खाप पंचायत: कल और आज—बदलती भूमिका—एक पड़ताल
यूपी-हरियाणा में अब तक हम खाप पंचायतों को गोत्र और जाति की पंचायतों के रूप में जानते थे, जिनपर पुरुषों का एकाधिकार होता है और जहां ज़्यादातर महिला विरोधी फ़ैसले लिए जाते थे। हालांकि खाप खुद को सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले समूह के बतौर चिह्नित करती है। इसमें काफी किंतु-परंतु हैं। हालांकि अब पिछले कुछ समय से ख़ासकर किसान आंदोलन के बाद हमने खाप पंचायतों का नया रूप या अवतार देखा है। अब यह खाप पंचायतें काफी कुछ किसान-मज़दूरों के हक़ में आवाज़ बुलंद करती हुई और महिला अधिकारों के लिए भी काम करती दिख रही हैं। यह बदलाव क्या है, क्यों है, क्या यह सिर्फ़ तात्कालिक है या इसकी कोई पुख़्ता ज़मीन और दूरगामी संदेश भी है। आइए इस सबका एक विवेचन करते हैं।
खाप या खाप पंचायतें क्या हैं ?
खाप या खाप पंचायत एक गोत्र या जात बिरादरी के सदस्यों का समूह होता है। इनमें एक क्षेत्र या एक या ज़्यादों गांवों के उसी जाति-समुदाय के लोग शामिल होते हैं। उसी जाति-समुदाय के बड़े-बुजुर्ग या दबंग लोगों के हाथ में इसकी कमान होती है। एक तरह से इसकी कमान एक ही परिवार या वंश के हाथों में रहती है। वही पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका मुखिया या अध्यक्ष होता है।
इसी तरह सर्व खाप कई खापों को मिलकर बनती है। यानी जब कई खाप एक साथ बैठकर कोई फ़ैसला लेती हैं तो उसे सर्व खाप का फ़ैसला कहा जाता है।
आम समझ और ख़बरों के विपरीत खाप का दावा रहा है कि इनका गठन सर्व जातीय रहा है। यानी केवल एक ही जाति या गोत्र नहीं बल्कि कई जाति-समुदाय से मिलकर खाप बनती है।
इनकी कमेटी जो फ़ैसला लेती है वो सबको मानना होता है। इंकार करने वाले को सज़ा भुगतनी पड़ती है। ख़ासतौर पर जुर्माना। कई मामलों में हुक्का-पानी बंद यानी उन्हें जात बाहर कर दिया जाता है, फिर गांव या जाति में उनसे कोई मेलजोल या आपसदारी नहीं रखता।
यूपी ख़ासतौर पर पश्चिमी यूपी और हरियाणा में आम तौर पर जाटों के भीतर इस तरह की परंपरागत पंचायतों का ज़्यादा चलन या वजूद देखने को मिला। गोत्र के नाम पर ही ये खाप चलती हैं। जैसे बाल्यान या बालियान खाप, मलिक खाप, एहरावत, राठी खाप आदि। क्षेत्र के आधार पर भी खाप का नाम है। जैसे महम-24, पालम-360.
राजस्थान-पंजाब में भी कुछ जगह ऐसी पंचायतें मिलती हैं। इसके चलते कुछ अन्य जाति-समुदाय में भी इसी तरह की पंचायतों का चलन हो गया।
अब तक के फ़ैसले
अभी तक गांव या क्षेत्र में जाति, गोत्र या परिवार के नाम पर कोई मामला आता है तो खाप पंचायतें बैठती रही हैं। और ज़्यादातर गोत्र-जाति या परिवार की इज़्ज़त के नाम पर महिला विरोधी ही फ़ैसले सुर्खियों में आए हैं। पिछले कुछ सालों में तो महिलाओं या प्रेमी जोड़ों की हॉरर किलिंग यानी घर-परिवार की इज़्ज़त के नाम पर हत्याओं के जितने मामले रिपोर्ट हुए उनमें ज़्यादातर के पीछे खाप पंचायतों पर ही उंगली उठी है। हालांकि खाप के सदस्यों के मुताबिक यह सच्चाई के विपरीत मीडिया का सिर्फ़ एक प्रोपेगेंडा है।
कुछ समय पहले तक मीडिया में यही हेडलाइन बनती थी- खाप पंचायत का तालीबानी फ़रमान... लड़कियों के जींस पहनने पर रोक, मोबाइल फोन रखने पर रोक...आदि।
