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विचार-विश्लेषण: क्या भाजपा का अभियान भारत को अखंड बनाता है?

दिलचस्प यह है कि सावरकर ने दो राष्ट्रों के सिद्धांत में अपनी आस्था को व्यावहारिक स्तर पर भी लागू कर लिया था। उन्होंने हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के गठबंधन की सरकार बनवाई थी।
India

हर घर तिरंगा अभियान और विभाजन की विभीषिका को याद करने के कार्यक्रम के राजनीतिक उद्देश्य साफ हैं। आजादी के अधूरे होने की शिकायत तो बहुत लोग करते रहे हैं, लेकिन इसे लांछित करने का काम सिर्फ संघ परिवार करता है। वह आजादी के आंदोलन को परिभाषित करते समय यह आत्ममंथन नहीं करता है कि उसके पुरखों ने हिस्सा नहीं लिया है, बल्कि लड़ने वालों को ही अपमानित करता रहा है। सच पूछिए तो वह अभी भी तीस के दशक की राजनीति में उलझा हुआ है। इसका तात्कालिक निशाना भले ही कांग्रेस तथा जवाहरलाल नेहरू हैं, लेकिन अंतिम निशाना मुसलमान ही हैं। संघ को साबित करना है कि उन्होंने ही विभाजन मांगा और देश को बंटना पड़ा।

इसी आख्यान का हिस्सा है यह समझ है कि सारे मुसलमान मुस्लिम लीगी थे और हिंदू महासभा सारे हिंदुओं का रहनुमा। इसके साथ ही यह झूठ भी जुड़ा है कि हिंदू महासभा तथा आरएसएस अखंड भारत के लिए लड़ रहे थे और देश का बंटवारा मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओ ने कराया। इससे सबसे बड़ी विपक्षी पाटी को निपटाने में भले ही आसानी हो जाए, यह संस्कृति और इतिहास ही नहीं समाज को खंडित करता है। उनका रवैया अखंड भारत की रहनुमाई करने के हिंदुत्ववादियों के दावे को सवालों के घेरे में लाता है।

उनके अखंड भारत की रहनुमाई के दावे को खारिज करते हुए डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है, ‘‘हम गलती नहीं करें। अखंड भारत का सबसे तेज आवाज में नारा लगाने वाले वर्तमान का जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी के पहले का नाम) और हिंदू धर्म की अहिंदू भावना अभिव्यक्त करने वाले उनके पूर्ववर्तियों ( हिंदू महासभा तथा आरएसएस) ने भारत को विभाजित करने में अंग्रेजों तथा मुस्लिम लीग की मदद की। उन्होंने एक राष्ट्र के भीतर मुसलमान और हिंदुओं को नजदीक लाने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि उन्हें एक दूसरे से दूर करने के लिए लगभग सब कुछ किया। दो समुदायों के बीच का यही अलगाव विभाजन का मूल कारण बना।’’

लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग राष्ट्र मानने और मुसलमानों के खिलाफ आग उगलते रहने के साथ ही हिदुत्ववादी अखंड भारत का भी नारा लगाते रहे हैं। हम विनायक दामोदर सावरकर के नागपुर में 15 अगस्त 1943 की प्रेस कांफ्रेंस में देख सकते हैं जिसमें उन्होंने घोषणा की थी कि उन्हें जिन्ना के दो राष्ट्रके सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। वह कहते हैं, ‘‘पिछले 30 सालों से हम भारत की भौगोलिक एकता की विचारधारा के आदी हो चुके हैं और कांग्रेस भारत की इस एकता का सबसे मजबूत वकील रही है, लेकिन मुस्लिम अल्पसंख्यक जो एक के बाद एक सहूलियत मांगते रहे हैं, कॉम्युनल अवार्ड के बाद अचानक यह दावा लेकर आ गए हैं कि वे एक अलग राष्ट्र है। मुझे मिस्टर जिन्ना के दो राष्ट्र के सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। हम हिंदू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक सच है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं।’’

लेकिन सावरकर ने यह भी जोड़ दिया था कि हिंदू महासभा उन लोगों को सहयोग का हाथ बढ़ाती है जो चार सिद्धातों को मानते हैं, जैसे कि भारत की क्षेत्रीय एकता, प्रांतों तथा केंद्र में बहुसंख्यकों का शासन, शेष का अधिकार केंद्र के पास और सरकारी नौकरियां मेरिट के आधार पर।

