राष्ट्रपति चुनाव 2022: नैतिक और वैचारिक बढ़त लेने से भी चूका विपक्ष
यह सही है कि इस समय देश में विपक्ष बेहद कमजोर स्थिति में है और विभिन्न कारणों से बंटा हुआ भी है। हालांकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल यानी संसद के दोनों सदनों और दो केंद्र शासित प्रदेशों सहित कुल 30 राज्यों की विधानसभाओं में उसका संख्याबल सत्ताधारी पक्ष के मुकाबले ज्यादा कमजोर नहीं है, फिर भी वह इस स्थिति में नहीं है कि राष्ट्रपति पद पर अपनी पसंद के उम्मीदवार को जितवा सके। लेकिन इसके बावजूद अगर वह चाहता तो इस सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए किसी साफ-सुथरी छवि के प्रतिष्ठित व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बना कर सत्ताधारी पक्ष के मुकाबले अपनी नैतिक बढ़त बना सकता था। लेकिन उसने यशवंत सिन्हा जैसे औसत दर्जे के नेता को उम्मीदवार बना कर सत्ताधारी पार्टी के मुकाबले अपनी नैतिक और वैचारिक हार मान ली।
केंद्र सहित झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और पूर्वोत्तर के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने पिछले सालों के दौरान ऐसा कुछ नहीं किया है जिससे लगे कि वह आदिवासियों की शुभचिंतक है और उनके मूलभूत अधिकारों का संरक्षण करते हुए उनका जीवन स्तर ऊंचा उठाना चाहती है। हां, इसके उलट जितने भी काम हो सकते हैं, वह सब हुए हैं। इसके बावजूद भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू को आदिवासी प्रतीक के तौर पर अपना उम्मीदवार बना कर एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है।
राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू का चुना जाना तय है। उनकी जगह भाजपा किसी और को भी उम्मीदवार बनाती तो उसके जीतने में भी कोई समस्या नहीं आती। लेकिन द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बना कर जहां एक ओर तो उसने यह जताने की कोशिश की है कि वह आदिवासियों की परम हितैषी है, वहीं उसने इस बहाने विपक्षी खेमे में सेंध लगा कर कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन भी द्रौपदी मुर्मू के लिए हासिल कर लिया।
इस सबके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि उसने 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में राजनीतिक जमीन को मजबूत करने का दांव भी चला है, क्योंकि इन तीनों ही राज्यों में संथाल जाति के आदिवासी बड़ी संख्या में निवास करते हैं और द्रौपदी मुर्मू भी इसी समुदाय से आती हैं।
दूसरी ओर भाजपा के बरअक्स विपक्षी दलों ने अपने उम्मीदवार का चयन करने में ज्यादा सोच-विचार नहीं किया। ले-देकर उन्हें सिर्फ गोपाल कृष्ण गांधी का ही नाम याद आया, जो पिछली बार उपराष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार थे। इस बार जब उन्होंने इनकार कर दिया तो एचडी देवगौड़ा, शरद पवार और फारूक अब्दुल्ला जैसे निस्तेज नामों पर विचार किया गया था लेकिन इन तीनों ने भी जब इनकार कर दिया तो ममता बनर्जी के सुझाव पर उनकी पार्टी के नेता यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बना दिया गया।
हालांकि जब उम्मीदवार चुनने को लेकर विपक्षी दलों के बीच बातचीत हो रही थी तब कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार उतारने का संकेत दिया था लेकिन बाद में कुछ दलों का नकारात्मक रूख देख कर उसने अपने कदम पीछे खींच लिए। मोटे तौर पर ममता बनर्जी और शरद पवार की सहमति से यशवंत सिन्हा का नाम तय हुआ। जिस समय सिन्हा का नाम तय हुआ उस समय लगभग सभी विपक्षी दलों ने सिन्हा के नाम पर सहमति जताई थी, लेकिन भाजपा की ओर द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का ऐलान होने के साथ ही ढीली-ढाली विपक्षी एकता में दरार पड़ गई।
बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां तो वैसे भी मौके-मौके भाजपा का साथ देती ही रही हैं, सो उनके सामने द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करने के सवाल पर कोई दुविधा नहीं थी। बीजू जनता दल के लिए तो यह क्षेत्रीय अस्मिता से जुड़ा मामला भी था क्योंकि द्रोपदी मुर्मू ओडिशा की हैं और बीजू जनता दल के नेतृत्व वाली सरकार में भाजपा की ओर से मंत्री भी रही हैं। औपचारिक तौर भाजपा के विरोध में बयानबाजी करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी मुर्मू के नाम का समर्थन करने में कोई देरी नहीं की। शुरुआत में यशवंत सिन्हा का समर्थन करने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा की भी अपनी स्थानीय राजनीति के जातीय समीकरण के चलते अब मजबूरी हो गई है कि वह द्रौपदी मुर्मू के रूप में आदिवासी उम्मीदवार का समर्थन करे। जबकि आम आदमी पार्टी ने अभी तक अपना रुख साफ नहीं किया है कि वह किसका समर्थन करेगी।
मगर जो विपक्षी दल यशवंत सिन्हा की पालकी के कहार बने हुए हैं, उनसे यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि आखिर यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का औचित्य या आधार क्या है? क्या उन्होंने सिर्फ इसलिए विपक्ष का चेहरा बनने की पात्रता हासिल कर ली है कि अब वे भाजपा छोड़ चुके हैं और भाजपा सरकार के खिलाफ लगातार बयान देते रहे हैं? आज जो पार्टियां विपक्ष में हैं, वे लगभग सभी 20 साल पहले भी विपक्ष में थीं और यशवंत सिन्हा अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वित्त मंत्री व विदेश मंत्री थे। कांग्रेस, वामपंथी और समाजवादी पृष्ठभूमि की पार्टियों को याद करना होगा कि उन्होंने तब यशवंत सिन्हा पर कैसे-कैसे आरोप लगाए थे। क्या भाजपा छोड़ देने के बाद वे उन आरोपों से मुक्त हो गए?
विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती हैं कि कोई भी आरोपी जैसे ही भाजपा में शामिल होता है, वह पवित्र हो जाता है तो वैसे ही क्या विपक्ष की नजर में भाजपा छोड़ने पर भी आरोपी पवित्र हो जाते हैं? यशवंत सिन्हा ने केंद्र में मंत्री रहते गुजरात दंगों पर कभी अपना मुंह नहीं खोला। यह भी कौन भूल सकता है कि 2012-13 के दौरान भाजपा के जो नेता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मुहिम छेड़े हुए थे, उनमें यशवंत सिन्हा भी एक थे। उनके वित्त मंत्री रहते हुए जो आर्थिक घोटाले हुए वे भी कम महत्वपूर्ण मामले नहीं हैं।
यशवंत सिन्हा के वित्त मंत्री रहते यूटीआई घोटाला हुआ था। वह ऐसा घोटाला था, जिसमें सरकारी खजाने की बजाय सीधा नुकसान आम आदमी को हुआ था। करीब 20 हजार करोड़ रुपए के उस घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनी थी और उस संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी मसौदा रिपोर्ट में इस घोटाले की जिम्मेदारी यशवंत सिन्हा पर डाली थी। आज के विपक्ष के कई बड़े नेता उस संयुक्त संसदीय समिति की जांच में शामिल थे। टैक्स हैवेन देशों से पैसे की राउंड ट्रिपिंग को लेकर भी उस समय उन पर कई आरोप लगे थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना कर विपक्ष ने अपनी नैतिक और वैचारिक कमज़ोरी को ही उजागर किया है।
यह सही है कि राष्ट्रपति के चुनाव में हमेशा ही सत्ता पक्ष का उम्मीदवार जीतता रहा है, इसके बावजूद विपक्ष ने पहले कभी ऐसा कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा जिसके साथ कई विवाद और गंभीर आरोप नत्थी हों। राष्ट्रपति पद के लिए 1952 में जब पहली बार चुनाव हुआ तब तो संसद और विधानसभाओं में संख्या बल के लिहाज से विपक्ष आज के मुकाबले भी बेहद कमजोर था, लेकिन उसने डॉ. राजेंद्र प्रसाद के मुकाबले संविधान सभा के सदस्य रहे उस समय के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री केटी शाह को अपना उम्मीदवार बनाया था।
राष्ट्रपति पद के लिए 1957 में दूसरे और 1962 में हुए तीसरे चुनाव में सत्ता पक्ष के उम्मीदवार क्रमश: डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. राधाकृष्णन के खिलाफ विपक्ष ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। 1967 में चौथे राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में सत्ता पक्ष के डॉ.जाकिर हुसैन के खिलाफ विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश कोटा सुब्बाराव को अपना उम्मीदवार बनाया।
जाकिर हुसैन का अपने कार्यकाल के दूसरे ही साल में निधन हो जाने की वजह से 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए पांचवां चुनाव हुआ, जिसमें सत्तारूढ़ कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी थे और उनके खिलाफ तत्कालीन उप राष्ट्रपति वीवी गिरि निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे। उस चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार का समर्थन न करते हुए परोक्ष रूप से वीवी गिरि का समर्थन किया और सभी सांसदों से अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील की। कई विपक्षी दलों ने भी वीवी गिरि को समर्थन दिया।
