एक व्यापक बहुपक्षी और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता
दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक, भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने की ओर अग्रसर है। भारत धर्म, भाषा, जाति और जनजाति में अविश्वसनीय रूप से विविध है। भारत के 1.4 अरब लोगों में से 80 प्रतिशत के करीब हिंदू हैं, लेकिन लाखों मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध जैन और नास्तिक भी हैं। भारत की जाति व्यवस्था लगभग 2,000 साल पुरानी एक सामाजिक पदानुक्रम है, जो हिंदुओं को जन्म के समय वर्गीकृत करती है, समाज में उनकी जगह तय करती है। पदानुक्रम के निचले भाग में दलित ("अछूत") और आदिवासी हैं, जो मिलकर भारत की आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा बनाते हैं। ये समूह समाज से बहिष्कृत हैं, सामाजिक और आर्थिक हाशिए पर और भेदभाव का सामना कर रहे हैं। यद्यपि भारत का संवैधानिक ढांचा समूह-विभेदित अधिकारों को मान्यता देता है, देश ने हाल के वर्षों में दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उदय के कारण असहिष्णुता के बढ़ते माहौल का अनुभव किया है। वास्तविक चिंता इस बात की है कि पिछले 70 वर्षों में भारत की समावेशी नागरिकता नीतियों और कल्याणकारी ढांचे को ध्वस्त किया जा रहा है, जिससे देश के बहुलतावादी ताने-बाने को खतरा है।
मूलरूप से जाति की व्यवस्था आज भी अनेक लोगों के जीवन को प्रत्यक्ष प्रभावित कर रही है। आदिवासी, मुस्लिम और तथाकथित निम्न जाति या अस्पृश्य समुदायों को उनके सामाजिक स्तर की वजह से भेदभाव और गंभीर उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वे समाज में हाशिये पर हैं और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।
इस तथ्य के बावजूद कि अस्पृश्यता को आधिकारिक तौर पर 1950 में भारत के द्वारा अपना संविधान अपनाए जाने पर प्रतिबंधित किया जा चुका है, मगर फिर भी निचली जातियों और मुसहर के खिलाफ भेदभाव व्यापक स्तर पर मौजूद हैं। जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकने के लिए, सरकार ने 1989 में एक क़ानून पारित किया, जिसे ‘अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम’ कहा जाता है। अधिनियम ने विशेष रूप से लोगों को सड़कों पर नंगा घुमाना, उनकी जमीन जबरदस्ती ले लेना, उन्हें मल खाने के लिए विवश करना, उनके पानी को ले लेना, उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित करना और उनके घरों को जला देना प्रतिबंधित है। कई बार कई समुदायों के लोगों के छोटे बच्चे स्कूल में प्रवेश नहीं ले पाते हैं, क्योंकि उच्च जाति अपने बच्चों को मुसहर बच्चों के साथ पढ़ने देना नहीं चाहते हैं। तब से अपने अधिकारों की मांग और अस्पृश्यता के नियमों का विरोध करने के लिए जमीनी स्तर पर दलित समाज में मानवाधिकार आन्दोलन के उभरने के कारण उन्हें दबाने के लिए और ‘चुप्पी की संस्कृति’ को कायम करने के लिए हिंसा बढ़ गयी है।
