ओपनहाइमर की विडंबना: विज्ञान की ताक़त और वैज्ञानिकों की कमज़ोरी
ओपनहाइमर पर आयी नयी ब्लाकबस्टर फिल्म ने उस पहले नाभिकीय बम की यादों को ताजा कर दिया है, जिसे हिरोशिमा पर गिराया गया था। इसने उस समाज के संबंध में जटिल सवाल खड़े कर दिए हैं, जो इस तरह के बमों के विकास, उनके इस्तेमाल और उनके जखीरे जमा किए जाने की इजाजत देता है, जबकि ये बम हमारी इस दुनिया को एक नहीं, कई-कई बार नष्ट कर सकते हैं। क्या कुख्यात मैकार्थी युग और हर जगह सुर्खों (reds ) या वामपंथियों को चुन-चुनकर निशाना बनाए जाने का, उस समाज के रोगशास्त्र या विकृति से कोई संबंध है, जिसने हिरोशिमा तथा नागासाकी पर एटमी बम गिराने के अपने अपराध-बोध को दबा दिया और उसकी जगह पर अपने एक अपवाद होने के विश्वास को बैठा लिया। एटम बम बनाने के अमेरिका के मैनहट्टन प्रोजेक्ट से एक हीरो बनकर उभरे, ओपनहाइमर के आगे चलकर एक खलनायक बन जाने और अंतत: भुला दिए जाने के पूरे रूपांतरण को, हम कैसे समझ सकते हैं?
एटम बम और अमेरिकी अपराध बोध!
मुझे, जापान पर दो एटमी बम गिराए जाने पर अमेरिकी अपराध बोध से, अपनी पहली मुठभेड़ की याद आ रही है। सन् 1985 की बात है, जब मैं कैलीफोर्निया में मोंटेरी में, डिस्ट्रीब्यूटेड कंप्यूटर कंट्रोल्स पर एक कान्फ्रेंस में हिस्सा ले रहा था। हमारी मेजबान थी, लारेंस लिवरमोर लेबोरेटरीज़। यह एक युद्क प्रयोगशाला है, जिसने हाइड्रोजन बम बनाया था। रात्रि भोज के दौरान, एक परमाणु वैज्ञानिक की पत्नी ने, वहां मौजूद जापानी प्रोफेसर से पूछा कि क्या जापानियों की समझ में आ गया है कि अमेरिकियों को जापान पर एटम बम क्यों गिराना पड़ा था? इससे दसियों लाख अमेरिकी जानें बच गयी थीं। और उससे भी ज्यादा जापानी जानें! क्या वह उस अपराधबोध से छुटकारे की तलाश में थी, जो सभी अमेरिकियों के हिस्से में आता है? क्या वह इसी पुनर्पुष्टि की तलाश कर रही थी कि उसे जो बताया गया था और जो वह मानती आयी थी, वाकई सही था? कि एटम बम के शिकार बने जापानी भी वैसा ही मानते हैं?
मैं ओपनहाइमर फिल्म की बात नहीं कर रहा हूं। उसका तो मैं सिर्फ एक बहाने के तौर पर प्रयोग कर रहा हूं, इसकी चर्चा करने के लिए क्यों एटम बम, समाज में अनेकानेक दरारों का प्रतिनिधित्व करता था। यह दरारें सिर्फ युद्ध के स्तर पर ही नहीं थी। उस मामले में तो यह नया हथियार युद्ध के प्रतिमानों को पूरी तरह से बदलता ही है। यह इसके पहचाने जाने का भी मामला है कि विज्ञान यहां से सिर्फ वैज्ञानिकों की ही चिंता-फिक्र का विषय नहीं रह जाता है बल्कि हम सब के लिए ही चिंता का विषय बन जाता है। वैज्ञानिकों के लिए यह इसका भी सवाल बन गया कि प्रयोगशालाओं में वे जो कुछ करते हैं, उसके हमारी वास्तविक दुनिया के लिए क्या नतीजे होंगे और इन नतीजों में संभावित रूप से मानवता का ही विनाश भी शामिल है। इसने इस सच्चाई को भी सामने ला दिया कि यह एक नया युग है, महा-विज्ञान का युग और इस महा-विज्ञान के लिए भारी रकम की जरूरत होती है।
