“एक राजनीतिक कार्यकर्ता के प्रेमपत्र, जो भेजे नहीं गए”
“एक राजनीतिक कार्यकर्ता के प्रेमपत्र, जो भेजे नहीं गए” यह नाम है अजय सिंह की नई कहानी का, जिसका पाठ मंगलवार, 9 अगस्त को गुलमोहर किताब की ओर से दिल्ली के पटेल नगर में किया गया। और इसी नाम को इस रपट का शीर्षक बना लिया गया है, क्योंकि इससे बेहतर शीर्षक भी दूसरा नहीं हो सकता था। यह नाम अपने आप में कई तरह की जिज्ञासा और बहस पैदा करता है और इस मौके पर हुई चर्चा में यह साफ़ दिखाई भी दिया। प्रबुद्ध श्रोताओं ने इस कहानी की जहां खुलकर तारीफ़ की, वहीं खरी-खरी आलोचना भी की। कुछ ने कहानी के फॉर्म को लेकर भी बात की तो कुछ ने कहानी के कथ्य को लेकर अपनी राय रखी।
लखनऊ निवासी कहानीकार अजय सिंह, मूलत एक कवि, पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन में सूअर (2015) और यह स्मृति को बचाने का वक़्त है (2022) आ चुके हैं। उनकी पहली कहानी सन् 1967-68 में छपी थी, जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे और अब 2022 में उनकी यह दूसरी कहानी सामने आई है। लेखक ने शुरू में ही साफ़ कर दिया था कि यह कहानी कई लोगों को असहज या असुविधाजनक लग सकती है।
कहानी के कुछ जानकारों को इस कहानी में कहानीपन की कमी की शिकायत रही, तो वहीं कुछ ने इस बात की प्रशंसा की कि एक कवि ने कहानी के साथ बहुत हद तक इंसाफ़ किया और अपने कविपन को दूर रखकर बेहद मेहनत और सधे अंदाज़ में कहानी कहने की कोशिश की है। कहानी के किरदारों ख़ासकर महिला किरदारों को लेकर भी काफी उत्तेजक बहस रही। हालांकि सभी ने कहा कि कहानी सुनने के तुरंत बाद उनकी यह पहली प्रतिक्रिया है, गंभीर विवेचन तो कहानी को ध्यानपूर्वक पढ़कर ही किया जा सकता है, इसलिए उनकी राय में बदलाव संभव है।
एक रेल यात्रा के दौरान लेखक या कहानी के नायक को मिले कुछ ‘प्रेम पत्र’ से शुरू हुई यह कहानी आपको आज के दौर से पुराने समय की यात्रा कराती है। यह कहानी आपको 1990 के दशक के दौर में ले जाती है, जहां राजनीति ख़ासकर वामपंथी राजनीति के भीतर काफी हलचल और सवाल हैं। विलोपवाद की बहस है। नये हालात से लड़ने के लिए नये औज़ारों की ज़रूरत, जिसे आज भी पुरज़ोर तरीके से रेखांकित किया जा रहा है, की मांग है, बहस है। ऐसी बहस उठाने वाले वामपंथियों को विलोपवादी के नाम पर दुश्मन करार कर अलग और अकेला कर दिए जाने की राजनीति और रणनीतियां हैं।
पुरुषवाद की छवियां भी हैं तो स्त्री विमर्श भी। प्रेम की पुकार है तो यौन स्वीकारोक्तियां भीं। और धर्म पर प्रहार भी।
कुल मिलाकर कुछ प्रेम है, कुछ काम है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की तरह— “हम जीते-जी मसरूफ़ रहे... कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया”। हालांकि यहां काम कुछ या कम नहीं ज़्यादा ही है। काम यानी राजनीतिक कर्म। प्रेम पत्र के बहाने शुरू हुई कहानी आपको एक व्यापक संदर्भ में राजनीतिक बहस में ले जाती है।
