विशेष: युद्धोन्माद नहीं, मनुष्य का मन तो शांति चाहता है
इन दिनों जब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से विदा ले रहा है और चीन, जो अब विश्व की नंबर वन अर्थव्यवस्था बन कर उभरा है, तब एशिया के कई देश घबराए हुए हैं। ऐसे देशों में भारत भी है। भारत को एक अनजाना भय सता रहा है कि अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से चले जाने से इस क्षेत्र में चीन का दख़ल बढ़ेगा। उसको लगता है, कि पाकिस्तान पहले से ही चीन के साथ दोस्ती कर चुका है और उसके दोनों अघोषित शत्रु उसे तंग करेंगे। यह भय ही दरअसल हथियारों की होड़ में फँसाता है और गरीब मुल्क इस होड़ में अपनी आय का बड़ा हिस्सा हथियारों की ख़रीद पर खर्च कर देते हैं। जबकि एक लोक कल्याणकारी सरकार के लिए अपनी सकल आय का बड़ा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य में करना चाहिए।
सत्य यह है, कि हम भले परमाणु हथियारों से लैस हों किंतु लोक स्वास्थ्य और लोक शिक्षा में बहुत पिछड़े हुए हैं। हम आँकड़ों की बाज़ीगरी में न भी जाएँ तो भी यह कोई लुकी-छिपी बात नहीं है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य विश्व के निचले पाँवदान पर है। यही हाल लोक शिक्षा का है।
दिल्ली में एम्स जैसे संस्थानों को छोड़ दें तो कौन-सा ऐसा अस्पताल है, जहाँ इलाज़ की समुचित व्यवस्था है? और एम्स में भीड़ इतनी है कि बिना किसी सिफ़ारिश के वहाँ आदमी का घुसना मुश्किल है। सरकार को जब इन उपक्रमों पर ध्यान देना था तब वह युद्ध का भय दिखा कर हथियारों की ख़रीद में जुटी है। सत्य तो यह है कि आम लोग युद्धोन्माद नहीं शांति चाहते हैं। युद्ध और हिंसा से प्रेम और शांति ज्यादा सुहानी एवं लुभानी होती है पर मनुष्य युद्ध प्रेम में पड़कर अपने चित्त की नहीं सुनता और झूठ के अहंकार में संहार करता रहता है।
इसी भारतवर्ष में ईसा से करीब ढाई शताब्दी पहले अशोक नाम के एक चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं। मगध साम्राज्य के इस शासक को अपने राज्याभिषेक के मात्र नौ वर्ष बाद ही एक भयानक युद्ध करना पड़ा और वह भी सिर्फ अपनी राज्य लिप्सा और अपने तब के प्रचलित नाम चंड अशोक को सार्थकता देने के लिए। दरअसल मगध के सुदूर पूर्व कलिंग का शासक खारवेल इस चंड अशोक को नमन नहीं करता था और न ही उसने मगध साम्राज्य की अधीनता स्वीकार की। इससे सम्राट अशोक बहुत खिन्न हुए और उन्होंने कलिंग पर चढ़ाई कर दी। कई महीनों तक चले इस युद्ध में करीब डेढ़ लाख सैनिक मारे गए और पूरा कलिंग श्मशान बन गया। कलिंग का पतन हो गया और उस राज्य में चारों तरफ मुर्दनी छा गई। जिधर नजर जाती बस लाशें ही लाशें। हर कोई उदास और दुखी। सम्राट अशोक ने अपने खड्ग के बूते कलिंग जीत तो लिया पर वह कलिंगवासियों के लिए खुशियां बन कर नहीं आ सके। सम्राट स्वयं इस जीत से इतना दुखी हुए कि उन्होंने भविष्य में युद्ध न करने का प्रण कर लिया। उन्होंने युद्ध को सदा-सर्वदा के लिए त्याग दिया और तब अशोक का नाम चंड अशोक से धर्म अशोक पड़ा।
अशोक के साम्राज्य में धुर दक्षिण को छोड़कर समस्त भारत और अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान भी था। पर इस सम्राट अशोक को युद्ध से ऐसी विरक्ति हुई कि वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। तब उन्होंने अपने साम्राज्य और उसके बाहर बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए कई उपाय किए। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने विभिन्न स्थानों पर कुल 84000 स्तूपों को बनवाया। चीनी यात्री फाहियान ने अशोक द्वारा निर्मित कलापूर्ण कृतियों के लिए लिखा है कि उनकी सुंदरता को देखकर मालूम होता है कि वे असुरों द्वारा निर्मित थीं। ह्वेनसांग तथा सुंगयुन ने भी अशोक की इमारतों का उल्लेख अपने यात्रा विवरणों में किया है। स्तूपों के अतिरिक्त सम्राट अशोक के द्वारा अनेक स्तंभ भारत के विभिन्न स्थानों पर लगवाए गए। इन स्तंभों पर तथा अनेक शिलाओं पर राजाज्ञाएं उत्कीर्ण कराई गईं। इनके द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ी सहायता मिली। इन स्तंभों में अशोक के जो उपदेश उत्कीर्ण कराए गए वे वही थे जिनमें युद्ध नहीं शांति की अपेक्षा की गई है। अपने तेरहवें शिलालेख में लिखा है कि कलिंग युद्ध के भीषण नरसंहार से वे कितना भाव-विह्वल हुए- “आठ वर्ष से अभिषिक्त देवताओं के प्रिय और दयावान राजा अशोक ने कलिंग विजय किया। इसमें डेढ़ लाख मनुष्य पकड़े गए और एक लाख मारे इससे भी अधिक आहत हुए। इसके बाद अब जीते हुए कलिंग देश में धर्म का बहुत पालन किया जाता है।“