अपने गांवों या समुदायों में इन खाप पंचायतों का असर काफी रहा है। कहा जाता है कि उसके फ़ैसले के ख़िलाफ़ कोई नहीं जा सकता। यह गांव में चुनी हुई पंचायत से अलग होती हैं। एक तरह से अपने इलाके और जाति-गोत्र, समुदाय में इन पंचायतों की हैसियत अदालत की तरह होती है और संविधान और न्यायिक प्रक्रिया से परे जाकर भी यहां फ़ैसले और आदेश जारी किए जाते रहे हैं। आमतौर पर पुलिस प्रशासन भी इन मामलों में हस्तक्षेप करने से डरता है या परहेज़ करता है। हालांकि अब बहुत लोग इन पंचायतों के फ़ैसलों को नहीं मानते और क़ानून का सहारा लेते हैं, तभी मीडिया में ख़बरें भी बनती हैं।
बदलता रूप
अब पिछले कुछ समय से ख़ासकर 2020-21 में किसान आंदोलन के दौरान खाप पंचायतों का ज़बरदस्त रोल देखने को मिला। पूरे आंदोलन के दौरान भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत के पीछे खाप पंचायत पूरी मज़बूती से खड़ी रहीं।
28 जनवरी 2021 को ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत की आंखों में जब आंसू छलके और वो तस्वीर जब वायरल हुई तो यूपी ख़ासकर उनके इलाके मुज़फ़्फ़रनगर से हज़ारों लोग अपने ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर रात में ही उनके समर्थन में निकल पड़े। इस समर्थन ने न केवल राकेश टिकैत को ताक़त दी बल्कि पूरे किसान आंदोलन में एक नई जान फूंक दी। राकेश टिकैत बाल्यान खाप से आते हैं और उनके पिता यानी किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के ज़माने यानी 1980 के दशक से ही इस खाप पर उनके परिवार की पकड़ रही है। यानी वही इस खाप के चौधरी रहे हैं।
अब हम देख रहे हैं कि पहलवानों के आंदोलन के समर्थन में भी खाप पंचायतें पूरी तरह खुलकर सामने आई हैं। यह न केवल अपनी बैठकें कर रही हैं, बल्कि धरना-प्रदर्शन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं।
राकेश टिकैत और उनके भाई नरेश टिकैत लगातार पहलवानों के साथ खड़े हैं और उनके पक्ष में खाप पंचायतों का समर्थन जुटा रहे हैं। अभी 2 जून को हरियाणा में पहलवानों के समर्थन में ही खाप महापंचायत हुई। इसमें हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न स्थानों से विभिन्न खापों और किसान संगठनों के प्रतिनिधि ‘शामिल हुए। इससे पहले एक जून को यूपी के मुज़फ़्फ़रनगर में भाकियू ने खाप पंचायत की।
बदलाव की वजह
गोत्र-परिवार के लिए सम्मान के नाम पर महिला विरोधी फ़ैसले लेने और हत्याओं तक के लिए बदनाम खाप पंचायतों में यह बदलाव किस तरह दर्ज किया जाए। इसे समझने के लिए हमने खाप पंचायतों को बहुत क़रीब से जानने वाले कुछ प्रतिष्ठित लोगों से बात की।
सामाजिक कार्यकर्ता और एडवा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जगमति सांगवान खाप में पिछले 15-20 सालों से बदलाव को नोट कर रही हैं। उन्होंने इस बदलाव के पीछे तीन वजह स्पष्ट रूप से दर्ज कीं-
1. नए विचारों का आदान-प्रदान, लोकतांत्रिक ताक़तों का दबाव
2. कृषि संकट- क्योंकि यह समुदाय मुख्यतया खेती-किसानी से ही जुड़ा है। यही वजह है कि जब सरकार कृषि से जुड़े तीन विवादास्पद क़ानून लाई तो इस पूरे समुदाय के सामने संकट खड़ा हो गया, इसलिए इस आंदोलन में उसकी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी देखने को मिली।
3. नई पीढ़ी में खाप का असर कम होने की वजह से भी बदलाव की ज़रूरत महसूस की गई।
जगमति कहती हैं कि बदलते समय के अनुरूप सामाजिक और महिला आंदोलनों और प्रगतिशील ताक़तों ने जो दबाव बनाया उसके तहत खाप में थोड़े-थोड़े बदलाव की शुरुआत तो 15-20 साल पहले ही हो गई थी। इसके चलते ही इन सालों में कई ऐसे फ़ैसले लिए गए जो पहले संभव नहीं थे। जैसे दूध और गोत्र को छोड़कर शादी की इजाज़त देना। इसमें दादी का गोत्र भी छोड़ दिया गया वरना पहले दादी के गोत्र में भी शादी-ब्याह नहीं हो सकता था। इसके साथ ही अंतरजातीय विवाह का विरोध न करना आदि।
