राजस्थान चुनाव : डूंगरपुर में काम न मिलने पर मज़दूर दूसरे राज्यों में काम ढूँढने को हुए मजबूर
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : द हिंदू
डूंगरपुर में आदिवासी आबादी बहुसंख्यक हैं; हालाँकि, उन्हें गुजरात में काम ढूँढने, स्वास्थ्य संकट और बहुत से चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यहां क्षेत्रीय जनजातीय दलों के उदय ने अधिकतर लोगों के बीच एक उम्मीद पैदा की है, लेकिन कई लोगों को संदेह है कि क्या गाँव की इस गंभीर हक़ीक़त को नजदीक समय कभी भी बदला जा सकता है।
डूंगरपुर के दक्षिणी जिले में एक पाल पाडर नामक गाँव है। इस गांव में आज भी लोगों को पानी लाने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है, जिसे वे गधों पर लादकर लाते हैं। यह इलाका शुष्क है और इसके निवासियों के लिए खेती करना कठिन हो जाता है। जो लोग इसका प्रयास करते हैं वे इसे केवल एक सीज़न की खेती ही कर पाते हैं।
हर सुबह, 8 बजे से दोपहर 12 बजे के बीच, डूंगरपुर के नए बस स्टैंड के बाहर सैकड़ों मजदूर इस इंतज़ार में रहते हैं, ताकि उन्हे दिन भर का कोई काम मिल सके जिससे वे अपनी जरूरतों को पूरा कर सकें। बहुत से लोग काम ढूंढ नहीं पाते हैं क्योंकि मजदूरों को काम पर रखने के इच्छुक अधिकांश लोग एक ही मजदूर की तलाश में रहते हैं। मजदूरी के लिए उपलब्ध इतने मजदूरों की बड़ी संख्या का मतलब कम मजदूरी की सौदेबाजी की व्यापक गुंजाइश होती है। एक दिन के काम के लिए मजदूर को कम से कम 200 रुपये में लिया जा सकता है और यह शोषणकारी मज़दूरी की है जो कभी-कभी उपलब्ध होती है।
काम खोजने को लेकर अनिश्चितता सैकड़ों युवाओं को गुजरात के अहमदाबाद और बनासकांठा काम ढूँढने जाने पर मजबूर करती है। रोज़गार की तलाश में मजदूरों से भरी जीपों और बसों को दूसरे शहर की ओर जाते देखा जा सकता है। कुछ लोग दिवाली के बाद पलायन कर जाते हैं और होली से पहले ही घर लौटते हैं।
“हमारे लिए यहां काम के अवसर बहुत कम है। जो लोग काम देते हैं वे हमें बहुत कम मजदूरी देते हैं। हमारी सुरक्षा से समझौता किया जाता है, और दूसरे राज्य में जाने की संभावना हमें अंदर तक डरा देती है, लेकिन हमारे पास कोई चारा नहीं है,” पाल पाड़ा के एक मजदूर ने उक्त बातें न्यूज़क्लिक को बताई।
स्थानीय लोगों के अनुसार, सार्वजनिक परिवहन या तो है ही नहीं और यदि है तो बसों की संख्या काफी कम है। इसलिए, निजी वाहन ही बहुत से लोगों के लिए परिवहन का एकमात्र साधन हैं। लोगों को बसों की छत पर बैठे, जीप के पीछे खड़े होकर और अपनी जान जोखिम में डालकर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करते देखा जा सकता है।
परिवारों की कम आय और बढ़ती बेरोजगारी के कारण तथा उचित भोजन की कमी के कारण कुपोषण और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। लोग बाज़ार, अस्पताल और आजीविका के अन्य साधनों से 15-20 किमी दूर दूर-दराज के इलाकों में रहते हैं। उनके भोजन में सूखी सब्जियाँ शामिल होती हैं जिन्हें कई दिनों तक संरक्षित रखा जा सकता है और उन्हें जीवित रहने में मदद मिलती है। उन्हें मिलने वाले सरकारी राशन को लेकर भी शिकायतें हैं। “ऐसा महसूस होता है जैसे हमें दूसरों के बाद बचा हुआ राशन दिया जा रहा है। लोलकपुर की एक महिला ने उसे मिले अनाज की ओर इशारा करते हुए कहा कि आप इस राशन को देखें, और आपको इसमें पत्थर के टुकड़े दिखाई देंगे।”
यहां के लोगों के लिए सामने पीने के पानी का न मिलना एक बड़ी चुनौती है। लोलकपुर में, गांव के ठीक बगल में शहरी आबादी के लिए एक बांध बना हुआ है, लेकिन ग्रामीणों ने कहा कि उन्हें इससे पानी नहीं मिलता है। केंद्र सरकार की कोई योजना नहीं है, और हालांकि कुछ इलाकों में हर घर जल योजना की पाइपलाइनों के लिए खंभे लगाए गए हैं, लेकिन वे दो साल से लोगों के घरों में पानी नहीं पहुंचा पा रहे हैं।
