तीसरी दुनिया की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाओं के लिए लेबनान संकट के मायने
लेबनान में जो दुखद घटनायें हो रही हैं,असल में वे पूरी तीसरी दुनिया के लिए आने वाले हालात का एक संकेत हैं। छोटा और बहुत हद तक आयात पर निर्भर रहने वाला यह देश काफ़ी समय से आर्थिक संकट की चपेट में है, क्योंकि विश्व में मंदी की रफ़्तार और ज़्यादा तेज़ हो गयी है।
इसके अलावा,कोरोनोवायरस संकट से लेबनान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह कंगाली की हद तक सिमट गयी है। असल में पर्यटन और खाड़ी और दूसरे देशों से आने वाले पैसे जैसे विदेशी मुद्रा के इसके दो प्रमुख स्रोत महामारी के कारण सूख गये हैं। इससे इसकी मुद्रा का बड़े पैमाने पर मूल्यह्रास हो गया है; अपनी विदेशी ऋण सेवा को जारी रख पाना नामुमकिन हो गया है, और लेबनान की आबादी की जीवन रेखा रही ज़रुरी वस्तुओं की आयात करने की इसकी क्षमता में गंभीर रूप से गिरावट आ गयी है।
नतीजतन, वहां ज़रुरी चीज़ों की भारी क़िल्लत हो गयी है और मुद्रास्फीति में बड़े पैमाने पर बढ़ोत्तरी हो गयी है और इसके 56% प्रति वर्ष होने का अनुमान है। इस समय 35% की अनुमानित बेरोज़गारी के साथ ग़रीबी में भारी बढ़ोत्तरी हुई है और देश की आधी आबादी आधिकारिक तौर पर ग़रीबी रेखा से नीचे है।
हालांकि, ये सभी परिघटनायें महामारी के पहले से ही मौजूद थीं,लेकिन महामारी ने उन्हें व्यापक तौर पर प्रभावित किया है। वे ऐसी परिघटनायें हैं,जो तक़रीबन तीसरी दुनिया के हर देश में पायी जा सकती हैं और ये देश उन्हीं नव-उदारवादी नीतियों का पालन करते हैं, जो विश्व अर्थव्यवस्था के साथ इन अर्थव्यवस्थाओं के भाग्य को मज़बूती से जोड़ती हैं।
लेबनान की सरकार को कम से कम 10-15 बिलियन डॉलर के विदेशी ऋणों की तत्काल ज़रूरत है, लेकिन चूंकि वह मार्च में अपने अंतर्राष्ट्रीय ऋण भुगतान की देनदारी से चूक गया है, इसलिए लेबनान को आने वाले दिनों में कोई नया ऋण नहीं मिलने वाला है। हैरत की कोई बात नहीं कि लेबनान की सरकार अलोकप्रिय हो गयी है; और इस अलोकप्रियता को लेबनान के आर्थिक मुश्किलों को लेकर बनायी गयी एक ऐसी अवधारणा से पोषित किया गया है,जो आम तौर पर उस "व्याप्त भ्रष्टाचार" पर दोष मढ़ती है,जिसके लिए सरकार और राजनीतिक वर्ग ज़िम्मेदार है।
कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार के पीछे की यह अवधारणा न तो नयी है और न ही चकित करने वाली और न ही झूठी है,लेकिन यह अवधारणा देश में मौजूद उस संरचनात्मक संकट से ध्यान को भटकाती है, जो विश्व अर्थव्यवस्था में नवउदारवादी नीतियों के चलते पैदा हुआ है और जो ख़ुद ही मंदी के आगोश में है।
यह सच है कि तीसरी दुनिया की बहुत सारी सरकारें भ्रष्ट हैं, लेकिन देश के इस संकट के कारण की भ्रष्टाचार की यह अवधारणा दो स्पष्ट कारणों से त्रुटिपूर्ण है। पहला कारण तो यह कि यह अवधारणा संकट की व्यापक प्रकृति की व्याख्या करने के लिए नाकाफ़ी है,क्योंकि हक़ीक़त तो यह है कि यह संकट महज़ तीसरी दुनिया के देशों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन्नत पूंजीवादी दुनिया के बहुत सारे देश भी इस संकट से प्रभावित हैं।
दूसरी बात कि व्याप्त भ्रष्टाचार अपने आप में इसी नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था की एक विशिष्टता है। ठीक है कि भ्रष्टाचार पहले भी था। यह भी सच है कि नियंत्रण के साथ चलने वाली पहले जैसी शासन व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार के लिए जगह थी; लेकिन जिस पैमाने पर इस समय भ्रष्टाचार है,वह शासन व्यवस्था का बड़े पैमाने पर निजीकरण किये जाने और पूंजीपतियों के लिए बड़े पैमाने पर देश के राजस्व का दरवाज़ा खोल दिये जाने का ही नतीजा है। सच्चाई तो यही है कि भ्रष्टाचार का यह पैमाना बाद में अपनायी गयी उस शासन व्यवस्था में बहुत बड़ा हो गया है, जिसे नवउदारवादी शासन व्यवस्था कहा जाता है।
