सफ़दर: आज है 'हल्ला बोल' को पूरा करने का दिन
आज 4 जनवरी, वही दिन है जब 33 साल पहले सफ़दर के अधूरे नाटक ‘हल्ला बोल’ को उनकी जीवन साथी और उनके मिशन के साथियों ने उसी साहिबाबाद की धरती पर पूरा किया था, जहां 3 दिन पहले यानी साल के पहले दिन एक जनवरी, 1989 को हमला कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। लेकिन जैसे कहते हैं न कि शरीर मरते हैं, विचार नहीं।
वो सफ़दर के विचार ही हैं जो हर साल के पहले दिन पूरे देश में रंगकर्मियों को एकजुट कर देते हैं। सफ़दर कौन थे… सफ़दर मज़दूरों के दर्द को खुद महसूस करने वाले, कामगारों के पसीने का मौज़ूं हक़ दिलवाने वाले बेहतरीन इंसान, कलाकार, गीतकार, रंगकर्मी, अद्भुत लेखक, एक सशक्त पेंटर, बेहिसाब प्रतिभा के धनी थे। जिनकी ललकार में वो मर्म था, वो चुनौती थी, वो आईना था, जिसे सत्ताधारी पार्टियां बर्दाश्त नहीं पाईं।
आज सफ़दर तो नहीं हैं लेकिन उन्हीं की तरह सत्ताधारियों को ललकारने वाला उनका सबसे बड़ा हथियार यानी जन नाट्य मंच (जनम) सीटू के साथ मिलकर हर साल उन्हें (सफ़दर) और शहीद रामबहादुर को याद करता है।
सफ़दर और रामबहादुर का शहादत दिवस
इस साल भी 1 जनवरी को गाजियाबाद के झंडापुर में सफ़दर हाशमी और रामबहादुर की शहादत को याद करने के लिए मज़दूरों और कलाकारों का साझा कार्यक्रम किया गया, इस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता, वरिष्ठ किसान नेता और सीपीआई(एम) के केंद्रीय कमेटी सदस्य कॉमरेड डीपी सिंह ने सभा को संबोधित किया। डीपी सिंह कई बार सफ़दर को याद करते हुए भावुक भी हुए।
डीपी सिंह ने सफ़दर की प्रतिभा, उनकी खुशमिजाज़ शख्सियत, मेहनतकशों के प्रति उनके लगाव को लोगों के सामने जीवंत कर दिया, और लोगों से सफ़दर के विचारों को खुद के भीतर जीने की अपील की। 23 और 24 फरवरी को होने वाली देशव्यापी हड़ताल के लिए डीपी सिंह ने लोगों से एकजुट होने की अपील की। इसके अलावा उन्होंने मज़दूरों पर हुए अत्याचारों, किसान आंदोलन में शहीद किसानों की शहादत को याद करते हुए सरकार पर जमकर पर प्रहार किए।
डीपी सिंह ने देश में हो रही धर्म संसदों के मकसद को भी लोगों के साथ साझा किया। डीपी सिंह ने कहा कि साल 2025 में संघ 100 साल का हो जाएगा, यानी संघ के लोग पूरे देश में हिन्दुत्व के पक्ष में माहौल बनाकर कुछ बहुत बड़ा करने वाले हैं, और अगर वो अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं तो हिंदुस्तान को तालिबान बनने से कोई नहीं रोक सकता।
सफ़दर की शहादत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में मज़दूर वर्ग के साथ-साथ छात्रों और युवाओं का भी बेहतरीन समागम देखने को मिला। कार्यक्रम की शुरुआत क्रांतिकारी गीतकार रतन गंभीर के गानों से हुई, उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए सत्ताधारी बीजेपी और देश में अराजकता फैला रहे लोगों पर तंज कसा, इसके बाद जन नाट्य मंच के कलाकारों ने सफ़दर की याद में कई गीत गाए, जिसमें ‘’लाल झंडा लेकर कॉमरेड’’ और ‘’तू ज़िंदा है तू ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर’’ भी शामिल थे।