भारत में मानव अधिकारों के गंभीर उल्लंघन, हिरासत में यातनाओं के व्यापक उपयोग अधिकतर जाति आधारित भेदभाव से नज़दीकी रूप से जुड़े हुए हैं। अपराध जांच के संदर्भ में, संदिग्धों के बयान को स्वीकार करने के लिए कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है। मामलों की जांच के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी की अनुपस्थिति के कारण अक्सर शिकायतें उचित रूप से प्रमाणित नहीं होतीं और अपराधियों पर न तो कभी मुकदमा ही चल पाता है और न ही दंडित किया जाता है। महिलाओं और लिंग आधारित हिंसा में भेदभाव, जिसमें घरेलू हिंसा, दहेज से जुड़े हिंसा, एसिड हमलों, यौन उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न और लिंग आधारित चयनात्मक गर्भपात शामिल हैं, भारत में सबसे अधिक प्रासंगिक मानव अधिकारों के मुद्दे हैं।
दण्डहीनता की संस्कृति
देश की मुख्य समस्याएं दो चीजों से उभरती हैं: 'दण्डहीनता की संस्कृति' का कार्यान्वयन, जो एक साझा विश्वास है कि कुछ लोग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर, और बाजार लोकतंत्र और आर्थिक वैश्वीकरण के संदर्भ में संज्ञानात्मक समस्या में अपने कामों के प्रति जवाबदेह नहीं हो सकते हैं। यह स्पष्टीकरण बताता है कि कैसे संज्ञानात्मक और प्रासंगिक इन दो कारकों के संयोजन से एक नवफासीवाद राज्य का उदय हो रहा है - एक सत्तावादी राज्य है, जो एक राज्य-राष्ट्र को एक फासीवादी-राष्ट्र बनाना चाहता है - और एक आक्रामक नव-उदार पूंजीवाद का कार्यान्वयन - जो सामाजिक और आर्थिक अन्याय बनाए रखता है इस तरह, हम देखेंगे कि “नवफासीवादी हिंदुत्व परियोजना” का उपयोग जाति के वर्चस्व को कायम रखने के लिए किया जाता है और भारतीय नेताओं को देश को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों को बेचकर लाभ का अनुभव कराता है। इसके अलावा इस आर्थिक नियामक ने निम्न जातियों को हाशिए पर पहुंचाया है और यही कारण है कि जातियों पर आधारित सामाजिक विभाजन मजबूत हो रहा है।
यही कारण हैं कि हम सभी क्षेत्रों के शूद्र और अतिशूद्रों के संयोजन के साथ-साथ 'नवदलित' आंदोलन के निर्माण का आह्वान करके इस स्थिति को सही करने और बदलने का प्रस्ताव देते हैं, जहां सभी समुदायों से नेताओं के बीच विचार एकत्र करने के माध्यम से 'दण्डहीनता की संस्कृति' के खिलाफ लोकप्रिय आंदोलन तैयार करेंगे।
हमारे देश की बहुमुखी समस्याएं परस्पर जुड़ी हुई हैं, इन को समझने और हल करने के लिए, हमें पूरी तरह से गंभीर समस्या को देखना चाहिए। हमें एक व्यापक बहुपक्षी और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों को ध्यान में रखता है। दलित आत्मसम्मान आंदोलन के लक्ष्य के साथ जाति के अनुभव की विविधता पर ध्यान केंद्रित करना, दलित आत्मसम्मान को मजबूत करने की प्रक्रिया में स्थायी ढांचागत परिवर्तन बनाने की दिशा में एक प्राथमिक कदम का प्रतिनिधित्व करता है।
बहुआयामी दृष्टिकोण: नायकों और कारको के लिए
वैश्विक विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था में एक 'विकासशील अर्थव्यवस्था' के रूप में, देश वस्तुओं और पूंजी के लिए खुद को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में और स्थापित करने के लिए अधिक से अधिक प्रयास कर रहा है। यह आश्चर्यजनक आर्थिक विकास खूबसूरती से लोकतंत्र की स्थापना के साथ है, और भारत को एक निर्माणाधीन स्वर्ग के रूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन यह सुंदर मुखौटा कई अनुचित प्रक्रियाओं जैसे गरीबी, क्रूरता और प्रकृति का विनाश को छिपाता है। आइए, आर्थिक नीतियों के संदर्भ में इन प्रक्रियाओं की समीक्षा करें।