इसी पृष्ठभूमि में व्यापक भ्रष्टाचार के चलते लोगों में सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा इस संकट को भड़काने वाला साबित हुआ और आख़िरकार जिसका नतीजा बेरूत में उस दुखद विस्फ़ोट के तौर पर सामने आया है। बेरुत के बंदरगाह के पास अमोनियम नाइट्रेट के एक ख़तरनाक भंडार में विस्फोट हो गया, जिससे 200 से अधिक लोग मारे गये, क़रीब 5,000 घायल हुए और बड़ी संख्या में लोग बेघर हो गये। इस घटना ने सरकार और राजनीतिक वर्ग के ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्से को बढ़ा दिया है, और लोग व्यवस्था में बदलाव के लिए सड़क पर उतर आये हैं। लोगों का पुलिस के साथ झड़पें हुई हैं, और अब तक इन झड़पों में लगभग 500 लोग घायल हुए हैं।
किसी संकटग्रस्त देश में शासन-व्यवस्था के बदले जाने की मांग कर रहे लोगों के ऐसे प्रदर्शन न तो हैरत पैदा करते हैं और न ही अभूतपूर्व है। लेकिन,इस प्रदर्शन जैसी घटनाओं की अहमियत यही है कि इसका इस्तेमाल साम्राज्यवाद द्वारा किया जाता रहा है।
धमाके के बाद बेरूत में उतरने वाले पहले बड़े नेता, फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन हैं, जिनका अपने पक्ष में ढिंढोरा पिटने के पीछे का मुख्य दावा यही है कि वे मरीन ले पेन से बेहतर हैं (उनके चुनाव को इस हक़ीक़त ने सुविधाजनक बना दिया था कि फ़्रांसीसी मतदाताओं ने फ़ासीवादी ले पेन की जगह ग़ैर-फ़ासीवादी मैक्रॉन को पसंद किया था)।
साम्राज्यवादी अहंकार के इस धमाकेदार प्रदर्शन ने दूसरे विश्व युद्ध से पहले के उन दिनों की याद को ताज़ा कर दी है, जब लेबनान फ़्रांसीसी औपनिवेशिक साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। मैक्रॉन ने लेबनान के लोगों के लिए सहायता का ऐलान कर दिया है,मगर इस शर्त पर कि लेबनान "राजनीतिक और आर्थिक सुधार" करे।
इसके बाद "लेबनान के लोगों को बहुत ज़्यादा नुकसान हुआ है" और "संयुक्त राज्य अमेरिका लंबे समय से आर्थिक समृद्धि और जवाबदेह शासन, भ्रष्टाचार और विदेशी दबाव से मुक्त लेबनान के लोगों का समर्थन करता रहा है" जैसे बयानों के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका भी इन प्रदर्शनकारियों के समर्थन में आ गया है।
मैक्रॉन का "राजनीतिक सुधार" और संयुक्त राज्य अमेरिका का "लेबनान के लोगों के प्रति जवाबदेह शासन को भ्रष्टाचार से मुक्त करने की कोशिश" का समर्थन करने का जो कुछ मायने है,वह है- लेबनान में एक ऐसी पश्चिमी शासन व्यवस्था की स्थापना करना,जो कि इज़राइल के अनुकूल हो, जो किसी भी सूरत में ईरान के समर्थन वाले हिज़्बुल्लाह द्वारा समर्थित मौजूदा शासन नहीं हो।
इसी तरह, मैक्रॉन के "आर्थिक सुधार" और संयुक्त राज्य अमेरिका के "लेबनान के लोगों की आर्थिक समृद्धि की तलाश" का समर्थन करने के मायने नवउदारवाद का परित्याग तो बिल्कुल नहीं है, बल्कि नवउदारवाद को लेकर एक निरंतर प्रतिबद्धता ही है। दूसरे शब्दों में, ये साम्राज्यवादी देश लेबनान को ऋण तभी देंगे, जब हिजबुल्ला समर्थित सरकार को हटा दिया जाता है और उसकी जगह पर नवउदारवाद के प्रति प्रतिबद्ध पश्चिमी और इज़रायल समर्थक सरकार स्थापित हो जाती है।
आइए एक पल के लिए हम मान भी लेते हैं कि साम्राज्यवादी देश जैसा चाहते हैं,वैसा ही हो जाता है। ऐसे में वे जिस बाहरी कर्ज़ का इंतज़ाम करेंगे, उसे कुछ समय बाद वापस भुगतान भी तो करना होगा। मगर,सवाल है कि ऐसे ऋण के भुगतान के लिए संसाधन कहां से आयेंगे ?