इसके अलावा जन नाट्य मंच के ही कलाकर पुरुषोत्तम ने भी अपना गीत ‘रोटियां’ पेश किया। जन नाट्य मंच के बाद जन संस्कृति और दस्तक ने भी सफ़दर की याद में कई गीत गाए। वहीं इन कार्यक्रमों से पहले जन नाट्य मंच की ओर से कलाकार बृजेश ने अपनी बात रखी और सफ़दर को याद किया।
12 अप्रैल 1954 को जन्में सफ़दर हाशमी, बचपन में ही साम्यवादी सोच और मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा में इतना खो चुके थे, कि दुनिया की हर तकलीफ उन्हें खुद महसूस होने लगी। सफ़दर जैसे-जैसे बड़े हुए, उन्होंने अपनी कला को लोगों की बेहतरी का हथियार बनाया। सफ़दर हाशमी ने कई विश्वविद्यालय में पढ़ाया, पश्चिमी बंगाल सरकार में सूचना केंद्र में सूचना अधिकारी रहे। साल 1983 में सफ़दर ने सूचना अधिकारी के पद से इस्तीफा दे दिया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूरी तरह से सदस्य बन गए।
सफ़दर का ‘’जन नाट्य मंच’’
क्योंकि सफ़दर कला के धनी थे, वे अन्याय का जवाब कला के ज़रिए देने का हुनर जानते थे, गीत के ज़रिए, नाटक के ज़रिए, अपनी आवाज़ के ज़रिए। इसी कला को तानाशाहों के खिलाफ हथियार बनाने के लिए सफ़दर ने साल 1973 में ‘जन नाट्य मंच’ जिसे लोग ‘जनम’ कहते हैं, की नींव रखी... सफ़दर का मकसद साफ था, कि जनम के सहारे थियेटर को लोगों तक पहुंचाना है, तमाम आवाज़ों को एक आवाज़ बनाना है, ताकि ये आवाज़ें जब निकलें तो तानाशाहों का ध्यान मज़दूरों, कामगारों, किसानों की ओर भी जाए। जनम, इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन यानी इप्टा की भावना से प्रेरित था। जनम के नुक्कड़ नाटकों का सफ़र 1978 में शुरू हुआ। इस दौरान जनम ने अपने पहले नाटक ‘मशीन’ के ज़रिए बताया कि इंसानों के बिना मशीनें कुछ भी नहीं। ‘मशीन’ नाटक ने मज़दूरों और कामगारों के बीच एक नई क्रांति पैदा की, उन्हें उनका हक पहचानने का सलीका सिखाया। यही कारण है कि इस नाटक को सिर्फ जनम ही नहीं देशभर के तमाम थियेटर ग्रुप अनगिनत बार लोगों के सामने पेश कर चुके हैं।
मशीन के अलावा जनम के कुछ बेहद लोकप्रिय नाटकों की बात करें तो, औरत, राजा का बाजा, अपहरण भाईचारे का, हल्ला बोल, मत बांटो इंसान को, संघर्ष करेंगे जीतेंगे, अंधेरा आफताब मांगेगा, जिन्हें यकीन नहीं था, राहुल बॉक्सर, वो बोल उठी, ये दिल मांगे मोर गुरुजी और तथागत हैं। इन सभी नाटकों में चुनाव, सांप्रदायिकता, आर्थिक नीति, बेरोज़गारी, ट्रेड यूनियन अधिकार, वैश्वीकरण, महिलाओं के अधिकार, दलितों के अधिकार और समान अधिकार जैसी बातें की गई हैं, इन नाटकों के साथ जन नाट्य मंच के सभी नाटकों की सबसे खास बात होती है- कि ये ‘’सवाल करते हैं’’।
जब सफ़दर शहीद हो गए