यह काफी विचित्र है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर में नाभिकीय बम-विरोधी आंदोलन की रीढ़ बने वैज्ञानिकों में दो सबसे आगे के नाम ऐसे वैज्ञानिकों के हैं, जिनकी मैनहट्टन प्रोजेक्ट को शुरू कराने में एक बड़ी भूमिका रही थी। लियो जिलार्ड ने, जो एक हंगेरियाई वैज्ञानिक थे, जिन्होंने पहले इंग्लेंड में तथा आगे चलकर अमेरिका में शरण ली थी, आइंस्टाइन की मदद से राष्ट्रपति रूजवेल्ट तक इसकी प्रार्थना पहुंचवाई थी कि अमेरिका को एटम बम बनाना चाहिए। उन्हें इस बात का डर था कि अगर नाजी जर्मनी ने पहले एटम बम बना लिया तो वह सारी दुनिया पर जीत हासिल कर लेगा। जिलार्ड, मैनहट्टन प्रोजेक्ट में शामिल हुए थे, हालांकि वह इस प्रोजेक्ट के लिए लॉस अलमोस में नहीं बल्कि शिकागो यूनिवर्सिटी की मैटलर्जिकल लैबोरेटरीज से काम कर रहे थे। जिलार्ड ने, एटम बम का जापान पर इस्तेमाल किए जाने से पहले, इसका डिमान्स्ट्रेशन किए जाने के लिए, खुद मैनहट्टन प्रोजेक्ट के भीतर ही अभियान चलाया था। आइंस्टीन ने भी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से इसकी अपील के साथ संपर्क करने की कोशिश की थी कि एटम बम का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन, उनकी यह अपील राष्ट्रपति तक पहुंचने से पहले ही, राष्ट्रपति रूजवेल्ट की मृत्यु हो गयी और उपराष्ट्रपति ट्रूमैन ने उनकी जगह ले ली। ट्रूमैन का मानना था कि एटम बम से नाभिकीय क्षेत्र में अमेरिका की इजारेदारी कायम हो जाएगी और इस तरह वह युद्धोत्तर परिदृश्य में सोवियत संघ को अपने सामने झुकाने में कामयाब हो जाएगा।
मैनहट्टन प्रोजेक्ट की कहानी
मैनहट्टन प्रोजेक्ट पर लौटें। इस प्रोजेक्ट का पैमाना, आज के मानकों से भी दंग कर देने वाला था। जब यह प्रोजेक्ट अपने शीर्ष पर था, इसमें 1,25,000 लोग तो सीधे-सीधे काम कर रहे थे। और अगर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एटम बम के लिए पुर्जे या उपकरण बनाने में लगे उद्योगों को भी जोड़ लिया जाए तो, इस प्रोजेक्ट में काम करने वालों की संख्या 5 लाख के करीब बैठेगी। पुन: लागत भी बहुत भारी थी। 1945 में इसकी लागत थी 2 अरब डालर यानी आज के हिसाब से करीब 30-50 अरब डालर। इस प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों में भी शीर्षस्थ नाम थे, जैसे हान्स बेथे, एनरिको फेमी, नील्स बोह्र, जेम्स फ्रेन्क, ओपनहाइमर, एडवर्ड टैलर (जो बाद में इस कहानी के खलनायक बन गए), रिचर्ड फेनमान, हैरॉल्ड उरे, क्लॉस फख्श (जिन्होंने एटम बम संबंधी कुछ राज सोवियतों तक पहुंचाए थे) और दूसरे भी अनेक चमकते हुए सितारे। दो दर्जन से ज्यादा नोबल पुरस्कार विजेता, विभिन्न हैसियतों में इस पोजैक्ट के साथ जुड़े रहे थे।
