सवाल: आख़िर लड़कियां ख़ुद को क्यों मानती हैं कमतर
पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के समाजशास्त्री डॉ. थॉमस ब्रेडा लड़कियों की प्रतिभा और उनके आत्मविश्वास से जुड़ा एक अध्ययन करते हैं। इस शोध के नतीजे न सिर्फ हैरान करने वाले हैं बल्कि कई सवाल भी उठाते हैं। दशकों से महिलाओं के आत्मविश्वास को बराबरी का दर्जा दिए जाने के लिए जितने भी संसाधन, लागत और प्रयास किये गए हैं उनके अनुपात में कामयाबी बहुत कम है। उससे ज़्यादा हैरान करने वाली बात ये है कि जिन विकसित देशों में महिलाओं को पुरुष के बराबर अधिकार मिला है, वहां के नतीजे और भी निराश करते हैं।
शोध पत्रिका 'साइंस एडवांस' के नवीनतम अंक में फ्रांसीसी विशेषज्ञों ने 72 देशों में औसतन 15 वर्ष की 500,000 से ज़्यादा लड़कियों के विस्तृत सर्वे के बाद ये नतीजे निकाले हैं। इस अध्ययन में पाया गया है कि दुनिया की ज्यादातर लड़कियां आज भी इम्तिहान में नाकाम हो जाने की वजह कम बुद्धि और दिमाग की सुस्ती को मानती हैं। जबकि ज्यादातर लड़के ऐसा नहीं सोचते हैं।
इस संबंध में नवीनतम सर्वेक्षण 2021 में पूरा किया गया था। हालांकि अभी इसके नतीजे जारी नहीं किए गए हैं। ये वैश्विक शोध में "प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट" (PISA) द्वारा 2018 में किए जाने वाले सर्वे के तहत किया गया था। इस सर्वेक्षण को करने का उद्देश्य गणित और विज्ञान में 15 वर्षीय छात्रों की रुचि का पता लगाना था। पीसा के आंकड़े बताते हैं कि 72 में से 71 देशों की लड़कियां खुद को लड़कों से कमतर मानती हैं। हैरानी की बात ये है कि इस सर्वेक्षण में सऊदी अरब की लड़कियों का आत्मविश्वास अन्य देशों की तुलना में ज़्यादा देखने को मिला। यहाँ की लड़कियों ने खुद को लड़कों की तरह सक्षम और बुद्धिमान बताया।
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प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट द्वारा किये जाने वाले इस शोध में डॉ. थॉमस ब्रेडा को जिस बात ने सबसे ज़्यादा अचम्भे में डाला वो थी इन देशों का सामाजिक माहौल जहां लड़के और लड़कियों को समान स्वतंत्रता मिली है। शोध में ये बात निकल कर सामने आई कि आज भी बराबरी का अधिकार दिए जाने के बावजूद दुनिया की ज्यादातर लड़कियों के मन में ये बात मज़बूती के साथ घर किये हुए है कि सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर लड़कियां लड़कों की तुलना में कमतर हैं।
ऐसे में जानकार एक नतीजा ये भी निकालते हैं कि जेंडर से जुड़ी प्रतिभा वाले स्टीरियोटाइप का सम्बन्ध कहीं न कही लिंग अंतराल से है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि लड़कियों द्वारा खुद को कम प्रतिभाशाली मानने वाली मान्यताओं ने उनके आत्मविश्वास की कमी को बरकरार रखा है। कहीं न कहीं ये बात उनके अंदर घर कर चुकी है कि वे कम प्रतिभाशाली हैं। लड़कियों का ये आहत आत्मविश्वास उन्हें आत्म-सुरक्षात्मक बना देता है। आत्मसुरक्षा की ये भावना उन्हें कमज़ोर करती है। ऐसे में लड़किया चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों और अवसरों से किनाराकशी करती हैं। परिणामस्वरूप वह बौद्धिक क्षमता से जुड़े अध्ययन और करियर से बचने की कोशिश करती हैं। अध्यन का खुलासा बताता है कि चुनौतीपूर्ण करियर से बचने वाले इन क्षेत्रों में खासकर गणित में करियर या आईसीटी डोमेन जैसे विषय होते हैं।