सम्राट अशोक ने अपने राज्य के अधिकारियों को विशेष आज्ञाएं दे रखी थीं। इनमें कहा गया था “तुम सहस्त्रों प्राणियों के अधिकारी हो। हमारा कर्त्तव्य है कि भले आदमियों के हम प्रीतिपात्र बनें। मैं अपने पुत्रों के समान ही अपनी प्रजा का भी ऐहिक तथा पारलौकिक कल्याण चाहता हूं। अत तुम लोगों को ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे प्रजा का एक भी आदमी दुखी न हो।“ इनसे पता चलता है कि अशोक अपनी प्रजा के प्रति कैसा स्नेहभाव रखता था। और उसके कल्याण के लिए कितना दत्तचित्त रहता था। अपने इस भाव को बड़े सीधे-सादे रूप में अशोक ने अधिकारियों पर व्यक्त किया है और प्रजा के प्रति उन्हें सच्चे कर्त्तव्य की याद दिलाई है।
जाहिर है सम्राट अशोक प्रजा के जीवन में शांति चाहते थे।और वे अनावश्यक रूप से प्रजा को दुखी नहीं करते थे। सम्राट को पता था कि युद्ध से मनुष्य के जीवन में अशांति और दुख ही आता है इसलिए वे युद्ध को अयुद्ध में बदलने के हामी हो गए। अयुद्ध सिर्फ शांति तथा करुणा से ही आ सकता है। कलिंग के जौघड़ नामक स्थान पर सम्राट अशोक का दूसरा शिलालेख मिला है। इसमें भी सम्राट अपने महामात्रों को इस प्रकार के संदेश देते हैं- “तुम लोग प्रजा के साथ अच्छा बरताव करो, जिससे मेरे राज्य के बाहर वाले लोग भी मेरे ऊपर विश्वास करें। और वे समझने लगें कि जो अपराध क्षमा के योग्य होगा वह क्षमा किया जाएगा। तुम लोगों को मेरी इस आज्ञा का पालन अपना कर्त्तव्य समझ कर करना चाहिए। जिससे सभी लोग मुझे पिता के समान समझने लगें।”
अशोक के सारे शिलालेखों में प्रजाजनों को शांति व प्रेम से रहने की अपील की गई है। अशोक ने अपने तेरहवें शिलालेख यह शिलालेख (कालसी जिला देहरादून में मिला है) में लिखा है- “यवनों (उत्तर पश्चिम के यूनानी शासक) के अतिरिक्त अन्य ऐसा कोई राज्य नहीं है जहां ब्राह्मण और श्रमण साधु न रहते हों। इन राज्यों में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहां के निवासियों को किसी न किसी धर्म में अनुरक्ति न हो। इसलिए देवताओं का प्रिय अशोक चाहता है कि बुराई करने वाला भी यदि क्षमा के योग्य है तो उसे क्षमा कर देना ही मेरा अभीष्ट है। जंगलों के निवासियों को भी क्षमा किया जाता है जो देवताओं के प्यारे अशोक के राज्य में रहते हैं। क्षमा से वे लोग लज्जित होंगे और पापकार्यों से विरत होंगे।” अशोक के इन शिलालेखों से पता चलता है कि हमारे देश में युद्ध और हिंसा को कितना पापकर्म माना गया है।
युद्ध और हिंसा को व्यर्थ समझने की यह परंपरा हमारे यहां पुरानी हैं। युद्ध से युद्ध होता है उससे शांति, प्रेम व विश्व बंधुत्व का विकास नहीं हो पाता। मगर प्रेम से प्रेम फैलता है। महात्मा गांधी ने अपनी अहिंसा के बूते इस विश्व के सबसे बड़े साम्राज्य ब्रिटिश साम्राज्य को भी हिला दिया था। हृदय परिवर्तन कभी भी हिंसा या युद्ध से नहीं हुआ वह सदैव प्रेम व अहिंसा से हुआ है। पर यहीं यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि अहिंसा भी बलशाली को ही शोभा देती है। स्वयं महात्मा गांधी भी यह बात कहा करते थे कि अहिंसक हो जाने का मतलब कायर हो जाना नहीं है। अहिंसा को वही अपना सकता है जो वीर हो। क्षमा सदैव वीरों को ही शोभायमान होती है। रामधारी सिंह दिनकर ने कुरुक्षेत्र नामक अपने खंड काव्य में लिखा है-
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल है।
उसे नहीं जो विषहीन, विनीत और सरल है॥
यानी जब आप वीर होंगे तब ही आप किसी को क्षमा करने का साहस अपने अंदर ला पाएंगे। इसलिए आज जो युद्धोन्माद भरा जा रहा है, इसे समाप्त किया जाए। चीन से सीख लेनी चाहिए कि कैसे चीन, जिसकी आबादी हमसे अधिक है और जो हमसे दो वर्ष बाद स्वतंत्र लेकिन जनवादी गणराज्य बना, आज विश्व में अमेरिका से ऊपर अपनी आर्थिक हैसियत रखता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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