यह लोकतांत्रिक ताक़तों का दबाव ही था कि खाप पंचायत को अपने अधिनायकवादी चरित्र को कम करना पड़ा। इसके साथ ही जैसे-जैसे कृषि संकट बढ़ता गया, एकता की ज़रूरत महसूस हुई। क्योंकि खाप से जुड़े लोग खेती-बाड़ी से ही जुड़े हैं। 2020 के अंत में किसान आंदोलन शुरू हुआ तो एक किसान और एक संस्था के तौर पर खाप को उतरना पड़ा। इस एक साल से अधिक समय में किसान मोर्चों पर नए विचारों के मेले लगे, इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की और अपने विकास के मुद्दों को भी उसमें शामिल कराया। इसी के तहत जैसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, किसान महिला दिवस और महिला संसद आदि हुईं, इस तरह एक-दूसरे के नज़दीक आने का, एक-दूसरे की ज़रूरतों को समझने का जो मौका मिला, जो पहले इस तरह होता नहीं था, उसने पहले से चल रही बदलाव की प्रक्रिया को और मज़बूत किया।
अब पहलवानों का आंदोलन शुरू हुआ तो इससे भी खाप से जुड़े समुदाय ने खुद को जुड़ा पाया। कुश्ती-पहलवानी इन इलाकों और समुदाय में बहुत लोकप्रिय खेल है। इसमें उनके घर की बेटियां भी बड़ी संख्या में जुड़ी हैं। इसलिए यौन हिंसा और महिला अधिकारों को लेकर खाप एक बार फिर मुखर हुई हैं।
इसी तरह हरियाणा में भी भाजपा सरकार में मंत्री संदीप सिंह का मामला है। वह भी यौन शोषण का आरोपी है। महिला संगठनों समेत खाप पंचायतों ने उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी, लेकिन सरकार ने इस दबाव को नहीं माना। इसलिए भी ज़्यादा एकता और सामाजिक स्वीकार्यता की ज़रूरत महसूस की जा रही है।
हरियाणा के स्कूलों में शारीरिक शिक्षकों को हटाने का मामला हो या मंत्री संदीप सिंह का मामला, सरकार द्वारा खाप की अनदेखी से भी उसके वजूद पर सवाल हैं। जैसे अभी आंदोलनरत पहलवान विनेश फोगाट ने लिखा और हम भी महसूस कर रहे हैं कि खाप बड़ी-बड़ी पंचायत तो कर रही हैं, बड़ी-बड़ी बातें और घोषणनाएं हो रही हैं, लेकिन सिर्फ़ अल्टीमेटम देती हैं, उसके बाद कुछ नहीं करतीं। यानी अब खाप को अपने अल्टीमेटम को भी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचाने का दबाव है। इसके अलावा जनसेवा से कटी राजनीति भी वोट बैंक के लिए इन खाप को इस्तेमाल करती रही है, जिसकी वजह से एक जाति-एक गोत्र के भीतर भी कई-कई खाप बन जाती हैं। इसकी वजह से भी अब व्यापक एकता की ज़रूरत महसूस की जा रही है।
इसी मुद्दे पर हमने बात की रोहतक निवासी लोकतांत्रिक आंदोलनों से पिछले 5 दशक से जुड़े, संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल और ऑल इंडिया किसान सभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इंद्रजीत सिंह से।
खाप की ज़रूरत या उसकी भूमिका के बारे में इंद्रजीत सिंह कहते हैं कि अपने रीति-रिवाज, वंशानुगत पहचान और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए खाप के नाम से ऐसी संस्थाएं बनीं। ये एक क्षेत्र या इलाके में अपना अधिकार रखती हैं जैसे महम-24, यह 24 गांवों का एक समूह है। इसी तरह पालम-360, यह दिल्ली के पालम इलाके की खाप है, जिसका दावा है कि इसमें 360 गांव जुड़े हैं।
उनके अनुसार समय के साथ खाप की सामाजिकता घटती चली गई, लेकिन जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत इन्हें रिप्लेस होना था, जिस संवैधानिक व्यवस्था के तहत सामाजिक न्याय लागू होना था वो नहीं हो पाया, इसीलिए सामुदायिक या जातीय या सर्वजातीय खाप पंचायतों की प्रासंगिकता बनी रही।
