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स्मृति शेष : 'राजाराम वामपंथी राजनीति के बड़े संगठक और नेता रहे'

राजाराम अपनी कुछ ख़ास विशेषताओं के कारण वे हिंदी भाषी क्षेत्र के वामपंथी आंदोलन में विशिष्ट शख़्सियत के रूप में याद किये जायेंगे।
Rajaram

देश की वामपंथी राजनीति में एक से बढ़कर एक ऐसे प्रतिभाशाली लोग हुए हैं जिनका व्यक्तित्व-कृतित्व सदा ही वामपंथ की राह को रौशन बनाता रहा है। जिनमें से कई तो ऐसे विरले व्यक्तित्व के रहें हैं जो अपने जीते जी ही इस धारा के लिए जीवंत पहचान बन गए हैं।

बिहार के वरिष्ठ वामपंथी आंदोलनकारी राजाराम जी भी ऐसे ही जीवनपर्यन्त वामपंथी सेनानी के प्रतीक रहे।

73 वर्षीय राजाराम जी का गत 1 सितम्बर की रात्रि को निधन हो गया। वे पिछले कुछ दिनों से पटना स्थित पीएमसीएच में इलाजरत थे।

इनके निधन की खबर से पूरे देश के वामधारा से लेकर व्यापक लोकतान्त्रिक दायरे के लोग शोकाकुल हो गए। सोशल मीडिया से लेकर कई स्तरों पर उनकी स्मृति-संस्मरणों को साझा करते हुए लोगों के शोक-संदेशों का तांता सा लग गया।

जाने माने राजनीतिक विश्लेषक-वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन पीपुल्स फ्रंट में उनके सहकर्मी रहे उर्मिलेश का स्मृति-संस्मरण गौर तलब है। उनके अनुसार राजाराम जी बिहार में वामपंथी राजनीति के बड़े संगठक और नेता रहे। उनसे पहली मुलाक़ात सन ’80 के दौर में दिल्ली में हुई थी। जब मैं जेएनयू में शोध विद्यार्थी व छात्र आंदोलन का एक्टिविस्‍ट था। सीपीआई एमएल की पहल पर इंडियन पीपुल्स फ्रंट नामक एक लोकतांत्रिक मोर्चे का गठन किया जा रहा था। जिसमें सिर्फ वामपंथी ही नहीं लोकतंत्र समर्थक अनेक जनपक्षधर संगठन और लोग भी शामिल हुए थे। विख्यात मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी और कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लोग उसका हिस्सा बने थे। राजाराम जी ने ऐसे अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों और जन संगठनों को लेकर बने उक्त मोर्चे का बहुत सफलतापूर्वक नेतृत्व किया था।

बिहार में फतुहा के एक साधारण परिवार में जन्मे वामपंथी कार्यकर्त्ता और संगठक ने विख्यात रंगकर्मी गुरुशरण सिंह, मशहूर क्रांतिकारी नागभूषण पटनायक और प्रतिष्ठित मानवाधिकारवादी न्यायविद गोबिंद मुखौटी सहित अनेक गणमान्य लोगों से वैचारिक संवाद किया। कभी बिहार के जहानाबाद और भोजपुर के गांवों में स्थानीय कार्यकर्त्ताओं को संगठित करते देखे जाते तो कभी जेएनयू जैसे बहुप्रतिष्ठित विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों और प्रोफेसरों से संवाद करते पाए जाते। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण वे हिंदी भाषी क्षेत्र के वामपंथी आंदोलन में एक उल्लेखनीय शख्सियत के रूप में याद किये जायेंगे। पिछड़े इलाके-समाज से आनेवाले इस समर्पित संगठक और कार्यकर्त्ता ने जीवनपर्यंत अपने विचारों और मूल्यों से कोई समझौता नहीं किया। सादगी भरा जीवन जिया और हमेशा सहज-सहृदय रहे। जैसे वे अन्दर से थे, वैसे ही वे बाहर थे। कहीं से कोई दिखावा नहीं, किसी तरह का बनावटीपन नहीं।

3 सितम्बर को भी उनकी “अंतिम यात्रा” से पूर्व हुई शोक सभा में भी वहां उपस्थित विभिन्न वामपंथी दलों व लोकतान्त्रिक दलों के वरिष्ठ नेताओं ने भी उनके उक्त विरल गुणों को रेखांकित किया।