1989, नए साल का पहला ही दिन था, सफ़दर और उनके कलाकर साथी, गाजियाबाद में मौजूद औद्योगिक क्षेत्र साहिबाबाद में नाटक ‘’हल्ला बोल’’ खेलने के लिए गए थे, ये नाटक नवंबर 1988 में औद्योगिक श्रमिकों की सात दिवसीय हड़ताल के समर्थन में खेला जा रहा था, सफ़दर के ‘’जनम’’ की एक शानदार पेशकश देखने के लिए लोगों का हुजूम इकट्ठा हो चुका था, जनम के कलाकारों ने अपने नाटक ‘हल्ला बोल’ के ज़रिए सरकार पर ‘हल्ला बोलना’ शुरू कर दिया था, सफ़दर अपने कुछ साथियों संग वहीं पास की दुकान पर चाय पी रहे थे, तभी कांग्रेस के नेता मुकेश शर्मा का काफिला गाजे-बाजे के साथ नाटक को रोककर वहां से गुज़रने की ज़िद करने लगा, मौके पर पहुंचकर सफ़दर ने समझाया, और प्रेम से बोले, आप लोग भी थोड़ी देर खड़े होकर नाटक देख सकते हैं, उसके बाद आराम से निकल जाइएगा, नहीं तो दूसरी तरफ से निकल जाइए। सफ़दर के कहने पर वे सभी लोग वहां से हट गए और चले गए, लेकिन ये सिर्फ एक वहम था। क्योंकि कुछ ही मिनटों बाद वे सभी फिर वापस लौट आए, इस बार उनके हाथ में लोहे की सरिया, और डंडे थे। नाटक मंडली समेत मौके पर मौजूद दर्शक अलग-अलग भागे लेकिन एक वक्त पर उनमें से कुछ बदमाशों ने सफ़दर को पकड़ लिया और सरिया मारकर सफ़दर को घायल कर दिया। जबकि इस हमले एक मज़दूर राम बहादुर की मौके पर ही मौत हो गई। सफ़दर को घायल हालत में पास के सीटू ऑफिस ले जाया गया, जहां मुकेश शर्मा और उनके समर्थक सफ़दर के पीछे-पीछे पहुंच गए और फिर हमला कर दिया। लोगों ने किसी तरह से सफ़दर को वहां से निकाला और अस्पताल ले गए। जहां अगले दिन यानी 2 जनवरी को मजलूमों, वाम दलों और कला को शिखर तक ले जाने का सपना देखने वाला एक बेहतरीन शख्स सफ़दर हमेशा के लिए खामोश हो गया।
जब सफ़दर का अधूरा नाटक पूरा हुआ
अब बारी थी सफ़दर को खुद के भीतर जीने की, उनके विचारों को एक नई चिंगारी देने की, उनके अधूरे नाटक ‘हल्ला बोल’ को पूरा करने की, अब ये काम उनकी पत्नी मलयश्री से बेहतर और कौन कर सकता था। तारीख थी 4 जनवरी, मलयश्री अपने साथी कलाकारों के साथ उसी जगह पहुंची जहां नाटक को रोक दिया गया था, लेकिन इस बार कलाकारों का जोश दोगुना था, उनकी आंखों में एक अलग जुनून था, और हर किसी के ज़हन में सिर्फ सफ़दर था। यकीन से परे हुजूम के बीच मलयश्री और जनम के कलाकारों ने हल्ला बोल पूरा किया और हत्यारों को बता दिया, कि ये सफ़दर का जनम है तुम इसे यूं ही चुप नहीं करा सकते।
सफ़दर आज भले ही हमारे बीच न हों, लेकिन उनके विचार, उनका अनूठा व्यक्तित्व, उनकी कला, उनकी लिखी कविताएं, उनकी आवाज़ हमेशा हमे कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करती रहेंगी। क्योंकि ‘’सफ़दर हाशमी का सिर्फ शरीर खत्म हो सकता है विचार नहीं’’
सफ़दर की मशहूर कविताओं में एक- ‘’किताबें करती हैं बातें’’
किताबें
किताबें
करती हैं बातें
बीते ज़माने की
दुनिया की इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान का भंडार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।