दिलचस्प यह है कि सावरकर ने दो राष्ट्रों के सिद्धांत में अपनी आस्था को व्यावहारिक स्तर पर भी लागू कर लिया था। उन्होंने हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के गठबंधन की सरकार बनवाई थी।

यहीं यह भी जान लेना जरूरी है कि ठीक हिंदुत्ववादियों की तर्ज पर यह बताया जाता है कि जिन्ना विभाजन नहीं चाहते थे और पाकिस्तान की मांग का इस्तेमाल सिर्फ मुसलमानों को वाजिब हक दिलाने की सौदेबाजी के लिए कर रहे थे। इसमें कांग्रेस पर ही मुसलमानों के सवाल की अनदेखी का दोष मढ़ा जाता है। पाकिस्तान की इतिहासकार आयशा जलाल समेत कई इतिहासकार इसी सोच को आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. इश्तियाक अहमद ने इसे सिरे से खारिज किया है। वह मानते हैं कि जिन्ना ब्रिटिश सरकार के इशारे पर काम कर रहे थे। वह जिन्ना पर लिखी अपनी किताब में कहते हैं, ‘‘अंग्रेजों से जिन्ना की यारी को कम कर के आंका जाता है या इसे उनकी रणनीतिक सोच का प्रमाण बता कर उनकी झूठी तारीफ की जाती है। चर्चिल की भूमिका या ब्रिटिश सेना, आम तौर पर ब्रिटिश सत्ताधारी, का कोई उल्लेख नहीं होता जो सोवियत कम्युनिज्म को रोकने के लिए आगे की पंक्ति के राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के निर्माण की योजनाकार थे।’’

इस बात पर कम ही गौर किया जाता है कि हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों ही संगठन 1937 के बाद इतने सक्रिय क्योें हो गए? इसकी एक वजह तो ब्रिटिश सरकार की शह थी जो कांग्रेस की बढ़ती ताकत से परेशान थी। उसके लिए जरूरी हो गया था कि दोनों ओर के सांप्रदायिक संगठनों का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में हो जो अंग्रेंजों के वफादार थे। जिन्ना जो लंदन में बस गए थे, मुंबई लौट आए थे। उधर मदनमोहन मालवीय जैसे कांग्रेस से बेहतर संबंध रखने वाले नेताओं के हाथ से बागडोर छूट चुकी थी और सावरकर जैसे अंग्रेजपरस्तों ने हिंदू महासभा की कमान थाम ली थी।

कांग्रेस की जमींदारी के विरोध में बनी नीतियों ने साप्रदायिक संगठनों को ज्यादा सक्रिय कर दिया क्योंकि लीग और महासभा दोनों जमींदारों की सरपरस्ती में चलती थीं। जिन्ना के संदर्भ में डॉ. इश्तियाक अहमद लिखते हैं, ‘‘कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में नेहरू ने जमींदारों का विशेषाधिकार खत्म कर किसानों की तकलीफ दूर करने का अभियान चलाने की घोषणा की और इसके साथ ही सोवियत यूनियन से प्रेरित उनकी समाजवादी दृष्टि थी। इसने खतरे की घंटी बजा दी। जिन्ना ने सेंट्रल असेंबली में इसका विरोध किया।’’

कांग्रेस ने 1937 के चुनावों में मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा दोनों को धूल चटा दी, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के आते ही परिस्थितियां एकदम बदल गई। कांग्रेस ने आजादी की मांग तेज कर दी और संघर्ष में उतर आई। दूसरी ओर, सावरकर और जिन्ना दोनों ही अंग्रेजों की मदद में लग गए। साल 1939 में जब प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया तो सावरकर वायसराय लार्ड लिनलिथगो से मिले। लिनलिथगो ने लंदन भेजी गई अपनी रिपोर्ट में इसका ब्यौरा दिया है। सावरकर ने वायसराय से कहा कि ब्रिटिश सरकार और उनके हित एक हैं और उन्हें साथ मिल कर काम करना चाहिए।