लेकिन, विज्ञान तो इस परियोजना का एक छोटा हिस्सा भर था। मैनहट्टन प्रोजेक्ट दो प्रकार के बम बनाने का प्रयास था। एक में यूरेनियम 235 आइसोटोप का इस्तेमाल होना था और दूसरे में प्लूटोनियम का। विखंडनीय सामग्री, यू 235 और यू 238 को अलग कैसे किया जाए? वैपन्स ग्रेड के प्लूटोनियम को कैसे संकेंद्रित किया जाए? औद्योगिक पैमाने पर ये दोनों काम कैसे किए जाएं? चेन रिएक्शन कैसे स्थापित किया जाए, जिससे विखंडन पैदा हो और उसके माध्यम से सब-क्रिटिकल विखंडनीय सामग्री को इकट्ठा कर क्रिटिकल परिमाण पैदा किया जा सके? इस सब के लिए धातुविज्ञानियों, रसायन विज्ञानियों, इंजीनियरों, विस्फोटक विशेषज्ञों को साथ लाने की जरूरत थी और सैकड़ों अगल-अलग ठिकानों पर फैली उत्पादन सुविधाओं से, पूरी तरह से नये संयंत्र तथा उपकरण गढ़े जाने की जरूरत थी। और यह सब रिकार्ड रफ्तार से करने की जरूरत थी। यह एक वैज्ञानिक तजुर्बा था, लेकिन तजुर्बा प्रयोगशाला के पैमाने पर नहीं बल्कि औद्योगिक पैमाने पर किया जा रहा था। इसीलिए, इसमें विशाल बजट लगा था और बहुत विशाल श्रम शक्ति लगी थी।
एटम बम का प्रयोग और उसके बाद
अमेरिकी सरकार ने अपने नागरिकों को समझा दिया था कि हिरोशिमा पर और उसके तीन दिन बाद नागासाकी पर एटम बम गिराने से ही, जापान ने युद्ध में आत्मसमर्पण किया था। अभिलेखागारीय तथा अन्य साक्ष्यों के आधार पर यह साफ है कि नाभिकीय बमों से ज्यादा, सोवियत संघ के जापान के खिलाफ युद्ध का एलान करने ने, जापान के आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार किया था। अभिलेखागारीय साक्ष्य यह भी दिखाते हैं कि हिरोशिमा तथा नागासाकी पर बम गिराए जाने से, अमेरिका पर जापान के हमले को रोके जाने और इस तरह ‘दस लाख अमरीकी जानें बचाए जाने’ के दावों का भी कोई आधार नहीं है। यह आंकड़ा तो शुद्ध रूप से प्रचार के उद्देश्य से ही उछाला गया था।
एक ओर तो ये आंकड़े गंभीर गणनाओं के रूप में अमेरिकी जनता के सामने परोसे जा रहे थे और दूसरी ओर, दोनों एटमी बमों के शिकार हुए लोगों की वास्तविक तस्वीरें पूरी तरह से सेंसर की जा रही थीं। हिरोशिमा पर बम गिराए जाने के बाद की इकलौती तस्वीर--मशरूम क्लाउड--एनोला गाए के गनर द्वारा ली गयी तस्वीर थी। नाभिकीय बमबारी के महीनों बाद, हिरोशिमा तथा नागासाकी की कुछ तस्वीरें जारी तो की गयी थीं, लेकिन ये तस्वीरें भी बम से ध्वस्त इमारतों की ही थीं। इनमें बम के शिकार हुए मनुष्यों की एक भी तस्वीर नहीं थी।
जापान पर जीत के जश्न में डूबा अमेरिका नहीं चाहता था कि नाभिकीय बम की भयावहता की तस्वीरों से, उसकी जीत के जश्न का मजा किरकिरा हो। एटमी बम गिराए जाने के बाद से लोगों के रहस्यमय बीमारी से दम तोडऩे की खबरों को, उसने जापानी प्रचार कहकर खारिज कर दिया, जबकि अमेरिका जानता था कि यह नाभिकीय विकीरण के कुप्रभावों का मामला है। मैनहट्टन प्रोजेक्ट के अगुआ, जनरल लेस्ली ग्रोव्स के शब्दों को उद्धत करें तो, ये तो ‘टोक्यो की कहानियां’ थीं! मानवीय तबाही की तस्वीरें सामने आने में सात साल लग गए और वह भी तभी हुआ जब जापान के ऊपर से अमेरिका का कब्जा हट गया। तब भी इस त्रासदी की चंद तस्वीरें ही सामने आ पायी थीं क्योंकि जापान तब भी नाभिकीय बम की विभीषिका पर पर्दा डालने में अमेरिका को सहयोग दे रहा था।
