राजस्थान चुनाव: स्वास्थ्य व्यवस्था और 'चिरंजीवी योजना' कितनी असरदार है?
राजस्थान, विधानसभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है। हिंदी पट्टी के इस प्रमुख प्रदेश में 200 सीटों के लिए 25 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। और नतीजें अन्य राज्यों के साथ ही तीन दिसंबर को आएंगे। पक्ष और विपक्ष की गरमाती सियासत के बीच इस प्रदेश की जनता के सामने स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर क्या दिक्कतें हैं और गहलोत सरकार की चिरंजीवी योजना कितनी कारगर है। न्यूज़क्लिक ने इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की।
बता दें कि राजस्थान सरकार ने 2020-21 के बजट में 'मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना' की घोषणा की थी। इसमें राज्य के सभी परिवारों को पाँच लाख रुपये तक का कैशलेस स्वास्थ्य बीमा देने की बात कही गई थी। हालांकि फिर इसे बाद में 15 लाख और अब 25 लाख रुपये तक कर दिया गया। इसमें आर्थिक रूप से ग़रीबों को बिना किसी प्रीमियम के यह बीमा मिलता है, जबकि अन्य सभी परिवारों को योजना का लाभ लेने के लिए 850 रुपये का वार्षिक प्रीमियम देना होगा।
पूरे भारत में लागू केंद्र सरकार की आयुष्मान योजना और राजस्थान के गहलोत सरकार की चिरंजीवी योजना में एक बेसिक फर्क है। आयुष्मान भारत योजना के तहत आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग यानी बीपीएल परिवार के लोग ही स्वास्थ्य चिकित्सा का लाभ उठा सकते हैं, साथ ही उसमें पांच लाख रुपये तक का सालाना बीमा होता है। वहीं, चिरंजीवी योजना में प्रत्येक परिवार को बीमा दिया जा रहा है, जिसमें राज्य के सभी परिवार और सभी आयवर्ग शामिल हैं।
राजस्थान का ज्यादातर अवाम चिरंजीवी को स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए एक वरदान के तौर पर देखती है। हालांकि अभी इसमें जमीनी सुधार की जरूरतें भी हैं, लेकिन फिर भी इससे गरीब लोगों को इलाज में काफी सहायता मिल रही है। इसके कवरेज को बढ़ाए जाने के बाद से इसकी लोकप्रियता में और भी तेजी देखी गई है। अब तक इस योजना से करीब1.35 करोड़ से अधिक लोग जुड़ चुके हैं। और इसका बड़ा कारण है कि राजस्थान में एक हज़ार प्राइवेट अस्पताल इस योजना से जुड़े हैं यानी सरकारी के साथ-साथ इन निजी अस्पतालों में भी चिरंजीवी बीमा के तहत इलाज हो सकता है।
स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता सुप्रिया सारड़ा बताती हैं कि इस योजना से लोगों को इलाज़ तो मिल रहा है। लेकिन कई जगह उनसे आधे या उससे कुछ कम पैसे भी वसूले जा रहे हैं। कई लोग सिर्फ ये सोचकर संतुष्ट हैं कि चलो कुछ पैसे तो बच रहे हैं। ऐसे में इस पूरी योजना को एक सख्त निगरानी की जरूरत है, जो अस्पतालों की सुविधाओं और गैर जरूरी इलाज पर भी नज़र रख सकें।
सुप्रिया के मुताबिक दूर-दराज़ के गाँव के लोगों में इस योजना की सही जानकारी और जागरूकता की ओर भी सरकार को ध्यान देना होगा। कहां शिकायत करनी है, कहां से मदद मिलेगी ये सब लोगों को पता होना चाहिए। इसके अलावा प्राइवेट सेक्टर के अस्पतालों के पैकेज को भी पूरी निगरानी में लेना चाहिए नहीं तो बीमा योजना का ग़लत दोहन होना बहुत आसान है।
सूरतगढ़, हनुमानगढ़, बाड़मेर समेत कई इलाके को लोगों का कहना है कि इस कैशलेस योजना से उन्हें लाभ मिला है। हालांकि इसमें कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें 15-20 हज़ार के इलाज में 3-4 हजार रुपए अपने भी लगाने पड़े हैं। इसके अलावा कई लोगों ने एक और समस्या बताई कि इस योजना के तहत कई इलाज जैसे कुछ चोटें या इलाज के लिए प्राइवेट अस्पताल मना कर देते हैं। इसके साथ ही छोटे बच्चों के लिए भी अस्पताल अनुमति नहीं देते। ऐसे में सरकार को इसे और स्पष्ट बनाने की जरूरत है।