यह सहयोग ऐसा चला कि सावरकर ने अंग्रेजोें की मदद के लिए तीन प्रांतों- बंगाल, सिंध तथा पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, में मुस्लिम लीग को मंत्रिमंडल बनाने में सहयोग किया बल्कि अंग्रेजी सेना में भरती का अभियान भी जमकर चलाया। सावरकर ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय असेंबली से लेकर नगरपालिकाओं में विभिन्न स्थानों पर बैठे हिंदू महासभा के नेताओं से अपने पद पर बने रहने का आदेश दिया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जो बंगाल के मंत्रिमंडल में थे, ने तो भारत छोड़ो के विद्रोह से निपटने को लेकर गर्वनर को पत्र भी लिखा।

सबसे दिलचस्प तो यह है कि जिस नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम लेते संघ परिवार नहीं थकता, सावरकर ने आजाद हिंद फौज के खिलाफ ब्रिटिश सेना में भर्ती का अभियान तेज कर दिया था, खासकर बंगाल तथा असम में, जिस रास्ते अजाद हिंद फौज के सिपाही भारत को आजाद कराने आ रहे थे।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान की मांग को सभी मुसलमानों का समर्थन था। इस बारे में इतिहासकार और नाट्यकर्मी शमसुल इस्लाम ने गहन शोध की है। उन्होंने लिखा है, "यह सच है कि भारत का बंटवारा मुसलमानों के लिए अलग देश की मुस्लिम लीग की मांग के कारण हुआ। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की बड़ी संख्या को अपनी मांग के पक्ष में जमा करने में सफल हो गई थी। लेकिन यह भी सच है कि मुसलमानों का एक बड़ा तबका तथा उनके संगठन पाकिस्तान की मांग के खिलाफ खड़े रहे। बंटवारे की मांग करने वाले मुसलमानों को वैचारिक चुनौती दी और सडकों पर उनका सामना किया।’’

ऐसे वक्त पर जब आजादी के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का अभियान जोरों से चल रहा है, उन मुसलमानों की याद दिलाना जरूरी है जिन्होंने मुस्लिम लीग का विरोध किया और भारत की एकता के लिए डट कर खड़े रहे।

पाकिस्तान की सोच का कितना विरोध मुसलमानों के बीच था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 25 मार्च 1940 को लाहौर में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया और ठीक महीने भर बाद अप्रैल 1940 में देश के दर्जनों मुस्लिम संगठन दिल्ली में जमा हुए और इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया। उन्होंने एक विशाल जुलूस भी निकाला। सिंध के मुख्यमंत्री, जो उस समय प्रधानमंत्री कहलाते थे, अल्ला बख्श इस सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा,‘‘ हमारा कोई भी मजहब हो, हमें अपने देश में पूरी तरह मेल-जोल से रहना चाहिए और हमारा आपस में रिश्ता एक वैसे संयुक्त परिवार के भाइयोें की तरह होना चाहिए जिसके संदस्य अपनी पसंद के मजहब पर अमल करने के लिए स्वतंत्र हों और वे परिवार की साझा मिल्कियत का बराबर फायदा ले सकें।’’

उन्होंने घोषणा की कि सार्वभौम और पूरी तरह स्वतंत्र राज्य के रूप में बने रहने के भारत केे अधिकार को ब्रिटेन चनौती नहीं दे सकता और इसलिए यहां के लोग अगर अपना संविधान बनाना चाहते हैं तो उसे इसमें बाधा नहीं डालनी चाहिए।

अल्ला बख्श के भाषण में न केवल मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि होने के मुस्लिम लीग के दावे और दो राष्ट्र के सिद्धांत को चुनौती दी गई है बल्कि अखंड भारत की ऐसी तस्वीर पेश की गई है जो इसके साझे इतिहास और संस्कृति की राष्ट्रभक्ति से भरी व्याख्या करती है तथा एक आधुनिक लोकतंत्र की भावना से प्रेरित है। यह भारत की औपनिवेशिक तस्वीर और मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा की सांप्रदायिक तथा संकीर्ण सोच से एकदम अलग है। ऐसे स्वतंत्र भारत की कल्पना हिदुत्ववादियों ने कभी नहीं की और मुस्लिम लीग तो ऐसे भारत को विभाजित करने के खुले एजेंडे पर ही चल रही थी।

अल्ला बख्श कहते हैं ,‘‘कोई एक अलग क्षेत्र नहीं बल्कि पूरा हिंदुस्तान सभी भारतीयों की मातृभूमि है और इसकी एक इंच भूमि से भी उसे वंचित करने का अधिकार किसी भी हिंदू या मुसलमान को नहीं है। वे जो एक मुसलमानों के कुछ खास तबकों के लिए अलग तथा सीमित मातृभूमि की बात करते हैं, वे, अगर चाहें तो हिंदुस्तान की नागरिकता का त्याग करने के लिए स्वतंत्र हैं।

