अर्थशास्त्र से सधेगी राजनीति: श्रम मुद्दे बनाने होंगे प्रमुख चुनावी मुद्दे
क्या श्रम मुद्दे प्रमुख चुनावी मुद्दे बन सकते हैं? 2023-24 में, जो कि लोकसभा के लिए आम चुनाव का वर्ष भी है, प्रमुख श्रमिक मुद्दे क्या हैं? क्या उनके चुनावी मुद्दों में बदल देने की संभावना है, जो कम से कम वेतनभोगी और मज़दूरी पाने वाले श्रमिकों की सघनता वाले क्षेत्रों में सत्तारूढ़ भाजपा से भारी संख्या में वोटों को स्विंग करा सकते हैं? यदि नहीं, तो क्या वे एक जबरदस्त व आकर्षक अभियान के मुद्दों के रूप में सामने आ सकेंगे ?
इन सवालों के जवाब देने से पहले, हमें उन तमाम श्रम मुद्दों में से प्रमुख मुद्दों की पहचान करने की जरूरत है, जिन्हें चुनाव की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा सकता है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच आम सहमति यह है कि बेरोजगारी और मूल्य वृद्धि दो प्रमुख मुद्दे होंगे। अब बेरोजगारों में दो प्रकार होते हैं- 1) वे जो काम कर रहे थे और जिनकी किसी कारण से नौकरी चली गई; और 2) जो काम की तलाश में हैं और काम नहीं पा रहे हैं।
मूल्य वृद्धि यानी महंगाई आबादी में हर किसी को प्रभावित कर सकती है लेकिन मजदूरी अर्जित करने वाले और वेतनभोगी श्रमिकों के लिए यह एक विशेष आयाम ग्रहण कर लेती है - मजदूरी का क्षरण, जिसे वास्तविक मजदूरी में क्षरण भी कहा जा सकता है। कुछ अध्ययनों से यह भलीभांति स्थापित हो चुका है कि भारत में महंगाई भत्ता (डीए) पाने वालों को कीमतों में वृद्धि के लिए पूर्ण निराकरण (neutralization) नहीं मिलता है। फिर, लाखों असंगठित श्रमिकों को डीए तक नहीं मिलता। इसलिए मूल्य वृद्धि के प्रभाव के खिलाफ उन्हें निष्प्रभावन (neutralization)का एक अंश भी नहीं मिलता। तो दोनों ही मामलों में, मूल्य वृद्धि का मुद्दा वेतन वृद्धि की मांग में बदल जाता है।
आइए देखें कि इस चुनावी वर्ष में भारत में ये मुद्दे क्या आकार लेते हैं—
सबसे पहले, हम बेरोजगारी को लेते हैं। सभी विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि रोजगार सृजन की वर्तमान दर से बेरोजगारों के बैकलॉग को दूर करने में कई साल लगेंगे और इस बीच श्रम बल में शामिल होने वाले नए लोगों के लिए आवश्यक नए रोजगार की संख्या भी बढ़ेगी। चलिये देखें रोजगार पैदा करने वाले महत्वपूर्ण क्षेत्र कौन से हैं और वहां कौन से श्रमिक मुद्दे उभर रहे हैं?
दो मुख्य क्षेत्र जहां हाल के वर्षों में भारत में रोजगार का विस्तार हो रहा था, आईटी क्षेत्र और गिग वर्कर्स (ज्यादातर ई-कॉमर्स डिलीवरी वर्कर्स) थे। आइए हम प्रत्येक में रोजगार परिदृश्य की समीक्षा करें।
आईटी और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में रोज़गार के रुझान
पहला, आईटी और अन्य आईटी क्षेत्र, जो मध्यम वर्ग के लिए ड्रीम सेक्टर थे, जिनमें अकेले आईटी सेक्टर ने पिछले तीन दशकों में 51 लाख लोगों को रोजगार दिया; अब मध्यम वर्ग का यह सपना टूट रहा है।
वैश्विक तकनीकी मंदी और तकनीकी छंटनी की परिणामी लहर का भारतीय आईटी क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ा है और 2022 में भारत में लगभग 20,000 कर्मियों की छंटनी हुई थी। कई गैर-आईटी तकनीकी कंपनियां और तकनीकी स्टार्ट-अप्स जैसे क्रेड (Cred), मीशो (Meesho), और डंजो (Dunzo) ने उभरते निराशाजनक कारोबारी (business) माहौल के अनुरूप अपने कर्मचारियों की संख्या में भी कटौती की है। रिपोर्ट्स बताते हैं कि टेक स्टार्ट-अप्स ने 2022 में लगभग 5000 कर्मचारियों की छंटनी की।
भारत में आईटी छंटनी कथित तौर पर 2023 में कम हो गई है लेकिन वह जारी है। कुछ उद्योग पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह केवल सुस्ती का दौर है और जब अमेरिका और यूरोप में प्रमुख तकनीकी केंद्रों से परे मंदी आएगी और सामान्य रूप से पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी तो बड़े पैमाने पर फिर से लेऑफ और छंटनी शुरू होगी।