जैसे पहले कहा कि अजय सिंह मूलत: एक कवि हैं। लेकिन उनकी कविता को लेकर भी जो बात कही जाती है, वही उनकी कहानी को लेकर भी कही जा सकती है। लेखक के परम मित्र कवि मंगलेश डबराल, जिनका नाम इस कहानी में भी आता है, के हवाले से कहा जाए कि— “अजय की कविताओं में जो प्रेम—राजनीति, सुंदरता—राजनीति यह जो एक नया आयाम आया है, बहुत अच्छा है। किस तरह प्रेम और राजनीति में कोई अंतर नहीं है, क्रांति और प्रेम में कोई अंतर नहीं है, सुंदरता और क्रांति में कोई अंतर नहीं है। यह एक बहुत अच्छी बात है।”
मंगलेश डबराल ने यह टिप्पणी अपने निधन से पहले 2019 में अजय सिंह की नई कविताओं को सुनकर की थी। इसे अजय सिंह के 2022 में आए दूसरे कविता संग्रह “यह स्मृति को बचाने का वक़्त है” में भी दर्ज किया गया है।
बिल्कुल यही बात अजय सिंह की इस नयी कहानी पर खरी उतरती है। यहां भी प्रेम और राजनीति, प्रेम पत्र और राजनीतिक पत्र में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है। प्रेम और क्रांति एकाकार है।
इसी बात को कहानीकार योगेंद्र आहूजा भी दर्ज करते हैं। वे कहते हैं कि जिस बात की उम्मीद अजय सिंह की कविताओं से रहती है कि वे हमें बेहद ज़रूरी बात बताएंगी, जिन्हें जानना आज की ज़रूरत है, वही बात या शर्त उनकी यह कहानी पूरी करती है। योगेंद्र कहते हैं कि एक कवि ने बहुत सतर्कता और मेहनत से अपने कवि को दूर रखकर एक कहानी कही।
इससे पहले आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी कहानी में कहानीपन कम होने की बात करते हैं और इसे एक संस्मरण या आत्मकथा का हिस्सा होने की बात करते हैं, जिसे कहानी के नाम पर पेश किया गया। हालांकि बहुत लोग इस बात सहमत नहीं होते और पत्रकार-उपन्यासकार अंजली देशपांडे कहती हैं कि कहानी के कई फॉर्म हो सकते हैं और जब लेखक इसे कहानी कह रहा है तो वे इसे कहानी मानकर ही पढ़ेंगी। साथ ही वह कहानी की संरचना को काफी जटिल बताती हैं।
नाटककार राजेश कुमार कहते हैं कि अजय सिंह ने इस कहानी में तीन फॉर्म इस्तेमाल किए हैं। कहानी चिट्ठी सुनाने से शुरू होती है, लेकिन थोड़ा आगे जाकर ही लेखक इस फॉर्म को तोड़ देता है और फिर आत्मकथात्मक तरीके से कहानी आगे बढ़ती है, और फिर लेखक रेल यात्री के तौर पर कहानी बयान करता है।
कहानीकार और समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट कहानी की समालोचना में कहते हैं कि लेखक काफी आत्ममुग्ध नज़र आ रहा है। कहानी में नायक का नाम भी अजय ही है। इसको आधार बनाकर भी अजय सिंह से सवाल पूछे जाते हैं। कहानी में उनके कई समकालीन कवियों और लेखकों के नाम भी आते हैं, इसलिए कई जगह यह कहानी वाकई संस्मरण या आत्मकथा होने का एहसास पैदा करती है। हालांकि लेखक कहानी की शुरुआत में ही वाचक या नरेटर की तरफ़ से एक डिस्क्लेमर जारी कर देता है कि “ये कहानी न तो संस्मरण है, न जीवनी, न आत्मवृतांत, न आत्मकथा। यह अगर कुछ है तो कल्पना से बुना गया ताना-बाना।” हालांकि सुनने वाले समझ जाते हैं कि लेखक को ये डिस्क्लेमर देने की ज़रूरत क्यों पड़ी। फ़िल्मों से अलग साहित्य में आमतौर पर लेखक डिस्क्लेमर तभी देता है जब उसकी रचना में वास्तव में गहरी सच्चाई होती है।