इसके अलावा इन इलाकों में ख़ासकर हरियाणा में पंजाब की तरह किसान संगठन नहीं हैं। इसलिए भी इस समुदाय की खाप प्रचलन में हैं।
खाप की भूमिका में आ रहे बदलाव पर इंद्रजीत कहते हैं कि हालांकि यह बदलाव सब जगह समान रूप से नहीं है। लेकिन अगर कुल मिलाकर देखेंगे तो किसान आंदोलन के समर्थन का सवाल है या महिलाओं के लिए बोलने का सवाल है या महिलाओं को मीटिंगों में बैठाने का सवाल है, उस स्तर पर एक सकारात्मक बदलाव ज़रूर है, जिसे रेखांकित करने की ज़रूरत है। इससे लोगों में भी उस संस्था के प्रति विश्वास मज़बूत होता है।
रोहतक के ही रहने वाले 80 वर्षीय एडवोकेट उम्मेद सिंह से भी हमने बात की। आप 1972 में महम से 24 सर्व खाप के प्रतिनिधि के तौर पर विधायक रहे हैं।
उम्मेद सिंह खाप को समाज के एक सिस्टम की तरह देखते हैं। वे अपनी बात पशुपालक और कबिलाई समाज से शुरू करके आज के लोकतांत्रिक समाज तक लाते हैं और कहते हैं कि खाप समाज के ऐतिहासिक विकास का एक स्तर या हिस्सा है।
वे बताते हैं कि सिर्फ़ जाटों में ही खाप पंचायत का चलन नहीं है, बल्कि गुर्जरों में खाप हैं, कुछ जगह राजपूतों में खाप हैं। यही नहीं मेवात के मुसलमानों में खाप का सिस्टम है।
खाप की बदलती और सकारात्मक भूमिका पर वे कहते हैं ऐसा पहले भी रहा। वे बताते हैं कि 1857 के आज़ादी के पहले आंदोलन में भी खापों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उनके अनुसार जैसे-जैसे लोकतंत्र का विकास हुआ, समाज का विकास हुआ तो वैसे-वैसे खाप का भी विकास हुआ, उसमें बदलाव आया। वे यह भी दर्ज कराते हैं कि खाप में सब बराबर होते हैं और एक साथ बैठते हैं। यानी वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं होता न कोई स्टेज आदि की अलग से व्यवस्था की जाती है।
पहलवान आंदोलन में खाप के शामिल होने पर उम्मेद जी कहते हैं कि लोग आगे हैं तो साथ में खाप भी है। यह खाप का डिसीजन नहीं है। लोग नेता हैं, खाप उनके साथ है।
सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं के सवाल पर उम्मेद जी कहते हैं कि खाप कभी ऐसे फ़ैसलों में शामिल नहीं रही है। और अंतरजातीय विवाह आदि में लड़की या लड़के की हत्या किसी एक जाति की बुराई नहीं बल्कि यह सभी जातियों में है।
यूपी के मुज़फ़्फ़रनगर निवासी और मलिक खाप से जुड़े भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के राष्ट्रीय प्रवक्ता धर्मेंद्र मलिक से भी हमारी इसी सिलसिले में बात हुई।
उनके अनुसार कबीला प्रथा से ही खाप की प्रथा आई। हालांकि आज कबिलाई संस्कृति को नेगेटिव टर्म में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन जब एक आम बड़े समुदाय के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं थी तो खाप की व्यवस्था थी, जहां सस्ता और आसान न्याय उपलब्ध हो जाता था। उनके अनुसार जाटों में इसका प्रचलन ज़्यादा है लेकिन हर जाति में खाप व्यवस्था रही है।
उनके अनुसार खाप सामाजिक मुद्दों पर संघर्ष करती है। सन् 1987 में खाप को मज़बूत बनाकर ही महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन को इतना मज़बूत बनाया और उनके आंदोलन की सफलता के पीछे खाप ही जुड़ी थीं। खाप ने सामाजिक सुधार के कई फ़ैसले लिए- जैसे दहेज का विरोध, दिन की बारात, बारात में पांच लोग, इस तरह की भी व्यवस्था की गई।
एक समूह-एक क्षेत्र में खापों का गठन किया जाता था हालांकि अब अपनी ढपली अपना राग ज़्यादा सुनाई देता है। अपने अपने स्वार्थों के लिए लोगों ने कई-कई खाप बना ली हैं।