अखंड भारत की अल्ला बख्श जैसे देशभक्तोें की कल्पना की तुलना सावरकर जैसे हिंदुत्ववादियों के कल्पना से करना चाहिए। सावरकर तथा आरएसएस के अखंड हिंदुस्तान में सिर्फ भूमि एक होगी, लेकिन मुसलमान तथा ईसाई दूसरे दर्जे के नागरिक होंगे। इतिहास भी साझा नहीं और न ही संस्कृति साझी।

गोलवलकर ने कहा है कि विदेश से आए लोगों के सामने दो ही विकल्प हैं। वे राष्ट्रीय नस्ल में अपने को विलीन कर दें और इसकी संस्कृति अपना लें और बहुसंख्यक आबादी की संस्कृति और अचार-विचार को पूरी तरह अपना लें या तब तक उसकी दया पर रहें जब तक वह इसकी इजाजत दें और उसकी इच्छा होने पर देश छोड़ दे।’’

कौन अल्पसंख्यक स्वीकार करेगा कि वह बहुसंख्यक आबादी के रहमो-करम पर रहे। पाकिस्तान इन्हीं सिद्धांतों पर बना था तो वहां के हिंदू अल्पसंख्यकों को वहां से भागना पड़ा। इन विचारों के रखने वाले अखंड भारत की कल्पना किस आधार पर कर सकते हैं। आधुनिक युग में नागरिक से कम का दर्जा सिर्फ नाजीवादी तथा धार्मिक कट्टरपंथियों के देश में ही संभव है और इस तरह के मुल्कों का अस्तित्व बना रहना नामुमकिन है।

लेकिन अल्ला बख्श अकेले नहीं थे जिन्होंने मुस्लिम लीग को चुनौती दी। मोमिन कॉन्फ्रेंस के अब्दुल क्यूम अंसारी ने मुस्लिम लीग के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी। मौलाना मदनी समेत कई उलेमा भी इस तरह के अभियानों में लगे थे। पाकिस्तान का विरोध करने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान तथा मौलाना आजाद का नाम तो हर कोई जानता है, लेकिन अनेक लोगों को हम भूल जाते हैं। उनमें शेख अब्दुल्ला भी शामिल हैं। लार्ड माउंटबेटन तथा महात्मा गांधी की यात्रा के बाद भी जम्मू कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत में विलय करने से मना कर दिया था और पाकिस्तान के साथ यथास्थिति का समझौता कर लिया था। हिंदू महासभा की प्रांतीय इकाई महाराजा के साथ थी। कबाइलियों के जरिए जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले के बाद भी महाराजा भारत से सैनिक सहायता तो चाहते थे, लेकिन विलय के लिए तैयार नहीं थे। शेख अब्दुल्ला ने विलय के पक्ष में दबाव बनाया और पाकिस्तानी मुजाहिदीनों को भगाने में भारतीय सैनिकों के साथ कंधे से कंध मिला कर लड़ाई लड़ी। शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में जिन्ना को कभी पैर जमाने नहीं दिया। वह दो राष्ट्र के सिद्धात के प्रबल विरोधी थे। विभाजन के समय कश्मीर घाटी में कोई दंगा नहीं हुआ और गांधी जी ने कहा था कि कश्मीर पूरे भारत को रोशनी दे रहा है।

कश्मीर की बात आई तो हमें पाकिस्तानी हमलावरोें को खदेड़ने वाले ब्रिगेडियर उस्मान को नहीं भूलना चाहिए। उत्तर प्रदेश के रहने वाले सेना के इस अफसर ने पाकिस्तान की सेना में बड़ा ओहदा लेने सेे इंकार कर दिया और भारतीय फौज में आ गया। कश्मीर की जंग में उन्होंने अहम भूमिका निभाई थी और शहीद हो गए। उनकी अंतिम यात्रा में तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगापेालाचारी तथा प्रधानमंत्री नेहरू समेत मंत्रिमंडल के सदस्य उपस्थित थे। संघ परिवार और भाजपा की इतिहास- दृष्टि भारत को अखंड नहीं बनाती है।

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