कार्यक्रम में मौजूद अर्थशास्त्री और लेखक नवशरण कौर और अंजली देशपांडे कहानी के स्त्री पात्रों को लेकर काफी गहराई से विश्लेषण और समीक्षा करती हैं। कहानी में दो स्त्री पात्र मुख्य हैं। अंसारी सुजाता और नैना जोगिन। अंसारी सुजाता की ही चिट्ठियां इस कहानी का मूलधार यानी बुनियाद हैं जिसपर पूरी कहानी खड़ी होती है। वह अपने पुरुषसाथी से एकनिष्ट प्रेम की मांग करती है, जबकि नैना जोगिन एक बेहद आज़ाद ख़्याल और विद्रोही महिला है। जिसे लेखक ने बीहड़ महिला की संज्ञा दी है। वह प्रेम और सेक्स को लेकर भी स्वतंत्र विचार रखती है।
पत्रकार इंदिरा राठौर भी लेखक से नैना जोगन पर एक स्वतंत्र कहानी का आग्रह किया।
लेखक-पत्रकार चंद्रभूषण ने कहानी में विलोपवाद की बहस के संदर्भ में अपने विचार रखे और इस पर अलग से और विस्तार से लिखने की ज़रूरत बताई।
कवि-संस्कृतिकर्मी शोभा सिंह ने इस कहानी में उपन्यास बनने की संभावना बताई।
पत्रकार अतुल सिन्हा ने कहा कि अजय सिंह एक सशक्त कवि हैं हालांकि कहानी से वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं हुए हैं। यह उनकी दूसरी कहानी है। शायद कुछ कहानियों के बाद उनका कहानीकार रूप भी पूरी तरह सामने आए।
अन्य लोगों ने भी कहानी के बारे में अपने-अपने विचार रखे। लेखक ने बड़े ध्यान से सभी की बातें सुनीं और सवालों के जवाब भी दिए। लेखक अजय सिंह ने बताया कि यह कहानी किस तरह कई सालों से उनके दिमाग़ में चल रही थी। कहानी में लेखक का नायक या वाचक/नरेटर के तौर पर मौजूद होने पर भी उन्होंने कहा कि इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि लेखक कहानी का हिस्सा नहीं है। लेखक के अपने इंप्रेशन निश्चित तौर पर कहानी में हैं। कहानी की रचना, फॉर्म या प्रक्रिया पर भी उन्होंने अपनी बात रखी और इसे कहानी कहने का एक तरीका बताया। उन्होंने इस फॉर्मेट की कई कहानियों का जिक्र किया। कहानी के अच्छी-बुरी होने के सवाल पर उन्होंने कवि मुक्तिबोध की भी उदाहरण दिया कि अगर आज के दौर में उनकी कहानी छपती तो बहुत लोग उसे भी ख़ारिज कर देते। उन्होंने कवि शमशेर बहादुर सिंह की कहानी का भी उदाहरण दिया और स्त्री विमर्श या स्त्री मुक्ति के सवालों पर भी अपनी समझ रखी।
कार्यक्रम का संचालन कवि-पत्रकार मुकुल सरल और भाषा सिंह ने बारी-बारी से किया। इस मौके पर बेजवाड़ा विल्सन, अतुल सूद, कृष्ण सिंह, राम शिरोमणि शुक्ला, उपेंद्र स्वामी, नाज़मा ख़ान, सुलेखा सिंह, खिलखिल, सोनिया यादव, रोहित, मुकुंद झा, प्रबल, हर्षवर्धन समेत बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी मौजूद थे। इनमें नौजवानों की संख्या भी उल्लेखनीय थी।
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