मनरेगा की बदहाली से जुड़ी वह जानकारी जो सबको जाननी चाहिए
कोरोना महामारी के दौर में पूरी दुनिया की आर्थिक गतिविधियां रुक गयी थीं। अपने जीवन को बचाने के लिए भारत के शहरों से मजदूरों ने गांवों की तरफ पलायन किया था। वैसे समय में मनरेगा लाखों ग्रामीण परिवारों के साथ शहरों से गाँव लौटे मजदूरों के लिए रोजागर का सबसे बड़ा सहारा बनकर उभरा था। मनरेगा के तहत हर ग्रामीण परिवार को न्यूनतम मजदूरी के तहत 100 दिनों के रोजगार की गारंटी होती है। इस मनरेगा योजना से जुडी खामियों को दूर करने के मांग को लेकर दिल्ली के जंतर - मंतर पर देश भर से मनरेगा के मजदूर और मनरेगा पर काम करने वाले कार्यकर्त्ता जुटे हैं। यहाँ पर हो रही चर्चाओं से कुछ मनरेगा को लेकर कुछ जानकरियां मिली हैं, उसे ही इस लेख में साझा किया गया है।
साल 2019 में अनूप सतपति कमिटी ने मनरेगा के तहत दी जाने वाली राष्ट्रीय स्तर की न्यूनतम मजदूरी की सीमा 375 रूपये प्रतिदिन तय की थी। मतलब मनरेगा के तहत प्रति दिन काम करने वाले मजदूर को 375 रूपये से कम नहीं मिलना चाहिए। हकीकत यह है कि वित्त वर्ष 2022 में भी किसी भी राज्य में 375 रूपये प्रति दिन की मजदूरी नहीं मिल रही है। औसतन देखा जाए तो प्रति दिन के मनरेगा मजदूरी और राष्ट्रीय स्तर की न्यूनतम मजदूरी के बीच 13.8 प्रतिशत का अंतर है। जो न्यूनतम मजदूरी की सीमा राज्यों की तरफ से तय की गयी है, वह भी राज्य अपने मनरेगा मजदूरों को नहीं दे रहे हैं। कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहाँ राज्य की न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा मनरेगा के मजदूरों की प्रतीदिन की मजदूरी हो।
इसके साथ महंगाई को जोड़ दिया जाए तो हालत बद से बदतर दिखती है। पहली बात तो यही है कि न्यूनतम मजदूरी से ज्यादा किसी भी राज्य में मनरेगा मजदूरों को मजदूरी नहीं मिल रही यानि पहले से ही इनकी हालत ऐसी है जो महंगाई से नहीं लड़ सकती। दूसरी बात यह कि जिस दर से सरकारों ने मनरेगा की मजदूरी बढ़ाई है, उस दर और महंगाई की दर के बीच तकरीबन 4.7 फीसदी का अन्तर है। यानी सरकार ने मनरेगा मजदूरों की जो रत्ती भर मजदूरी बढ़ाई है, उसे बढ़ाते वक्त मनरेगा मजदूरों पर पड़ने वाली महंगाई की मार पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया है।
भाजपा सरकार की बदहाल आर्थिक नीतियों की वजह से पिछले कुछ सालों की बढ़ती हुई बेरोजगारी हर दिन भयंकर रूप लेते जा रही है। मनरेगा के तहत मजदूरी मांगने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। इस साल तकरीबन 3.1 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत मजदूरी मांगी है, जो साल 2006 के बाद जब से यह योजना लागू हुई तब से सबसे अधिक है।
इसके बावजूद भी भाजपा सरकार मनरेगा के लिए आबंटित की जाने वाली हर साल की बजटीय राशि बढ़ाने के बजाए घटाने में लगी हुई है। वीत्त वर्ष 2022 - 23 के तहत मनरेगा के लिए 73 हजार करोड़ की राशि आबंटित की गयी थी। जुलाई 2022 तक का हाल यह है कि तकरीबन 48 हजार करोड़ की राशि खर्च हो गयी है। यानी वित्त वर्ष के 8 महीने बाकी हैं और मनरेगा का दो तिहाई बजट खत्म हो गया है। मौजूदा वक्त में तकरीबन 15 करोड़ लोगों की जीविका का सहारा मनरेगा पर वर्ल्ड बैंक का कहना है कि इस पर कुल जीडीपी का तक़रीबन 1.6 प्रतिशत खर्च होना चाहिए। मगर वित्त वर्ष 2022 -23 में इस पर कुल जीडीपी का महज 0.3 प्रतिशत खर्च हुआ। इन सबका सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि मनरेगा के तहत मजदूरी समय से नहीं मिल पाती है। अब तक केंद्र सरकार पर तकरीबन दस हजार करोड़ रूपये का बकाया है। जितनी मजदूरी मिलती है, उससे घर नहीं चल पाता है। मगर मजदूरों पर जीवन काटने का और कोई चारा नहीं है, इसलिए यहाँ पर काम ढूढ़ने वालों की बाढ़ आ रही है। मनरेगा को लेकर मोदी सरकार का कामकाज उसी चाल पर है जो नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में संसद में कहा था कि मनरेगा यूपीए सरकार की असफल नीतियों का परिणाम है। धीरे -धीरे इस योजना के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिए कि यह खुद ही दम तोड़ दे।
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