इस चुनाव में, जैसे-जैसे आदिवासी नेताओं को प्रमुखता मिल रही है, भील आबादी बेहतर संभावनाओं की उम्मीद कर रही है। देवल ब्लॉक के एक गांव के निवासी शुभम ने कहा कि, “प्रमुख पार्टियां वादे तो करती हैं लेकिन उन्हें पूरा नहीं करतीं हैं। वे हमारे नेता होने का दावा करते हैं लेकिन केवल शहर के लोगों की सुनते हैं। हमें हमेशा हाशिये पर रखा गया है। इस बार, उम्मीदवारों को हमारे दरवाजे पर आना चाहिए और वादे करना चाहिए।
कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार, जिले में राजनीतिक परिदृश्य भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) और भारतीय आदिवासी पार्टी (बीएपी) जैसी पार्टियों द्वारा बदला जा रहा है। इन पार्टियों ने ग्रामीणों में उम्मीद जगाई है। हालाँकि, उनका प्रभाव इससे कहीं आगे तक जाता है - उन्होंने बड़े राजनीतिक दलों को वोटों की तलाश में हर गाँव का दौरा करने पर मजबूर कर दिया है।
डूंगरपुर में बड़ी रैलियां या रोड शो बहुत कम या न के बराबर हुए हैं। इसके बजाय, हर उन गांवों में सभाएं आयोजित की गईं, जहां भी उम्मीदवारों और अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं ने दौरा किया और स्थानीय लोगों के साथ चर्चा की। इन छोटी सभाओं में उम्मीदवारों को नागरिकों के सीधे और तीखे सवालों का सामना करने पर मजबूर होना पड़ा। ग्रामीणों के अनुसार, सभी पार्टियों ने इस पैटर्न को अपनाया और यह पहला अवसर था जब उन्हें अपने उम्मीदवारों से सीधे सवाल करने और उनके वादों को समझने का अवसर मिला।
वे स्थान भी उल्लेखनीय हैं जहाँ ये बैठकें या सभाएँ आयोजित की गईं हैं। किसी एक खेत में, मुख्य सड़क पर और, कई मामलो में, एक छोटे पुल पर भी हुई सभाएं हुई हैं। नेताओं के लिए कोई स्टेज या ऊंचा मंच नहीं था। वे ग्रामीणों के साथ जमीन पर बैठते और वहीं से खड़े होकर अपनी बात रखते। इन सभाओं में उम्मीदवारों का पारंपरिक रूप से स्वागत किया गया, जिसमें दो ग्रामीण ढोल बजाते और अन्य लोग उन्हें बधाई देते।
इनमें से एक गांव में एक खास पार्टी के नेता काफी देर से पहुंचे और बढ़ते अंधेरे से इन गाँव वालों की दुर्दशा स्पष्ट हो गई। बिजली नहीं होने के कारण पूरा इलाका घुप्प अंधेरे में डूबा हुआ था। निर्धारित बैठक एक खेत में होने वाली थी। पार्टी कार्यकर्ताओं ने अंततः अपने वाहनों की लाइटें चालू की, जबकि ग्रामीणों ने बैठक को सुविधाजनक बनाने के लिए मशालें और मोबाइल फ्लैशलाइटें पकड़ रखी थीं।
शंकर नाम के एक निवासी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि: "जब [सीएम] गहलोत ने हमें 100 यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा किया, तो हम शुरू में बहुत खुश हुए और कुछ पैसे बचाने की उम्मीद पैदा हुई। हालाँकि, जिस चीज़ से हम अनजान थे वह यह कि हम जिसे बेहतरीन कदम मान रहे थे वह नुकसान का सबब बनेगा। क्योंकि हमने जो कीमत चुकाई वह यह कि लंबे समय तक बिजली काटी जाने लगी और इसके कारण हम निर्धारित मुफ्त 100-यूनिट बिजली का फायदा भी नहीं उठा पाए।''
यह भी उल्लेखनीय है कि हर परिवार में ऐसे एक या दो सदस्य हैं जो काम के लिए गुजरात चले गए हैं। इस मुद्दे की ओर इशारा करते हुए, एक युवा व्यक्ति ने एक बैठक में कहा: "यदि नौकरी के अवसर और बेहतर रहने की स्थिति नहीं बनाई गई, तो हम किसी को भी अपने गांव में आने की अनुमति नहीं देंगे," भीड़ से उन्हे काफी तालियां मिली। चुनाव नतीजे चाहे जो भी हों, बेहतर भविष्य की चाह में डूंगरपुर के आदिवासी समुदाय के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
Rajasthan Elections: Grim Livelihood Conditions, Forced Migration Key Factors in Dungarpur
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