ठीक है कि इस महामारी का अंत होते ही पर्यटन की आय में कुछ सुधार होगा और बाहर से भेजे जाने वाले पैसे में भी बढ़ोत्तरी होगी। लेकिन,लेबनान का यह संकट महज़ महामारी के चलते नहीं पैदा हुआ है,बल्कि यह संकट महामारी से पहले का है, हालांकि यह संकट इस महामारी के चलते ज़्यादा गहरा ज़रूर हुआ है। आख़िरकार, हमने देखा था कि मार्च में ही अपने बाहरी ऋण को भुगतान करने में लेबनान चूक गया था। इसी प्रकार की घटनायें आगे तीसरी दुनिया के दूसरे देशों के साथ भी होती हुई दिखायी दे सकती है। यह संकट विश्व अर्थव्यवस्था की उस धीमी रफ़्तार से पैदा हुआ है, जो कि आने वाले दिनों में थमने वाली नहीं दिखती है। ऋण को चुकाने को लेकर जो पैसे चाहिए,उसके लिए जिन "कठोर" उपायों को अपनाना होगा, जिससे लोगों के हाथों में आने वाली आय कम हो जायेगी।
हालांकि ऋणों के उपलब्ध होने से भुगतान करने में कुछ हद तक अड़चनें कम होंगी और इसलिए मुद्रास्फीति की मौजूदा दर में कुछ हद तक कमी आयेगी, लोगों की आय कम होने से उठाया गया "कठोर" उपाय उन्हें एक अलग तरीक़े से नुकसान पहुंचायेगा।
इसके साथ ही तत्काल विदेशी ऋणों की ज़्यादा उपलब्धता के चलते नवउदारवादी नीतियों के अनुसरण के अलावा किसी भी दूसरे विकल्प की तलाश हतोत्साहित होगी। इसलिए, "आर्थिक समृद्धि" से दूर लेबनान का यह आर्थिक संकट आगे भी जारी रहेगा।
लेबनान का मामला इसलिए अहम है, क्योंकि इस देश की अनूठी ऐतिहासिक और भौगोलिक विशिष्टताओं के बावजूद, यह समग्र रूप से तीसरी दुनिया के लिए सांकेतिक महत्व रखता है। जैसे-जैसे तीसरी दुनिया के देश आर्थिक संकट से ग्रस्त होते जायेंगे, वैसे-वैसे साम्राज्यवाद एक ऐसी रणनीति अख़्तियार करता जायेगा, जिसकी रूप-रेखा लेबनान में पहले से ही दिखायी दे रही थी।
सबसे पहले, यह साम्राज्यवाद इस संकट के लिए तीसरी दुनिया की सरकारों के भ्रष्टाचार को दोषी ठहरायेगा,ताकि ये देश नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था की कमियों का बचाव कर सके। इस आरोप को कुछ विश्वसनीयता भी हासिल हो सकेगी, क्योंकि तीसरी दुनिया की अनेक सरकारें निर्विवाद रूप से भ्रष्ट हैं।
दूसरी बात कि इससे संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थायें नव-उदारवादी व्यवस्था के और क़रीब ले आयी जायेंगी। सर के ऊपर हो चुकी इन समस्याओं से निपटने के लिए यह साम्राज्यवाद उन देशों को ऋण उपलब्ध करायेगा, लेकिन यह कर्ज़ "सशर्त" होगा और यही शर्तें उन देशों को नवउदारवाद से और भी मज़बूती के साथ जकड़ लेंगी। इस प्रकार, नवउदारवाद से पैदा होने वाले इस संकट पर काबू पाने के नाम पर साम्राज्यवाद इन अर्थव्यवस्थाओं पर नवउदारवाद की पकड़ को और बढ़ायेगा।
तीसरी बात कि यह संकट और इस संकट से प्रभावित तीसरी दुनिया की सरकारों की लोकप्रियता में आने वाली भारी कमी का इस्तेमाल उन सरकारों की जगह एक ऐसी सरकार स्थापित करने में किया जायेगा,जो किसी भी लिहाज से नवउदारवादी सरकार से कम तो नहीं होगी,बल्कि पहले से भी कहीं ज़्यादा पश्चिमी समर्थक होगी, ताकि नवउदारवाद के चलते संकटगस्त हुए ये देश नवउदारवाद का ही अनुसरण करते रहें। संक्षेप में,साम्राज्यवाद तीसरी दुनिया पर अपनी पकड़ को और मज़बूत करने के लिए इस संकट का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा।
चूंकि इस तरह की रणनीति लोगों की स्थितियों में कोई सुधार नहीं ला सकती है,ऐसे में सोचा जा सकता है कि यह रणनीति शायद लंबे समय तक काम नहीं कर सके। लेकिन,पूंजीवाद की चिंता न तो लोगों की स्थितियों में सुधार को लेकर है और न ही लंबे समय में क्या होता है,इसे लेकर है। बल्कि यह चिंता तो नवउदारवादी व्यवस्था के तत्काल खतरों को लेकर है। अगर इस तरह के ख़तरों से निपटने के तरीक़ों से लोगों की हालत बदतर होती है, तो आगे भी ऐसा ही होगा।
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