वैसे भी, 2022 में लगभग 25,000 छंटनी के अतिरिक्त, यदि हम अन्य हाई-टेक क्षेत्रों और स्टार्ट-अप्स को शामिल करते हैं, तो भारत में 2023 के पहले 4 महीनों में इतनी ही संख्या में श्रमिकों ने अपनी नौकरी खो दी। पहली नजर में लग सकता है कि 51 लाख के कुल आईटी रोजगार में से यह केवल 1 प्रतिशत का निम्न आंकड़ा है।
लेकिन समग्र आईटी नौकरियों में नया विस्तार न होने की पृष्टभूमि में देखा जाए, तो ये छंटनी के आंकड़े महत्व रखते हैं। यह देखते हुए कि आईटी उद्योग ज्यादातर हैदराबाद, बंगलुरु, पुणे, चेन्नई और एनसीआर में केंद्रित हैं, आईटी छंटनी का मध्यम वर्ग के बीच सामाजिक प्रभाव भी पड़ता है। इन शहरों में, लगभग दो में से एक मध्यवर्गीय परिवार में कोई-न-कोई सदस्य या कोई करीबी रिश्तेदार आईटी क्षेत्र में कार्यरत है, और वे अपने जीवन स्तर पर नौकरी खोने के प्रभाव को महसूस करते हैं। काम में लगे कई कर्मचारियों को भी इस बात का डर सताने लगा है कि आगे उनकी नौकरी जा सकती है। बैंक, बीमा और टेलीकॉम आदि क्षेत्रों में पारंपरिक सफेदपोश रोज़गार सुरक्षित थे। पर इस अनुभव के विपरीत, नौकरी में यह नई अनिश्चितता मध्यम वर्ग के लिए एक नया और कड़वा अनुभव है।
क्योंकि नई आईटी नौकरियों के सृजन में गिरावट आई है, रोजगार के लिहाज से इस क्षेत्र में स्थिति गंभीर बन गई है। हाल ही में जेपी मॉर्गन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022 में भारत में आईटी क्षेत्र में सृजित नई नौकरियों में पिछले वर्ष की तुलना में 60,000 की गिरावट आई है। फोर्ब्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में शीर्ष 4 आईटी कंपनियों ने सिर्फ 1940 कर्मचारियों की शुद्ध वृद्धि की है, जो दो वर्षों में सबसे कम है! आईटी का ग्लैमर भरा सपना भी चरमरा गया है क्योंकि इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि नए रंगरूटों को 50% कम वेतन पर नौकरी की पेशकश की जा रही है। 10-20 फीसदी की दर से वेतन वृद्धि भी घट रही है।
आईटी कर्मचारियों ने परंपरागत रूप से ट्रेड यूनियनों से अपने आप को दूर रखा है, इसलिए तकनीकी मंदी और छंटनी की लहर का सामना करते हुए भी वे अपने हितों को स्पष्ट और संगठित रूप से अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हैं। जब नौकरी से निकाल दिया जाता है, तो उन्हें प्रति वर्ष सेवा के 15 दिनों का वेतन भी नहीं मिलता, जो कारखाने के श्रमिक को मिलता है क्योंकि आईटी कर्मचारी औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act) के तहत नहीं बल्कि दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम (Shop and Establishment Act) के अंतर्गत आते हैं। यदि विपक्षी दल प्रति वर्ष सेवा के लिए छंटनी या लेऑफ कम्पेन्सेशन के रूप में 2 महीने के वेतन की पेशकश करने वाला कानून लाने का वादा करते हैं, तो वे वास्तव में मध्यम वर्ग की संवेदनाओं को जगा सकते हैं।
बिना किसी क़ानूनी अधिकार के 1 करोड़ गिग वर्कर्स
यदि यह मध्य वर्ग का अनुभव है, तो चलिये देखें नव-मध्य वर्ग (neo-middle class) और निम्न मध्य वर्ग का क्या अनुभव रहा है? गिग जॉब्स इन वर्गों के लिए रोजगार का मुख्य स्रोत था। जून 2022 में गिग वर्कर्स पर नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 77 लाख गिग वर्कर्स हैं। हालांकि कुछ टिप्पणीकारों को लगता है कि यह कम आंकलन था, क्योंकि रिपोर्ट में मुख्य रूप से संगठित क्षेत्रों में गिग वर्कर्स की गिनती की गई थी, न कि अनौपचारिक क्षेत्रों में गिग वर्कर्स की। वैसे भी, उनका अनुमान है कि अब यह आंकड़ा 1 करोड़ तक पहुंच गया होगा और न केवल निर्माण श्रमिकों की संख्या से आगे निकल गया होगा (जो खेतिहर मजदूरों के बाद कार्यबल में दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है) बल्कि उनकी संख्या 51 लाख से लगभग दोगुनी हो गई है। अगले पांच वर्षों में यह आंकड़ा 2 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है।