हम भारतीय आर्थिक नीति को नवउदारवाद को एक क्रूर 'मौन' के रूप में बदलते हुए देख सकते हैं, जो कई तरह के आडम्बरों में घिरा हुआ है। एक तरफ, राजनेता कच्चे माल के भंडार के रूप में भारत का उपयोग करते हैं। वे बड़े व्यावसायिक घरानों को प्रकृति का फायदा उठाने की अनुमति देते हैं, और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करते हैं, जो ग्रामीण लोगों की प्राणवायु है और जो वे कई दशकों से उनकी रोजी रोटी का साधन है। वे सभी प्रमुख आधारभूत ढांचों जैसे जल, बिजली, स्वास्थ्य, दूरसंचार, परिवहन, शिक्षा, प्राकृतिक संसाधनों को निजी कंपनियों के हाथों में भ्रष्ट प्रक्रियाओं के माध्यम से पैसा बनाने के लिए बेच देते हैं। राज्य और भूमि की निजीकरण प्रक्रिया को विश्व बैंक (डब्ल्यूबी), अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसे - नवउदारवादी वैश्विक संस्थानों द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है।
दूसरी तरफ लोगों को राजनीतिक और आर्थिक नेताओं द्वारा उन्हीं की प्राकृतिक पूंजी से वंचित कर दिया जाता हैं। उन्हें सरकार द्वारा उठाए गए क्रूर क़दमों का विरोध करने पर जनांदोलनों को कुचलने के लिए हर तरह के कदम उठाकर दबाया जाता है। पुलिस अत्याचार का इस्तेमाल करती है, सच बोलने की हिम्मत करने वाले निर्दोष नागरिकों को कुचलने के लिए सेना को बुलाया जाता है। राज्य के नागरिकों की रक्षा करने वाली राज्य की मशीनरी और खतरनाक कानून जो उन्हें मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए किसी भी दंड से सुरक्षित बनाते हैं –जैसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम और सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम, को इन लोगों के खिलाफ अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाता है, जो इन नीतियों की मुखालफत करने की हिम्मत करते हैं, और इस प्रकार साधारण जनता को खतरनाक आतंकवादियों के साथ खड़ा कर दिया जाता है। और इसी समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बचाने और उनको वित्तीय और कानूनी लाभ प्रदान करने के लिए कई तरह के कानूनों को लागू किया जाता है जिसे हम 'फ्री मार्केट' कहते हैं|
इस प्रकार, बड़े कम्पनियों के लिए भारतीय नेताओं ने एक अच्छा 'निवेश माहौल' बना दिया है | वे कुछ और नाम मात्र की औपचारिकताओं के साथ इन कंपनियों को उनके सभी अधिकारों और हर प्रकार की दायित्वहीनता (जबाबदेही से दूर) के साथ उनके खतरनाक आर्थिक खेल खेलने की अनुमति देते हैं। इससे भारत को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए एक खूबसूरत सपने में बदल दिया जाता है, हालांकि वे ग्रामीण और शहरी श्रमिकों के लिए दैनिक रूप से शोषक ही रहते हैं। इसके अलावा, हमें यह समझना चाहिए कि यह स्थिति खतरनाक है, न केवल इसलिए कि यह एक निरंकुश सत्तावादी शासन की स्थापना को दर्शाती है, जो दण्ड से मुक्ति के साथ क्रूर राजनीतिक दमन की अनुमति देता है, बल्कि यह राजनीतिक दण्डहीनता के साथ आर्थिक रूप से कॉर्पोरेट के लिए ‘कॉर्पोरेट की दण्डहीनता’ की नीति लागू करता है।