1974 में छठे राष्ट्रपति के रूप में फखरुद्दीन अली अहमद का चुनाव भी एकतरफा रहा था, लेकिन विपक्ष ने उनके खिलाफ साफ सुथरी छवि के विद्वान सांसद त्रिदिब चौधरी को मैदान में उतारा था, जो रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे। फखरुद्दीन अली अहमद का निधन भी अपने कार्यकाल के दौरान ही 1977 में हो गया, जिसकी वजह से नए राष्ट्रपति का चुनाव 1977 में ही कराना पड़ा।
सातवें राष्ट्रपति चुनाव के समय केंद्र में सत्ता परिवर्तन हो चुका था। पांच दलों के विलय से बनी जनता पार्टी सत्ता में थी और कांग्रेस विपक्ष में। इस चुनाव में जनता पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिन्हें कांग्रेस ने भी अपना समर्थन दिया था। यह एकमात्र ऐसा चुनाव रहा जिसमें राष्ट्रपति निर्विरोध चुने गए। 1982 में आठवें राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो चुकी थी। ज्ञानी जैल सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार थे जबकि विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा देने वाले जस्टिस एचआर खन्ना को अपना उम्मीदवार बनाया था।
1987 में नौवें राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस के आर.वेंकटरमण के खिलाफ भी विपक्ष ने सुप्रीम कोर्ट पूर्व न्यायाधीश और प्रतिष्ठित विधिवेत्ता वीआर कृष्ण अय्यर को मैदान में उतारा था। 1992 दसवें राष्ट्रपति के लिए हुए चुनाव में डॉ. शंकर दयाल शर्मा सत्ता पक्ष के उम्मीदवार थे और विपक्ष ने उनके खिलाफ मेघालय के वरिष्ठ सांसद और लोकसभा के डिप्टी स्पीकर रहे प्रो.जीजी स्वेल को अपना उम्मीदवार बनाया था। 1997 में ग्यारहवें राष्ट्रपति चुनाव में केआर नारायणन सत्ता पक्ष और विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार थे और उनके खिलाफ पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे थे, जिन्हें शिवसेना ने समर्थन दिया था।
साल 2002 में बारहवें राष्ट्रपति चुनाव के समय कांग्रेस विपक्ष में थी और भाजपा नीत एनडीए की सरकार थी। एनडीए ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर वामपंथी दलों के अलावा सभी पार्टियों को सहमत कर लिया था। वामपंथी दलों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल को अपना उम्मीदवार बनाया था।
2007 तेरहवें राष्ट्रपति का जब चुनाव हुआ तब कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में वापसी कर चुकी थी। उसने प्रतिभा पाटिल को अपना उम्मीदवार बनाया था, जिनके खिलाफ विपक्ष ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत को मैदान में उतारा था। 2012 में चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव में प्रणब मुखर्जी सत्ता पक्ष के उम्मीदवार थे और विपक्ष ने उनके खिलाफ पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा को अपना उम्मीदवार बनाया था। 2017 पंद्रहवें राष्ट्रपति समय भाजपा सत्ता में आ चुकी थी और उसने रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार बनाया था, जबकि विपक्ष की ओर पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार मैदान में थीं।
इस प्रकार राष्ट्रपति पद के लिए अब तक हुए सभी चुनावों में सिर्फ चौथे और पांचवें चुनाव को छोड़ कर बाकी सभी चुनाव एकतरफा ही रहे। लेकिन विपक्ष ने सभी चुनावों में साफ-सुथरी छवि और ऊंचे कद के व्यक्तियों को ही अपना उम्मीदवार बनाया, भले वे राजनीतिक रहे हों या गैर राजनीतिक। अलबत्ता सत्ता पक्ष के कतिपय उम्मीदवारों के साथ जरूर कुछ विवाद या आरोप जुड़े रहे। लेकिन इस बार पहला मौका है जब विपक्ष ने ऐसे नेता को उम्मीदवार बनाया है जिसका नैतिक और वैचारिक धरातल बेहद कमजोर है और कई आरोप उस पर चस्पा हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
ये भी देखें: देश में आखिर कैसे होता है राष्ट्रपति का चुनाव और क्या है चुनावों का इतिहास ?
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