भाकपा माले के राष्‍ट्रीय महासचिव ने गहरे शोक और पीड़ा भरे शब्दों में कहा कि - अभी जब फासीवादी हमले के ख़िलाफ़ हम सभी एकजुट होकर लड़ रहें हैं, राजाराम जी का जाना, हमारे आंदोलन के लिए जबरदस्त आघात और सदमा है। अभी आंदोलन को इनकी बेहद ज़रूरत थी। चंद दिनों पहले ही तो अस्पताल में भर्ती होने के पूर्व जब वे भाकपा माले मुख्यालय के अपने कमरे में लेटे हुए थे और हमलोग उनसे मिलने गए थे तब कहीं से भी ऐसा नहीं लग रह था कि वे हमें इस तरह से अचानक छोड़कर चले जायेंगे। दूसरे ही दिन मुझे ‘INDIA’ गठबंधन की मुंबई बैठक में जाना था तो उन्होंने आश्वस्त करते हुए कहा था- ''मैं ठीक हो जाऊंगा आप चिंता न करें, बैठक में जाइए।'’

सीपीआई के राज्य सचिव राम नरेश पाण्डेय ने संस्मरण साझा करते हुए कहा कि आज जबकि व्यापक वामपंथी एकता और INDIA महागठबंधन की मजबूती के लिए राजाराम जी जैसे कम्‍युनिस्‍ट अगुवा साथियों की बेहद ज़रूरत थी।

सीपीएम के वरिष्ठ नेता अरुण मिश्रा ने भी लगभग वैसा ही संस्मरण व्यक्त करते हुए कहा कि- व्यापक वामपंथ के साथियों से उनका आत्मिक लगाव रहा। सभी वामपंथी कार्यालयों में नियमित जाकर साथियों से आत्मीय संवाद करने वाला आचरण आज की नयी पीढ़ी के साथियों को अपनाने की ज़रूरत है। उनका जाना वामपंथ के लिए बहुत बड़ी क्षति है।

राजद के वरिष्ठ नेता व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी पूरे राजद परिवार और स्वयं मेरे लिए भी राजाराम जी का निधन बहुत पीड़ादायक है। सत्ता-सरकारों के भीषण दमन-प्रताड़ना का सामना करते हुए भी जिस वामपंथी धारा से वे जुड़े हुए थे। जीवन भर उसके कर्मठ सिपाही रहे। सामंती-पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उनका संघर्ष सदैव ही हम सबों को प्रेरणा देगा।

इस शोक सभा तथा अंतिम-यात्रा में बिहार के कई आंदोलनकारी जन संगठनों के प्रतिनिधि, सोशल एक्टिविस्‍ट, वरिष्ठ पत्रकार, आंदोलनकारी बुद्धिजीवी तथा नागरिक आंदोलन के लोग शामिल रहे। इसके अलावे भाकपा माले पोलित ब्यूरो, केंद्रीय कमिटी के सदस्यों व सभी माले विधायकों समेत दिल्ली, झारखंड व उत्तर प्रदेश व बिहार के विभिन्न जिलों-इलाकों के पहुंचे सैंकड़ों माले कार्यकर्त्ताओं ने सक्रिय भागीदारी निभायी। गत 1 सितम्बर की रात्रि से ही माले विधायक दल नेता मह्बूब आलम जी के आवास 13 नंबर में राजाराम जी का पार्थिव शारीर लोगों के दर्शानार्थ रखा गया था। बाद में यहीं से, ‘राजाराम को लाल सलाम’ के नारे के साथ पार्टी महासचिव व केंदीय-राज्य नेताओं के नेतृत्व में अंतिम यात्रा निकाली गयी। पटना के बांस घाट स्थित विद्युत शवदाह गृह में उनका अंतिम संस्कार किया गया।