कानूनी तौर पर इन 1 करोड़ श्रमिकों के पास कामगार का दर्जा भी नहीं है। न केवल उनके पास नौकरी की सुरक्षा नहीं है, बल्कि उन्हें कोई वैधानिक लाभ भी नहीं मिलता और बेरोजगारों के बीच इन नौकरियों के लिए बढ़ती भीड़ के कारण उनकी मजदूरी भी कम हो रही है। वे अनिश्चित श्रमिकों (precarious) का सबसे सटीक प्रतीक हैं।
यदि विपक्षी दल इन श्रमिकों को कानूनी दर्जा देने का वादा करें और अपने घोषणापत्रों में इससे जुड़े सभी लाभ दिलाने की बात करें तो उन्हें दल के लिए समर्थन हासिल करने में काफी मदद मिलेगी।
रोजगार संकट के इन दो क्षेत्रों के अलावा, आय में गिरावट के सवाल पर विचार करें, जिसमें ग्रामीण और शहरी सभी क्षेत्रों के श्रमिकों को शामिल किया गया है।
एनएसएसओ (NSSO) की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में वास्तविक आय घट रही है। यहां हम किसानों के आय संकट को छोड़ दें और केवल कृषि और ग्रामीण श्रमिकों के मामले में आय की गिरावट पर ध्यान दें। वर्ष 2022 ऐसा वर्ष माना जाता था जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, विशेष रूप से कृषि क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन के कारण। लेकिन दुखद विडंबना यह है कि अच्छे प्रदर्शन के एक साल के अंतराल में ग्रामीण श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी यूक्रेन युद्ध के बाद खाद्य और ईंधन मुद्रास्फीति के कारण घट रही थी।
इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज (Inclusive Media for Change) द्वारा संकलित नीचे दी गई तालिका से, हम देख सकते हैं कि पूरे वर्ष के लिए ग्रामीण वास्तविक मजदूरी में 3% से अधिक की गिरावट आई है।
शहरी आय भी कम हो रही है
उसी एनएलएफएस (NLFS) सर्वेक्षण में यह भी दिखाया गया है कि शहरी आय में 4.2% की गिरावट आई है। विभिन्न पंचमकों (quintiles) के बीच शहरी मजदूरी के वितरण के सामान्य पैटर्न से, हम यह पता लगा सकते हैं कि कम आय वाले वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, जो एनएलएफएस रिपोर्ट में दिए गए 4.2% के औसत आंकड़े से कहीं अधिक पीड़ित होंगे।
उसी एनएलएफएस रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में, रोजगार की सामान्य स्थिति के अनुसार श्रम बल में 2.44 करोड़ व्यक्ति बेरोजगार थे और वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (weekly status) के अनुसार, जो मौसमी बेरोजगारी और अल्प-रोजगार को बेहतर ढंग से दर्शाता है, 3.93 करोड़ बेरोजगार थे।
वित्तीय वर्ष2023 में, 24 जनवरी 2023 तक, 6.49 करोड़ परिवारों ने MGNREGS (मनरेगा) के तहत रोजगार की मांग की, और 6.48 करोड़ परिवारों को रोजगार की पेशकश की गई। वर्तमान में, मनरेगा श्रमिकों को छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 210 रुपये से लेकर हरियाणा में 537 रुपये तक मिलता है। कई राज्यों में यह एक दिन में 250 रुपये के आसपास होता है। यदि इस मजदूरी को चौगुना कर दिया जाए तो 12-15 करोड़ ग्रामीण श्रमिकों को रोजगार का अच्छा अवसर और अच्छी आय प्राप्त होगी। तो मनरेगा के काम के लिए 1000 रुपये और मांग पर 150 दिन के काम का चुनावी वादा वास्तव में ग्रामीण गरीबों को उत्साहित करेगा और बेरोजगारी को लगभग खत्म करने में मदद करेगा।
चुनौती है श्रम मुद्दों का राजनीतिकरण करना
श्रम कानून सुधार, बेरोजगारी, और पेंशन अधिकारों सहित श्रमिकों के अधिकारों जैसे मुद्दों ने 2017 में फ्रांसीसी राष्ट्रपति चुनावों में प्रमुख भूमिका निभाई थी। ब्रिटेन में, जेरेमी कॉर्बिन के प्रतिनिधित्व वाली लेफ्ट पार्टी श्रम मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके ही प्रमुखता ग्रहण कर सकी। अमेरिका में भी, डोनाल्ड ट्रम्प ने विकासशील देशों से सस्ते आयात के खिलाफ संरक्षणवाद का वादा करके और भारत जैसे देशों में निवेश करने वाली अमेरिकी कंपनियों पर अंकुश लगाने और वहां रोजगार सृजित करने का वादा करके - दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद का सहारा लेकर जीत हासिल की। इन अनुभवों से भारतीय विपक्ष बहुत कुछ सीख सकता है। उन्हें कम से कम उत्पीड़ित मजदूर वर्ग की भारी संख्या के प्रति सजग व संवेदनशील होना चाहिए। आइये हम इसे समझें—
आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के आंकड़ों के अनुसार, 2020-21 में…
भारत में 28.86 करोड़ गैर-कृषि मजदूर और वेतनभोगी कर्मचारी हैं (उद्योग में 12.88 करोड़ और सेवाओं में 15.98 करोड़, ग्रामीण और शहरी दोनों)। इसमें 5.63 करोड़ कृषि श्रमिकों (2020-21 PLFS डेटा) को जोड़ा जाए तो हमें 34.49 करोड़ श्रमिक मिलते हैं। वे भारत के सर्वहारा वर्ग का गठन करते हैं। यह देखते हुए कि 2019 के लोकसभा चुनावों में 60.37 कोर मतदाताओं ने मतदान किया, शहरी और ग्रामीण सर्वहारा मतदाता भारत में कुल मतदाताओं के 50% से अधिक होंगे। यहां तक कि कांग्रेस जैसी उदार विपक्षी पार्टी भी उनकी ज्वलंत मांगों को केवल अपने जोखिम पर ही नजरअंदाज कर सकती है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी देखें तो, तमिलनाडु और गुजरात में अधिकांश लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र श्रम-बहुल हैं और अगर बागान मजदूरों को ध्यान में रखा जाए तो केरल और असम में भी यही स्थिति है। यदि महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा (खनन श्रमिक) के श्रमिक बहुल निर्वाचन क्षेत्रों, और बंगलुरु और तेलंगाना, व पंजाब और हरियाणा के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को ध्यान में रखा जाए, तो ऐसे क्षेत्र जहां श्रमिक वर्ग के मतदाताओं की संख्या लगभग 15-20% है, लगभग 150 होगी और इसलिए वे चुनाव परिणाम में निर्णायक भूमिका निभाएंगे।
वामपंथी दल इन श्रम मांगों के स्वाभाविक चैंपियन रहे हैं और उन्हें इन मांगों को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने के लिए कांग्रेस पर दबाव बनाना चाहिये। इन मुद्दों पर अभी से जोरदार प्रचार अभियान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को भी रोकेगा। श्रम संहिताओं को खत्म करने के वादे के अलावा, सभी विपक्षी दलों के सामान्य कार्यक्रम के बतौर एक 5 सूत्री श्रम चार्टर एक बेहतर विचार हो सकता है।
इसके अलावा, महिलाओं के वेतन में वृद्धि से कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी, जो कि बहुत नीचे गिर चुकी है, बढ़ सकती है । 2020-21 में, जबकि 390.05 करोड़ पुरुषों ने कार्यबल में भाग लिया, केवल 14.07 करोड़ महिलाएँ कार्यबल में थीं। और शहरी क्षेत्र में जबकि एक पुरुष कर्मचारी को मजदूरी के रूप में 411 रुपये मिल रहे थे, एक महिला कार्यकर्ता को केवल 273 रुपये मिल रहे थे। यह लैंगिक समानता के कानून के बावजूद हो रहा है। महिलाओं के लिए कम वेतन भुगतान को घरेलू हिंसा और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के समान एक संज्ञेय अपराध बनाने वाला कानून, जो ब्लॉक स्तर पर प्रवर्तन मशीनरी लागू करे, एक प्रमुख मांग है, जिसके लिए विपक्षी दलों को को प्रतिबद्ध होना चाहिए। इसके अलावा, दूसरी महत्वपूर्ण मांग जो लम्बे समय से टल रही है, वह है सभी स्कीम वर्कर्स को स्थायी सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाना।
इसी तरह, जबकि अप्रैल 2023 में समग्र बेरोजगारी दर 8.11% थी, हाल के महीनों में युवा रोजगार 30% के करीब हो गया है। इसलिए, 5000 रुपये प्रति माह बेरोजगारी भत्ता के वादे को सभी विपक्षी दलों के घोषणापत्रों में जगह मिलनी चाहिए।
यह देखना बाकी है कि भारतीय विपक्ष मजदूर वर्ग को केवल एक जाति-आधारित वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करता है या उनकी प्रमुख मांगों को अपने चुनावी एजेंडे के रूप में समर्थन देता है ।
(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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