सर्वेक्षण में जिस एक बिंदु पर अधिकांश लड़कियों ने सहमति व्यक्त की वह इस तरह था - "जब मैं असफल हो जाती हूं, तो मुझे डर है कि मेरे पास सफल होने के लिए क्षमता नहीं है।" इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि ये लड़किया अपनी असफलता का कारण खुद में बुद्धि के अभाव को मानती हैं। दूसरी तरफ इसी बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए लड़कों का जवाब इसके बिलकुल उलट था। ऐसी किसी भी नाकामयाबी के लिए उन्होंने खुद को ज़िम्मेदार नहीं माना। बल्कि उन्होंने अपनी असफलता के लिए समय, परिस्थितियां या अन्य कारकों को जिम्मेदार ठहराया।
पीसा के इस शोध से मिलने वाले परिणाम ने फ्रांसीसी विशेषज्ञों सहित अन्य जानकरों को भी हैरानी के साथ चिंता में डाल दिया है। इस लोगों का मानना है की महिलाओं की आज़ादी के लिए की जाने वाली बेशुमार कोशिशों के बावजूद ये नतीजे चिंताजनक हैं। वर्षों से तमाम संगठित प्रयासों के बावजूद 21वीं सदी में पैदा हुई लड़कियां आज भी उन्हीं स्टीरियोटाइप से ग्रस्त हैं जो सदियों से मानवता को शर्मसार करती रही हैं।
ऐसे में ये सवाल भी सामने आता है कि यदि विकासशील देशों में कोई लड़की खुद को लड़के से कमतर समझती है, तो यह समझ में आता है। क्योंकि विकासशील देश आज भी पितृसत्ता के माहौल से छुटकारा नहीं पा सके है और आज भी यहां के समाज को तमाम रूढ़ियों से आज़ादी नहीं मिली है। मगर शोध के नतीजे कमोबेश यही स्थिति विकसित देशों में भी दर्शाते हैं। जबकि इन देशों में लड़कियों और लड़कों को बिल्कुल समान अधिकार और आज़ादी प्राप्त है। इन अधिकारों के बावजूद इन देशों में आज भी ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं? इस सवाल ने विशेषज्ञों को हैरान कर दिया है।
शोध पत्रिका 'साइंस एडवांस' के नवीनतम अंक में इस इस मुद्दे पर हैरान और चिंतित जानकार कहते हैं कि शायद ज़्यादा आज़ादी मिल जाने के बावजूद भी लड़कियां पारंपरिक रूढ़िवादों से जकड़े रहने में ज़्यादा सहूलियत महसूस करती हैं। उनका ये भी मानना है कि भले ही लड़कियों को कितनी भी आज़ादी दी जाए वह खुद को लड़कों से कमतर ही समझती हैं। या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि सामाजिक दबाव का कोई भी कार्य उनकी सोच में हस्तक्षेप नहीं करता है।
समाजशास्त्री तथा इस अध्यन के सह लेखक डॉ. थॉमस ब्रेडा अपना विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं - "जैसे-जैसे देश विकसित होते हैं, लगता है कि उसी प्रकार से लिंगभेद से जुड़े रीति-रिवाज ख़त्म नहीं होते बल्कि अपना रूप बदल लेते हैं।"
बहरहाल ये शोध कई सवाल खड़े करता है। जिनमे सबसे अहम सवाल यह है कि विकसित और जेंडर आधारित देशों की लड़कियां बिना किसी दबाव खुद को हीन क्यों महसूस करती हैं? इसका जवाब तलाशने के लिए एक नए अध्ययन की ज़रूरत ताकि इस फितरत की पड़ताल को और भी गहराई से जांचा और परखा जा सके।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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