हिरोशिमा में जो कुछ हुआ था, उसका पूरा चित्रात्मक आख्यान सामने आने के लिए दुनिया को साठ के दशक तक इंतजार करना पड़ा। इसके बाद ही दुनिया ने एटम बम की पूरी विभीषिका का महसूस किया--क्षण भर में भाप बनकर उड़ गए और जिस पत्थर पर बैठे थे उस पर बस राख से बने चित्र के रूप में छप गए पूरे के पूरे इंसान, जीवित बच रहे ऐसे लोग जो जब चलते थे, उनकी त्वचा शरीर से कपड़े की तरह लटकती थी, नाभिकीय विकिरण से बीमार होकर मरते लोग।
पहले हीरो बनाया फिर नीचे गिराया
नाभिकीय बम की कहानी का दूसरा हिस्सा, वैज्ञानिकों की भूमिका का था। वे हीरो बन गए, जिन्होंने युद्ध को जल्दी खत्म करा दिया था और 'दस लाख अमेरिकी जानें बचायी थीं!’ इस मिथक निर्माण के क्रम में, नाभिकीय बम को औद्योगिक स्तर के एक विशाल प्रयत्न की जगह, एक गोपनीय फार्मूले के मामले में तब्दील कर दिया गया, जिसे चंद वैज्ञानिकों ने खोज निकाला था और इस तरह युद्धोत्तर दौर में अमेरिका के हाथों में जबर्दस्त ताकत सोंप दी थी। यही चीज थी जिसने ओपनहाइमर को अमेरिकी जनता की नजरों में एक हीरो बना दिया था। वह वैज्ञानिक समुदाय और उसकी देवतुल्य शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। और वह टैलर जैसे लोगों के लिए निशाना भी बन गए, जिन्होंने बाद में ओपनहाइमर को नीचे गिराने के लिए आपस में हाथ मिला लिए थे।
लेकिन, जो ओपनहाइमर चंद साल पहले तक अमेरिकियों का हीरो था, उसे कुछ ही वर्षों में ये लोग नीचे गिराने में कैसे कामयाब हो गए?
अमेरिका के अंतर्विरोध
आज यह कल्पना करना आसान नहीं है, पर दूसरे विश्व युद्ध से पहले तक, अमेरिका में एक ताकतवर वामपंथी आंदोलन मौजूद था। वहां मजदूरों के आंदोलन में तो कम्युनिस्टों की मौजूदगी थी ही, बुद्धिजीवियों की दुनिया में--साहित्य, सिनेमा तथा भौतिकीविदों आदि के बीच--भी कम्युनिस्टों की खासी प्रबल मौजूदगी थी। यूके में जिस तरह जेडी बरनाल विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी को नियोजित किए जाने की पैरवी कर रहे थे, उसी प्रकार अमेरिका में भी अनेक वैज्ञानिक इस विचार के थे कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी का उपयोग, लोक कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। इसीलिए, भौतिकीविद यानी फिजिसिस्ट, जो उस समय विज्ञान की दुनिया के विकास में सबसे आगे थे--सापेक्षता, क्वांटम मैकेनिक्स आदि--विज्ञान की दुनिया में और विज्ञान के संबंध में, सामाजिक व राजनीतिक बहसों में भी सबसे अगली कतारों में थे।
विज्ञान की यही दुनिया, एक आलोचनात्मक विश्व दृष्टि, उस नयी दुनिया से टकराती थी, जहां अमेरिका को राष्ट्र के रूप में एक अपवाद माना जाना था और उसे इकलौता वैश्विक प्रभु होना था। इस वर्चस्व में कोई भी कमजोरी अगर नजर आती थी, तो उसके पीछे एक ही वजह हो सकती थी कि इस राष्ट्र से गद्दारी करने वाले ‘हमारे’ राष्ट्रीय राज, दूसरों तक पहुंचा रहे थे! यहां से आगे दुनिया में कहीं भी कोई भी विकास, इस राष्ट्र से राज़ की चोरी से ही हो सकता था और किसी भी तरह से नहीं। इस अभियान में इस धारणा से भी मदद मिलती थी कि एटम बम तो वैज्ञानिकों के दिमाग से निकले कुछ समीकरणों का ही नतीजा था और ये फार्मूले आसानी से दुश्मनों तक पहुंचाए जा सकते थे!
