इतवार की कविता: मैं मरूंगी नहीं, अभी…
मैं मरूंगी नहीं, अभी…
उमर का फंडा
छोड़ो यार
यूं भी उम्र सिर्फ़ सर्फ़* ही हो रही
जल रही देह की ऊर्जा
फिर जाना तो सभी को है
मैं मरूंगी नहीं
अभी…
जब तक सड़कों पर
मुट्ठियां ताने लोग हैं
नफ़रत उगलते समय में
अपने भीतर के भय को
उन्होंने हराया
वे बेख़ौफ़ उतर आए
प्रतिकूलता के विरुद्ध लड़ाई में
प्रतिरोध की उठती आवाज़ों को जोड़ते
गतिरोध से टकरा जाने का
जज़्बा लिए हुए
तनी मुट्ठियों से जोश से भीगीं नसें चमकती
मज़बूत इरादों के साथ
सुर्ख़ सवेरे का सपना लिए
चेतना से जड़ के बीच भी
अपने नारों से दाग रहे
आज और कल के वाजिब सवाल
फूलों सी प्यार की बोली-बानी से
नफ़रत के दिए घाव की चारासाज़ी* करते
और यूं प्यार का निषेध करने वालों को
माकूल जवाब देते
राहत देने वाले शब्दों को विस्तार देते जाते
शायद यह रपटीला रास्ता था जो
एक साथ निथार रहा
अमृत और विष
बीते दिनों का तकाज़ा था पुनः याद दिलाना
न्याय संघर्ष से ही
संस्कृति की वैचारिक निर्मिति होती है
जले सपनों को फिर-फिर भरोसा दिला
ग़म से फटे मन की रफ़ूगरी करते
जाड़े की सुखद धूप सा सुखद दृश्य
देखा है मैंने
मेरी धमनियों में लहू तेज़ी से दौड़ता है
जीवन के लिए ज़रूरी ऊर्जा
यहीं से खींच कर निकाल लेती हूं
ओस की शक्ति बूंद-सा
सहेज लेती हूं आबे हयात
एक नई सी शुरुआत
सक्रिय श्रम हमें अर्थवान बनाता
हमारे हिस्से का नीला आकाश मोहक
हम अपने समय को रचने की
सामर्थ्य भर कोशिश करते हैं
काश मेरी उम्मीद का दामन
यू हीं सलामत रहे
मैं अपनी बूढ़ी आंखों से
इस्तक़बाल करती रहूं
नए इंसान का |
…
(*सर्फ़- ख़र्च, *चारासाज़ी- इलाज, मदद)
नहीं छोड़ेंगे, अपना घर-जंगल-ज़मीन
क्रूर समय से टकराते हुए
बचे रहने और उजाड़ दिए जाने के
बीच का संघर्ष
था
सुदूर पिछड़े शांत इलाके में
घुमड़ते ख़ूंख़ार अंधेरे
घेरते आ रहे
उनकी दुनिया में
दाख़िल होते लोभ के मंसूबों से
ऊंची शख़्सियतें
जंगल ज़मीन से बेदख़ल करने
धरती से जुड़े जन
आसन्न ख़तरे को भांप लेते
रात अलख जगाती
सघन पेड़ उनकी गुप्त मंत्रणा में
पास सरक आते
छोर विहीन रहस्यमय आकाश सिमट
उनके सिर पर झुक आता
तारों की सितारा जड़ी चादर ओढ़
प्रकृति संताने मंथन करती
कैसे मुक्ति मिले साथियो
इस नए दिकू* से
जीवन बली है हम मानते हैं
आंधी से नन्हे दीप को बचाना है
उनके सच से
जीवन संघर्ष से जुड़ गई
रात की नीरव रहस्यमयता
उनकी धरती पर पसरी
फूलों में पसरी घनीभूत ताज़गी
साहस का पैमाना बन
छाती में भरती जाती
इस मिट्टी में दफ़्न हुए
हमारे पूर्वज
उनकी स्मृतियां
तारों की टिमटिमाहट में
सांत्वना के पिघले मीठे शब्द
हवा कानों में गुनगुना जाती
सुरमई भोर को सहेजे हमारे रास्ते
अखंडित आकाश सा हमारा प्रेम
महुए सा मादक
भरपूर उजाले अंधेरे का प्यारा घर
सपना जो उनका अपना है
कभी नहीं छोड़ेंगे
अपना जंगल ज़मीन
गांव पहाड़ नदी
अपना घर
आबाद बस्ती
उनकी गुहार में गर्जना थी
क्या दरकी होगी
लोभ की लिप्सा
या वे हथियारबंद हुए
हमलावर हुए
क्रूरता की पराकाष्ठा बिखेरते
यह तो समय के इतिहास में दर्ज
हुआ होगा
दरकी धरती के बयान में था
मिट्टी के घरों में
फूल की हंसी के साथ
राह में बाधक पत्थरों को ठेलती
बह निकली
जलधारा
जीवन को नए अर्थ
नया रूप ,परिभाषा नई
गढ़ती हुई।
…
(*दिकू- दिक-दिक करने वाला, शांति से जीवन यापन करने वाले आदिवासियों को तंग परेशान करने वाला, ज़मींदार या उसके कारिंदे)
- शोभा सिंह
कवि-संस्कृतिकर्मी
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।