लेकिन “दण्डहीनता की संस्कृति” की इस राजनीतिक और आर्थिक संस्कृति को केवल भारत के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में खुलने या सार्वजनिक और निजी संस्थानों में संक्रमण करने वाली भ्रष्ट प्रथाओं द्वारा पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता है। उन बाह्य कारकों के पीछे, एक संज्ञानात्मक आंतरिक कारण है, जिन्हें समझना बहुत ही महत्वपूर्ण है जैसे जाति व्यवस्था और जातिवाद से भरा मन।
भारतीय समाज कई सदियों से हिन्दू धर्म के भीतर पिरामीड की तरह ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद) के आधार पर ही सख्त और कठोर सामाजिक पदानुक्रम का पालन करता हुआ आया है। जाति व्यवस्था को बहुत से लोग गलत तरीके से हिंदू धर्म के रूप में देखते हैं। जाति व्यवस्था एक सामाजिक व व्यवस्थागत संगठन है, जो ऊंची जातियों को जो करना चाहते हैं, उन्हें करने देता है, जिनमें नीच समझे जाने वाली जातियों और महिलाओं को मनोवैज्ञानिक और शारीरिक यातनाएं देना शामिल है। निम्न जातियों को इस सार्वभौमिकता को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है कि यह भगवान की बनाई हुई व्यवस्था है| मगर यह वास्तव में चुनिंदा मनुष्य के द्वारा लागू की गयी एक असमान सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था है। यह विश्वास निम्न और ऊंची जातियों के लिए क्रमशः निम्नता और श्रेष्ठता का संज्ञानात्मक स्थान निर्मित करता है। दुर्भाग्य से, यह जाति और सामाजिक दण्ड से मुक्ति के एक राष्ट्रीय संस्कृति के कार्यान्वयन की अनुमति देता है जो भय, दर्द और निचली जातियों के आत्मसम्मान की कमी के कारण उत्पन्न मौन संस्कृति के चलते पैदा होती है।
लेकिन कहानी यहीं नहीं रुकती है, क्योंकि ये सभी 'दण्डहीनता की संस्कृतियां', जो ‘अल्पसंख्यक फासीवाद समूह को बहुमत जनता पर शासन और शोषण करने की अनुमति देती हैं| नागरिक समाज संगठनों और प्रतिरोध आंदोलनों जो जातिगत व पितृसत्तात्मक संज्ञानात्मक और सामाजिक पिरामिड को या तो एकदम बदल देना चाहते हैं या समतल कर देना चाहते हैं, को फासीवादी ताकतें तबाह करने पर तुली हैं। वहीं दूसरी तरफ, सत्ताधारी साम्प्रदायिक नफरत के माध्यम जाति के निचले पायदान पर रखी गयी बहुमत को विभाजित करने और उनका ध्यान भारत के महत्वपूर्ण मुद्दों से हटाने के लिए कई माध्यमों का उपयोग करते हैं। आतंकवाद के कृत्यों से लोगों की 'रक्षा' के लिए कठोर कानून बनाने के नाम पर वे अपनी शैतानी योजनाओं को ही आगे बढाने के लिए तैयार होते हैं। यही नही, सामन्तीवादी जातिवादी लोग न्यायिक व्यवस्था को भी हमले से कब्जा करने और प्रगतिशील कानूनो को बरबाद करने का काम करते हैं|
इसलिए, राजनीतिक दण्डहीनता और आर्थिक दण्डहीनता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें सामाजिक दण्डहीनता कहा जाता है।
सामाजिक कार्यकर्ता, जो दलितों, जनजातियों के अधिकारों का बचाव करना चाहते हैं और जातिगत पितृसत्तात्मक व्यवस्था के आलोचक होते हैं, मानवता के प्रति नफरत का प्रदर्शन करते हुए उन्हें पुलिस और सेना द्वारा मार डाला जाता है। हालांकि, नवउदारवाद उच्च जातियों और बड़े कोर्पोरेट को लाभ उठाने की अनुमति देता है, क्योंकि लोग धार्मिक मुद्दों पर एक दूसरे से लड़ते हैं या क्योंकि वे ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना पर हमला करने की हिम्मत नहीं करते।