मैकार्थी युग और सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ का उदय
इसी से अमेरिका में वह मैकार्थी युग निकला था, जो अमेरिका के कलाकार, अकादमिक तथा वैज्ञानिक समुदायों के खिलाफ, युद्ध ही चलाए जाने का दौर था। यह हर जगह, हर कोने में, दुश्मनों के जासूसों की तलाश का दौर था। यही समय था जब अमेरिका में सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ (कॉम्प्लैक्स) का जन्म हो रहा था और वह जल्द ही वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को अपने हाथों में लेने जा रहा था। यहां से आगे वैज्ञानिकों की और उनके अनुदानों की नियति, सैन्य व ऊर्जा--नाभिकीय ऊर्जा--बजट से ही तय होने जा रही थी। ऐसे में ओपनहाइमर को सजा दी जानी जरूरी थी, ताकि दूसरों के लिए सबक हो। आइंदा कोई वैज्ञानिक सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के प्रभुओं और विश्व पर प्रभुत्व की उनकी संकल्पनाओं के खिलाफ खड़े होने की जुर्रत नहीं करे।
ओपनहाइमर के हीरो के दर्जे से नीचे गिराए जाने ने एक और उद्देश्य भी साधने का काम किया। यह वैज्ञानिक समुदाय के लिए इसका सबक था कि अगर उसने राज्य सुरक्षा का रास्ता काटा तो, समझ ले कि कोई भी उसकी ताकत के सामने बहुत बड़ा नहीं है। हालांकि, रोजेनबर्ग जोड़ी--जुलियस तथा ईथल--को सजा दी गयी थी, पर उनका वैज्ञानिक समुदाय में उतना भारी वजन नहीं था। ईथल हालांकि कम्युनिस्ट थीं, उनका किसी जासूसी से कुछ लेना-देना नहीं था। कोई भी नाभिकीय राज ‘‘लीक’’ करने वाला इकलौता शख्स, क्लॉस फख्श था। वह जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था, जो भाग कर यूके चला आया था और जिसने पहले यूके में एटमी प्रोजेक्ट में काम किया था और बाद में मैनहट्टन प्रोजेक्ट में हिस्सा लेने पहुंची ब्रिटिश टीम के हिस्से के तौर पर काम किया था। नाभिकीय बम के ट्रिगरिंग तंत्र के विकास में उन्होंने महत्वपूर्ण योग दिया था और यह जानकारी सोवियत पक्ष के साथ भी साझा की थी। फख्श से मिली मदद ने, बहुत से बहुत सोवियत बम की यात्रा को एक साल छोटा किया होगा। कुल मिलाकर अनेक देशों ने बाद में यह दिखाया कि एक बार जब दुनिया को विखंडनीय बम की संभावनाओं का पता चल गया, उसके बाद वैज्ञानिकों तथा तकनीकविदों के लिए बम बनाना, ज्यादा मुश्किल नहीं था। उत्तरी कोरिया जैसे छोटे देश तक ने यह कर दिखाया है।
वैज्ञानिकों को उनकी औक़ात बता दी
ओपनहाइमर की त्रासदी यही नहीं थी कि मैकार्थी युग में उनका उत्पीडऩ हुआ था और उनका सुरक्षा क्लीअरेंस छीन लिया गया था। आइंस्टीन को तो कभी भी उक्त सुरक्षा क्लीअरेंस हासिल नहीं था और इसलिए इस क्लीअरेंस के छिनने का, ओपनहाइमर के लिए भी बहुत बड़ी आफत होने का कोई कारण नहीं था। ओपनहाइमर का दिल तोड़ दिया उस सार्वजनिक तिरस्कार ने, जो उन्हें सुरक्षा क्लीअरेंस के छीने जाने के खिलाफ अपनी अपील पर सुनवाई के दौरान झेलना पड़ा था। भौतिकीविदों को, जो एटमी युग के देवदूत थे, सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ की उभरती हुई दुनिया में, आखिरकार उनकी औकात बता दी गयी थी।
आइंस्टीन, जिलार्ड, रोटब्लाट तथा अन्य कई वैज्ञानिकों ने पहले ही इस दुनिया का पूर्वानुमान कर लिया था। ओपनहाइमर के विपरीत उन्होंने, नाभिकीय बम के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने का रास्ता अपनाया था। एटमी बम बना लेने के बाद, वैज्ञानिकों को अब इस बम के समूची मानवता के नष्ट करने की संभावनाओं के संदर्भ में, दुनिया की अंतरात्मा का रखवाला बनना पड़ रहा था। एटमी बम की यह तलवार तो आज भी एक बारीक धागे से हमारे सिर पर लटक रही है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें
Oppenheimer Paradox: Power of Science, Weakness of Scientists
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