उनके अनुसार अगर खाप सामूहिक फ़ैसले नहीं लेंगी तो उनको लागू करना मुश्किल होगा।
धर्मेंद्र मलिक के मुताबिक उनकी खाप ने शनिवार को पंचायत करके फ़ैसला लिया कि वे पूरी तरह पहलवानों के आंदोलन का समर्थन करेगी। उनके अनुसार देश की बेटियां किसी खाप या गोत्र की नहीं हैं, वे पूरे देश की हैं। उन्हें न्याय मिलना चाहिए। देश का क़ानून सबके लिए एक होना चाहिए।
पालम-360 खाप के अध्यक्ष चौधरी सुरेंद्र सोलंकी से भी हमने इस मुद्दे पर बात की। उनके अनुसार उनकी खाप उत्तर भारत की सबसे बड़ी खाप है, जिसमें 360 गांव की सभी जाति-समुदाय शामिल हैं। उनके अनुसार खाप एक पुरानी प्रणाली है। कभी किसी एक जाति या गोत्र की नहीं रही। हम न्याय के लिए आवाज़ उठाते हैं।
एक लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत गांव में पंचायत के चुनाव होने के बाद भी खाप के बने रहने का क्या उद्देश्य या औचित्य है? इसके जवाब में चौधरी सुरेंद्र कहते हैं कि पंचायत चुनाव हो या विधायक या सांसद का चुनाव, इसके प्रतिनिधि एक दल विशेष से जुड़े होते हैं जिसकी अपनी राजनीति होती है, लेकिन खाप की कोई राजनीति नहीं होती, वह किसी विशेष दल से नहीं जुड़ा होता इसलिए लोगों का उसमें ज़्यादा विश्वास होता है।
सम्मान के नाम पर हत्या के सवाल पर उनका भी यही कहना है कि इस तरह की हत्या को किसी भी खाप ने कभी भी सपोर्ट नहीं किया। कभी किसी व्यक्ति विशेष या परिवार ने इस तरह का काम किया हो तो कभी उस पर मोहर नहीं लगाई।
खाप एक पुरुष प्रधान व्यवस्था है। इसमें महिलाओं की जगह कहां है? कब वे पंचायतों में बैठती हैं या फ़ैसलों में उनकी भागेदारी है? इस सवाल पर सोलंकी कहते हैं कि उस समय की संस्कृति के अनुसार गांवों में बहुत कम महिलाएं घर से बाहर आती थीं।
हालांकि इस उत्तर से असहमत होते हुए हम पूछते हैं कि हमारे गांवों में महिलाएं और ख़ासकर जाट महिलाएं बहुत मेहनती हैं। वे घर से लेकर खेत तक काम करती हैं, ऐसे में यह कहना कि महिलाएं घर से नहीं निकलती हैं, यह सही नहीं है, इसके जवाब में चौधरी सुरेंद्र कहते हैं कि ऐसा सिर्फ़ जाट समाज या खाप में ही नहीं है, समाज के हर हिस्से में था, राजनीति में था, खेल में भी था कि बहुत कम महिलाएं निकलती थीं। लेकिन जैसे-जैसे समय बदला है खापों ने भी उस प्रणाली को अपनाया है।
तो क्या हम कभी किसी खाप का अध्यक्ष महिला को देख पाएंगे? इस सवाल के जवाब में सोलंकी कहते हैं कि बहुत-सी खाप ने महिला विंग बनाईं हैं। यही नहीं पहलवानों के आंदोलन को ही लीजिए, खाप ने फ़ैसला किया कि महिलाएं ही आंदोलन का नेतृत्व करेंगी, हम पीछे रहेंगे। इसके अलावा जिस भी क्षेत्र में चाहे खेल में या प्रशासनिक सेवा में लड़कियां आगे बढ़ी हैं तो खापों ने उनका स्वागत किया है। उनके अनुसार समय के अनुसार और बदलाव आएंगे।
चौधरी सुरेंद्र के मुताबिक इस समय खाप की ज़रूरत पहले से ज़्यादा है, क्योंकि अब समाज में आपसी झगड़े बढ़ गए हैं। हमारी पुलिस और न्यायिक प्रणाली कैसी है सभी जानते हैं, इसलिए आपस में बैठकर मिलजुलकर मामले निपटाने में खाप का रोल और बढ़ गया है।
कुल मिलाकर इस बातचीत से यही निकल कर आया कि जो बुराइयां हमारे समाज में हैं वही खाप में भी हैं। और जैसे-जैसे समाज बदल रहा है खाप भी बदल रही हैं। यही नहीं वो रोज़ सामने आ रहे नए-नए संकटों ख़ासतौर से खेती-किसानी के संकट और आंदोलनों से भी सीख ले रही हैं। फ़िलहाल ये बदलाव एक सुखद और सकारात्मक संकेत हैं लेकिन ये देखना होगा कि ये कितने स्थायी हैं।
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