गरीब बहुमत की यह स्तरीकृत और विभाजनकारी प्रक्रिया उन लोगों की मदद करती है, जो अपनी शक्ति बनाए रखने की कोशिश करते हैं। वे अपनी सामाजिक स्थिति को संरक्षित करने के लिए पुराने तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। वे जानते हैं कि नफरत ही नफरत को पैदा करती है| यह एक सार्वभौमिक कानून है और जब सरकार और उसके नेताओं ने अपने स्वयं के नागरिकों के बीच सांप्रदायिक नस्ल का शिकार करना शुरू किया और सत्तावादी राजनीतिक दमन का अभ्यास किया, तो वे 'नवफासीवादी' राज्य को जन्म देता हैं, क्योंकि वे मतभेदों के खिलाफ नफरत की राष्ट्रीय संस्कृति या राष्ट्र के लिए अंधे प्रेम का निर्माण करते हैं|
कई गहन प्रश्न और विश्लेषण हैं। क्या कुछ राजनीतिक नेता अपनी शक्ति का संरक्षण करने के लिए समाज को बांटना चाहते हैं? या क्या यह हिन्दुत्व (ब्राह्मणवादी फासीवादी) बलों का असली उद्देश्य है कि लोगों को परंपरागत सत्ता संरचना - ऊंची जातियों - को ही देश में सत्तारूढ़ रखने के लिए और अपने व्यवसायों को आर्थिक नेताओं के साथ जारी रखने की अनुमति देने के लिए विभाजित करते रहे? या फिर जो लोग नरसंहार और जन हत्याओं को बढ़ावा देते हैं, वे दण्डहीनता व अन्याय के साथ ऐसा कर सकते हैं और यह वास्तव में उन्हें इसके लिए पुरस्कृत किया जा रहा है?
गुजरात नरसंहार का उदाहरण और भारत के 16वें संसदीय चुनाव के फैसले को देखने से यह पूरी तह से स्पष्ट है कि नवफासीवाद और सत्तावादी हिंदुत्व परियोजना, जो सांप्रदायिक नफरत को पोसती है और गरीबों को विभाजित करती है, को भी आर्थिक नेताओं द्वारा दण्डहीनता व अन्याय की एक आर्थिक नीति के कार्यान्वयन को छुपाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिससे उम्मीद है कि वह भारत को विदेशी निवेश के लिए एक आकर्षक देश बनाएगी और भ्रष्ट राजनैतिक और आर्थिक दोनों नेताओं को समृद्ध करेगी।
अंतिम विश्लेषण में, हम यह कह सकते हैं कि हर प्रकार के राजनीतिक दमन, पुलिस यातना, नौकरशाही, भ्रष्टाचार, मानव और प्रकृति का आर्थिक शोषण, और सामाजिक वर्चस्व के कठोर पदानुक्रम को दण्ड हीनता के उन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संज्ञानात्मक संस्कृतियों के आरोपण के द्वारा अधिक रूप से लागू किया गया है| इसे बाहरी कारक नवउदार वादी पूंजीवाद और सांप्रदायिक नवफासीवाद की खतरनाक अंतर्घटनाएं कहा जा सकता है। इस तरह से दोनो मिलकर एक ‘खतरनाक कोर्पोरेट फासीवाद राज्य’ की शुरूआत करते है।
वैकल्पिक राजनीतिक पहचान का पुनर्गठन
हमने देखा है कि सभी समस्याएं, जो स्पष्ट रूप से अलग दिखती हैं, वास्तव में आपस में जुड़ी हुई हैं। हम इस बात की जांच करेंगे कि एकता की प्रक्रिया के कारण कारकों की इस अंतरविरोधो को कैसे दूर किया जा सकता है: सभी एक हैं
जातियों और समुदायों की एक नवफासीवादी राजनीति के खिलाफ लड़ने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? उत्तर है एकता। गहरी धंसी हुई जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए हम किस तरह की एकता बना सकते हैं - जो सामाजिक विभाजन और दण्डहीनता की संस्कृतियों का मूल है - और नवउदारवादी आर्थिक व्यवस्था “संसाधनों के होने और न होने के बीच”के अंतर को बढ़ाता है और साथ ही कई लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के लाभ से वंचित करता है|