10 अगस्त 1950 में जन्मे राजाराम जी छात्र जीवन में ही वामपंथी राजनीति से प्रभावित हो गए थे। 1966 में सीपीएम के छात्र संगठन से आंदोलनकारी राजनीति के सफ़र की शुरुआत की। 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति आंदोलन पर जब चरम दमन किया जा रहा था तो भारत के भी व्यापक छात्र-युवा जब उस आंदोलन के समर्थन में सड़कों पर उतरे थे तो उन्‍होंने भी अपने इलाके में कई जुलूसों का नेतृत्व किया। बाद में वे एके राय के नेतृत्व में बनी मार्क्सवादी समन्वय समीति के सक्रिय कार्यकर्त्ता बन गए। ’74 के ऐतिहासिक छात्र आंदोलन में आपातकाल और सत्ता दमन का मुकाबला करते हुए एक अलग पहचान बना ली। उस वक़्त वे हिलसा कॉलेज में बॉटनी के तृतीय वर्ष के छात्र थे और आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण पुलिस के भयावह दमन-बर्बरता का सामना करते हुए जेल में डाल दिए गए। जहां वे 4 महीनों के जेलजीवन के दौरान जेल में बंद क्रांतिकारी वामपंथी एक्टिविस्‍टों के साथ गहरा राजनीतिक-वैचारिक जुड़ाव हो गया। जेल से बाहर आते ही अपने आंदोलनकारी साथी केडी यादव जी के साथ सीपीआई एमएल (तब पार्टी भूमिगत थी) की सदस्यता ग्रहण करके क्रांतिकारी वामपंथ के सक्रियकर्मी बन गए। 1980 में बिहार में गठित ‘देशभक्त जनवादी मोर्चा’ के महासचिव बने। 1981 में उस दौर के क्रांतिकारी किसान आंदोलन के केंद्रक संगठन ‘बिहार प्रदेश किसान सभा’ की राज्य संयोजन समिति के भी सदस्य बनाये गए। देश में जारी निरंकुशता विरोधी आंदोलन को एकजुट दिशा देने के लिए 1982 में क्रांतिकारी जनमोर्चा ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’ के स्थापना सम्मेलन में सर्वसम्मति से राष्‍ट्रीय महासचिव चुने गए। आईपीएफ के नेतृत्व में चले कई आंदोलनों में उन्हें राज्य व पुलिस दमन का सामना करना पड़ा। 1984 में हिलसा में आयोजित जनप्रतिरोध सभा को सैकड़ों की तादाद में सीआरपीएफ़ से घेरकर बर्बर लाठीचार्ज का प्रतिरोध करने पर उन्हें व उनके साथी राजेन्द्र पटेल समेत कईयों को गिरफ्तार कर लिया गया। कई महीनों तक पटना सेंट्रल जेल के “खतरनाक कैदियों वाले सेल” में बंद रहे। 1988 में अरवल में हुए पुलिस गोलीकांड व जनसंहार के खिलाफ हुए संयुक्त प्रतिरोध आंदोलन के केंद्रीय शिल्पकारों में वे भी रहे। जिसके ऐतिहासिक “विधान सभा घेराव” में नागभूषण पटनायक व अखिलेन्द्र प्रताप सिंह समेत उनकी पत्नी संगीता पर जो बर्बर पुलिस अत्यचार हुआ, विश्व स्तर पर उसकी चर्चा रही। सीपीआई एमएल के चौथे पार्टी महाधिवेशन (1988) से लेकर 2013 तक वे केंद्रीय कमिटी के सदस्य रहे। 2002-13 तक पार्टी केंद्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमैन की जवाबदेही निभाई।

वामपंथी आंदोलन के संघर्षों की भट्टी में तपे तपाये और सादगी-सहृदयता के प्रतीक राजाराम सीपीआई एमएल के राष्‍ट्रीय पहचान के रूप में रहे। जिन्होंने पार्टी और परिवार में कोई फर्क नहीं रखा। पत्नी संगीता समेत पूरा परिवार वामपंथी विचारों व आंदोलनों से एकाकार रहा। इकलौता पुत्र अभिषेक भी भाकपा माले का होलटाइमर और बिहार राज्य कमिटी के जोशीले युवा कार्यकर्त्ता के रूप में सक्रिय है।

निस्संदेह, राजाराम जी की आंदोलनकारी वामपंथी विरासत इस दौर की व्यापक वामपंथी कतारों के साथ साथ मौजूदा फासीवादी शासन के ख़ि‍लाफ़ जारी संघर्ष के सेनानियों को प्रेरित करती रहेगी।

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