादा वकीलों और एक्टिविस्टों ने एक पत्र लिखकर उनसे स्वतः संज्ञान लेने तथा यह स्पष्ट करने की अपील की है कि "याचिकाकर्ताओं के सम्बंध में न्यायालय के फैसले का पैरा किसी प्रतिकूल परिणाम के इरादे से नहीं था।"
" इस कार्रवाई से ऐसा लगता है कि अगर कोई भी याचिकाकर्ता या गवाह, जो कोर्ट में जाता है, अगर उसकी याचिका खारिज होती है, तो उस पर जेल जाने का खतरा मंडराने लगेगा। पत्र में कहा गया है कि कानून के मुताबिक, किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई भी कार्रवाई उचित नोटिस देने के बाद ही शुरू की जा सकती है। कोर्ट ने इस मामले में किसी को भी न तो झूठी गवाही और न ही अवमानना का नोटिस जारी किया, न ही कोर्ट ने किसी को कोई चेतावनी दी। "
पत्र में याद दिलाया गया है कि इमरजेंसी के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे लोगों को जेल में नहीं डाला था, जिन्होंने कानूनी प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने की मांग की थी। पत्र पर सीनियर एडवोकेट्स चंद्र उदय सिंह, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, संजय हेगड़े और सुप्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा सहित अन्य लोगों के हस्ताक्षर हैं।
क्या विपक्ष मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व लोकतान्त्रिक आंदोलनों के साथ खड़ा होगा?
रुक्मिणी सेन जो वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीस्ता को हिरासत में लिए जाने के समय उनके घर से लेकर अहमदाबाद में अदालत के पुलिस कस्टडी के आदेश तक उनके साथ ही थीं, बेहद निराशा के साथ पूछती हैं, " मैं भारतीय संविधान की सिपाही अपनी दोस्त तीस्ता सेतलवाड़ के लिए चिंतित हूँ। मुझे बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए? हमको क्या करना चाहिए? मैं जानना चाहती हूं कि विपक्ष क्या करेगा? क्या नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ खड़ा होना और उनकी रक्षा करना राजनैतिक दलों का काम नहीं है, क्या कांग्रेस इसको बिल्कुल ही भुला चुकी है? क्या वाम दल, वकील और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता ही खुले तौर पर इसका विरोध करेंगे? "
आज सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न यही है, जो लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर नागरिक को मथ रहा है। आज जिस तरह का हमला है, उसके प्रतिकार में विपक्ष इतना निष्क्रिय क्यों है ? अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों पर विपक्ष की अवसरवादी चुप्पी का कारण तो स्पष्ट है, पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, नागरिक-लोकतान्त्रिक आंदोलन पर बढ़ते हमलों के खिलाफ भी वे रस्मी बयानबाजी से आगे बढ़ने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि असह्य महंगाई और जानलेवा बेरोजगारी के सवाल पर भी वे जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए कोई गम्भीर प्रयास करते नहीं दिख रहे हैं।
ऐसे आंदोलनों से न सिर्फ सत्ता के निरंकुश हमले का प्रतिकार होता और जनता को राहत मिलती, बल्कि समाज और राजनीति का एजेंडा बदलता और विभाजनकारी विमर्श पीछे जाता। पर मुख्य राष्ट्रीय विपक्ष तथा अन्य क्षेत्रीय दलों की "करो या मरो " वाली सक्रियता केवल तभी दिखती है जब स्वयं उनके नेताओं पर हमला होता है।
क्या विपक्ष लोकतंत्र व संविधान की रक्षा के लिए एकताबद्ध होकर अपनी राष्ट्रीय भूमिका में खड़ा होगा और नागरिक समाज, जनसंगठनों व आंदोलनों के जारी प्रतिरोध को संगठित राजनीतिक स्वर देगा ?
इसी पर आने वाले हिंदुस्तान की तकदीर निर्भर है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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