सबसे पहले, शोषित की गयी जातियों का एक यूनियन, मेरा मतलब सभी धर्मों के निचली जाति का एक यूनियन है, क्योंकि गरीबों, दलितों, वंचितों के दुःख सब धर्म शास्त्रों से परे एक जैसा है। शूद्र और अतिशूद्र या दलित और अतिदलितों के बीच एक यूनियन और मुस्लिम निचली जातियों के बीच और अन्य हाशिए वाले लोगों के बीच एक यूनियन। गरीब व कुचले गए लोगो द्वारा चुप्पी की संस्कृति को तोड़ना एवं आर्थिक शोषण को खत्म करने के संघर्ष में संगठन व आन्दोलन का निर्माण भी एक एकता है। आंदोलन ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के खिलाफ है, लेकिन हिंदू और ऊपरी जाति या ब्राह्मण के लोगों के खिलाफ नहीं है। यह आंदोलन नवउदारवाद पूंजीवाद के खिलाफ है, किन्तु कानून के शासन, लोकतंत्र, लोक कल्याण और बहुलतावाद पर आधारित लोकतांत्रिक पूंजीवाद या कल्याणकारी राज्य के खिलाफ नहीं है। यह आंदोलन पुरुषवाद के खिलाफ है किन्तु पुरूष के खिलाफ नही|
सभी 'टूटे हुए लोगों' और प्रगतिशील लोगों, की एकता दण्डहीनता की संस्कृति व वंचितिकरण के खिलाफ से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका है, क्योंकि यह परिवर्तन उन लोगों से ही नहीं आएगा, जो इस प्रणाली से लाभ उठाते हैं। इसलिए, संरचनात्मक परिवर्तन केवल सामाजिक पिरामिड के नीचे से ही आना चाहिए। मैं इस आंदोलन को 'नवदलित' कहने का प्रस्ताव देता हूं, क्योंकि यह दलित समुदाय है जो सबसे ज्यादा पीड़ित है और आजाद भारत में दुनिया का सबसे उत्कृष्ट अहिंसात्मक व परिणामदायी आन्दोलन है। इसके अलावा, यह दलित पहले से ही बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित राजनीतिक संघर्ष का पर्याय है।
बेशक, एक ‘कल्पनाशील राजनीतिक अंतर जाति समुदाय’ के साथ जुड़ने की भावना पैदा करना कठिन और असंभव लगता है, क्योंकि समाज का जातिगत ढांचा पुराना है और रोजमर्रा की जिंदगी में पूरी तरह से रचा बसा है। पहचान के इस परिवर्तन को दोनों जातियों और समुदायों से बलिदान की आवश्यकता है| शूद्रों को अति-शूद्रों पर प्रभुता के अधिकार से इनकार करना सीखना चाहिए, अगर वे खुद को उच्च जातियों के प्रभुता के अधिकार से मुक्त होना चाहते हैं। दूसरी ओर, 'दलित' शब्द के विस्तारित सुधार में भी अतिशूद्र को बलिदान की आवश्यकता है, क्योंकि ये पहली पहचान के एकाधिकार को समाप्त करते हैं। यह एक राजनीतिक लड़ाई का पर्याय है क्योंकि वे दलित नाम को गर्व के साथ प्रयोग करते हैं।
सामाजिक समूहों का न्याय आधारित समावेशीपन
इन सभी कठिनाइयों के कारण, हमें उन विभिन्न सामाजिक समूहों में एकजुटता व समावेशीपन को ज़ोर देना चाहिए। सबसे पहले, हमें उन्हें समझाना चाहिए कि जाति व्यवस्था के माध्यम से ऊंची जातियों द्वारा अन्य जातियों को गुलाम बना दिया गया है। वे एक बहुमत, बहुजन हैं, जो एक अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शासित है| यह देश सैद्धांतिक रूप से तो देश 1947 में एक लोकतंत्र बन गया है। किन्तु सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र स्थापित नहीं हुआ है। जिसके बिना राजनैतिक लोकतंत्र को स्थायी नहीं बनाया जा सकता है। दूसरे, हमें यह देखना चाहिए, कि ऊपरी जातियों द्वारा मुख्य आर्थिक संसाधन और शक्ति को इकट्ठा किया जाता है। अपने बीच में लड़ने का कोई मतलब नहीं है, न ही हमें सांप्रदायिक नफरत के आधार पर लड़ना है। क्योंकि यह व्यवहार नवदलित परिस्थितियों को लागू करने में मदद नहीं करेंगा।