कई लोगों का ये भी मानना है कि अब सरकारी अस्पतालों में इलाज खराब हो गया है। और इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं को आम लोगों तक पहुँचाने के लिए सरकार को भी निजी क्षेत्र का सहारा लेना पड़ रहा है, जो जमकर सरकारी पैसा लूट रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल में इलाज के नाम पर कई गैर जरूरी टेस्ट और अधिक दिन तक एडमिट आदि किया जा रहा है, जो एक तरीके से सरकारी पैसे की बर्बादी है।
ध्यान रहे कि इसी साल मार्च में राजस्थान में लाए गए 'स्वास्थ्य अधिकार बिल' को स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली कई स्वयंसेवी संस्थाओं का समर्थन मिला था। निजी क्षेत्र के विरोध के बावजूद कई संगठनों ने इसे मील का पत्थर बताया था। इसका कारण था कि हर व्यक्ति को इसके तहत इलाज की गारंटी मिल रही थी। और राजस्थान देश का पहला राज्य बन गया है जहां प्रदेश के प्रत्येक नागरिक का स्वास्थ्य का अधिकार मिला है। फिर सरकारी हो या प्राइवेट कोई भी अस्पताल इमरजेंसी हालात में मरीज़ को असहाय नहीं छोड़ सकता, न ही मनमानी पैसों की कोई वसूली हो सकती थी। हालांकि निजी अस्पताल के डॉक्टरों ने इसका जमकर विरोध भी किया था लेकिन बाद में इसमें कुछ संशोधन हुए, जिसे स्वास्थ्य सेवी संस्थाओं ने कमजोर बताया।
जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़ी छाया पचौली ने न्यूज़क्लिक से एक बातचीत में बताया था कि ये बिल लोगों की जरूरत है, जिस पर सरकार ने अब जाकर अमल किया है। हालांकि छाया ऐसे कई कारण बताती हैं, जिसके चलते ये बिल आने वाले समय में अपने मकसद में कमज़ोर साबित होगा और लोगों को कुछ दिक्कतों का भी सामना करना पड़ेगा।
छाया के मुताबिक इस बिल का वास्तविक रूप काफी हद तक सही था, जो संशोधन के बाद आम लोगों के लिए कुछ चिंताएं जरूर दे गया है। छाया बताती हैं कि इस बिल में कानून के तहत जवाबदेही और शिकायत निवारण प्रणाली को बहुत हद तक ध्वस्त कर दिया गया है। जिला और राज्य स्तर पर प्राधिकरण में केवल सरकारी अधिकारियों और आईएमए के चिकित्सकों का प्रतिनिधित्व है, जो एक अलोकतांत्रिक ढ़ांचे की तरह प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें किसी भी जन प्रतिनिधि, जन स्वास्थ्य प्रतिनिधि, नागरिक समाज के लोगों को शामिल नहीं किया गया, जो लोगों के मुद्दे सही तरीके से उठा सकें।
इसके अलावा छाया का कहना था कि पहले सरकार ने किसी भी अस्पताल या डॉक्टर के खिलाफ शिकायत के लिए वेब पोर्टल और हेल्पलाइन संबंधी व्यवस्था का प्रावधान किया था, लेकिन अब केवल लिखित में शिकायत दी जा सकती है और वो भी केवल उसी चिकित्सालय के प्रभारी को जहां की शिकायत है। ऐसे में लोग कितनी कंप्लेंट दर्ज करवा पाएंगे और उन पर क्या एक्शन होगा ये चिंता का विषय है।
छाया एक और जरूरी मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहती हैं कि इस बिल में केवल राजस्थान के निवासियों के इलाज का प्रावधान है यानी अगर कोई कहीं और से आकर यहां रह रहा है, या बंजारा, घुमंतू अन्य समुदाय से जिसके पास रेजिडेंस प्रूफ नहीं है, तो उसका इलाज इसमें कवर नहीं होगा। इस तरह का प्रावधान इस बिल को भेदभाव पूर्ण बनाता है,जो इसे सभी नागरिकों की पहुंच से दूर करता है।
गौरतलब है कि राजस्थान कई स्वास्थ्य मानकों जैसे शिशु मृत्यु दर, जन्म दर आदि के आधार पर पिछड़ा है लेकिन हाल के सालों में उसने इस क्षेत्र में कुछ अहम कदम उठाए हैं जैसे मुफ़्त दवा वितरण और इस साल विधानसभा से पास हुआ 'स्वास्थ्य का अधिकार' क़ानून। राजस्थान का अवाम फिलहाल छोटी-बड़ी खामियों के साथ इस स्वास्थ्य व्यवस्था से कुछ हद तक संतुष्ट नज़र आता है, लेकिन अभी इस ओर और भी कई प्रयास करने की जरूरत है।
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