जातिवाद के मन का शास्त्रीय उदाहरण और इसका निहितार्थ, वाराणसी में बेलवा गाँव में एक भूमिहीन दलित अतिशूद्र भूमि के छोटे हिस्से के मालिक शूद्र (OBC) से लड़ रहा था, क्योंकि दलितों की गाय शूद्र के खेतों में चली गई थी और फसल को नष्ट कर दिया था| उसी समय ऊंची जाति के अमीर बड़े जमीनों के मालिक अक्सर शूद्र और अति-शूद्रों का शोषण करते थे। अब तक, उन्हें कभी भी इस तरह की समस्या से निपटना नहीं पड़ा, क्योंकि जातिवाद की मानसिकता ने उन्हें यह अधिकार दिया था कि दलित की पिटाई की जाए। निचली जातियों ने समय के साथ इस क्रूर वर्चस्व को समाहित कर लिया है। वे इसे सामान्य मानते हैं और ऊंची जातियों की जेब में पुलिस होती है। यहां, हमें दलित और शूद्र को यह समझाना चाहिए कि जातिवाद के कारण यह संघर्ष है जिससे वे वंचित हुए। हमें उन्हें समझाना चाहिए कि वे एक जैसी समस्या के साथ जुड़े हुए हैं, और उनका शोषण जातिगत व्यवस्था कर रही है। जिसके लिए एक संयुक्त संघर्ष की आवश्यकता होती है।
इस तरह, गरीब बहुजन के विरोध का एक संयुक्त आंदोलन उभरकर सामने आएगा। अमीर अल्पसंख्यक के अत्याचार के प्रति उन्हें सशक्त बनाया जाएगा और अहिंसक तरीके से लड़ने के लिए पर्याप्त शक्ति होगी,। लूटने वाले जोंक खुद को अजेय समझते हैं, क्योंकि उन्होंने किसी भी प्रतिरोध को नहीं देखा है। वे इस प्रकार महसूस करते हैं कि वे अप्रतिबंधित हैं। इसी तरह, कट्टर धार्मिक नेता जो समुदायों के बीच घृणा फैलाते हैं या निचली जातियों को विभाजित करते हैं, को भी किसी भी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ता है। भ्रष्ट अधिकारियों की कहानी भी एक ही है जो मानते हैं कि वे गरीबों के अधिकारों के इस्तेमाल को बर्खास्त और दुरुपयोग कर सकते हैं। वे एक साथ लूट, भ्रष्ट व सत्ता संरचना का निर्माण करते हैं और वर्चस्व बनाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि विखंडित समुदायों और जातियों के पास शक्ति नहीं हैं। उनके पास पैसे नहीं हैं गरीबों को झूठे मामलों में परीक्षणों के तहत जेलों में आजीवन कष्ट झेलना होता है। गरीबों के पास धन नहीं है और न ही भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था से लड़ने की एकता है।
'बांटो और शासन करो' राजनीति देश में एक संस्था बन गई है। सभी धर्मों की निचली जातियों की एक एकीकरण प्रक्रिया और ऊंची जातियों में पैदा प्रगतिशील लोगों, जो जाति व्यवस्था के खिलाफ हैं, के साथ एकजुटता यह सही जवाब है। यही से नव-फासीवाद और नव-उदार पूंजीवाद एवं पतनशील ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और सांप्रदायिकता के खिलाफ एक एकीकृत/संयुक्त सामाजिक आंदोलन बनेगा।
(लेखक एक प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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