ताप ऊर्जा संयंत्रों ने उत्सर्जन नियंत्रण पर समयसीमा में नहीं किया काम, RBI ने जताई थी मौसम परिवर्तन पर चिंता
नई दिल्ली: भारत में जीवाश्म ईंधन से चलने वाले ऊर्जा संयंत्र नुकसानदेह गैसों और छोटे कणों वाले पदार्थों के उत्सर्जन को कम करने में नाकामयाब रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली ईकाईयां भी इस काम में असफल रही हैं। जबकि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया देश में हो रहे मौसम परिवर्तन पर चिंता जता चुका है। कई तापविद्युत गृह उस अंतिम तारीख से चूक गए हैं, जिसके पहले अपने संयंत्र में स्वच्छ ऊर्जा उपकरणों को लगाया जाना था। इन उपकरणों के तहत, 2020 के अगस्त महीने तक "फ्लू गैस डिसल्फराज़ेशन (FGD)" उपकरणों को लगाना था, ताकि सल्फर उत्सर्जन को कम किया जा सके। यह सल्फर स्वास्थ्य और पर्यावरणीय संकट पैदा करता है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के आदेश के हिसाब से देश के सभी ताप विद्युत गृहों को दिसंबर, 2022 तक उत्सर्जन के नए पैमानों के हिसाब से खुद को ढालना है। लेकिन FGD उपकरण लगाने में ताप प्रोजेक्ट्स में जिस तरह की देरी दिखाई गई है, उससे समय सीमा में काम हो पाना मुश्किल लगता है।
सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (CEA) ने अगस्त को एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिससे पता चलता है कि पूरे देश की 448 ताप ऊर्जा ईकाईयों में से सिर्फ चार ने ही FGD उपकरणों को लगाया है। यह FGD उपकरण कुल उत्पादित ताप ऊर्जा- 1,69,722 मेगावॉट में से केवल 1740 मेगावॉट ऊर्जा को ही लक्षित करता है।
राज्य सरकारों द्वारा चलाए जाने वाले एक भी ताप विद्युत गृह में FGD प्रोजेक्ट नहीं लगाए गए हैं।
पर्यावरणीय वकील रित्विक दत्ता कहते हैं, "कई ताप विद्युत गृहों में FGD प्रोजेक्ट लगाने का काम अब भी नीलामी या निविदा के स्तर पर है। औसत तौर पर किसी ईकाई में FGD उपकरण लगाने में 800 से 1200 करोड़ रुपये की लागत आती है। नीलामी के बाद उपकरणों को इकट्ठा करना वक़्त खपाने वाली प्रक्रिया है। ताप विद्युत गृहों का नए उत्सर्जन पैमानों को "अलग-अलग स्तरों में लागू करने" का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए लगता है कि दिसंबर, 2022 की अंतिम तारीख के पहले काम खत्म करना लगभग नामुमकिन है।"
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर 2015 में एक नोटफिकेशन जारी कर ताप विद्युत गृहों को अगले दो सालों में नए उत्सर्जन पैमानों को अपनाने के लिए कहा था। जब ज़्यादातर ताप विद्युत गृह इन पैमानों को तय समय में पाने में नाकामयाब रहे, तो CPCB ने इस समयसीमा को पांच साल आगे कर दिसंबर, 2022 तक बढ़ा दिया। फिर अलग-अलग तापविद्युत गृहों को उत्सर्जन पैमानों को पाने के लिए उनकी क्षमताओं के हिसाब से दिसंबर, 2022 तक अलग-अलग समयसीमा दी गई।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में काम करने वाले 11 ताप विद्युत गृहों में से एक को छोड़कर सभी दिसंबर 2019 तक FGD उपकरण लगाने का काम पूरा नहीं कर पाए हैं। CEA की एक और रिपोर्ट फरवरी, 2020 में प्रकाशित हुई। इसमें बताया गया कि FGD उपकरणों के साथ केवल 2X660 MW महात्मा गांधी सुपर थर्मल पॉवर प्लांट, झज्जर में ही काम शुरू हुआ है। फरवरी में जब तक यह रिपोर्ट लिखी गई, तब तक NCR के दूसरे ताप विद्युत गृहों में या तो उपकरणों की नीलामी की प्रक्रिया तय की जानी बाकी थी या फिर दोबारा दर तय की जा रही थी।
निजी क्षेत्र के ताप विद्युत गृहों ने पहले ही FGD उपकरण लगाने की समयसीमा बढ़ाने की मांग करते हुए अपील लगाई है। यह उत्सर्जन रोकने की दिशा में कमजोर प्रतिबद्धता को दिखाता है। फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के ज़रिए जुलाई में PMO को लिखे खत में निजी क्षेत्र के मालिकाना हक वाले ताप विद्युत गृहों में FGD लगाने की समयसीमा बढ़ाने की मांग की गई थी। साथ में अंतिम तारीख के पहले FGD ना लगा पाने वालों पर लगाई गई पेनाल्टी में भी छूट मांगी गई।
दत्ता ने बताया, "अब तक ताप 'स्तरीकृत योजना' के तहत विद्युत ऊर्जा संयंत्रों की जितनी क्षमता में उपकरण लगाए जाने थे, उनके सिर्फ एक फ़ीसदी हिस्से में ही FGD उपकरण लग पाए हैं। 27 फ़ीसदी क्षमता के लिए बोलियों की घोषणा कर दी गई है। बाकी 72 फ़ीसदी के लिए बोलियों घोषणा भी नहीं की गई है।"
निजी खिलाड़ियों ने भी हाल में केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के उस आदेश को भी FGD उपकरण लगाने की दिशा में बाधा बताया है, जिसमें मंत्रालय ने कुछ देशों से आयात करवाने से पहले मंत्रालय की पूर्व सहमति लेने का आदेश जारी किया था। ज़्यादातर FGD उपकरण भारत के बाहर से आयात किए जाते हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि FGD उपकरण लगाने से जो अतिरिक्त खर्च होगा, उसे वसूलने में बिजली की प्रति यूनिट कीमत में निश्चित तौर पर 0.30 से 0.40 रुपये का अतिरिक्त इज़ाफा होगा। उपभोक्ता द्वारा वहन किए जाने वाले इस अतिरिक्त भार से महंगाई में बढ़ोत्तरी होगी।
केंद्रीय कोयला मंत्रालय के पूर्व सलाहकार आर के सचदेवा कहते हैं, "तथ्य यह है कि ज़्यादातर ताप ऊर्जा संयंत्रों को FGD उपकरणों को लगाने के हिसाब से नहीं बनाया गया था। उनके परिसर में FGD उपकरण लगाने की जगह ही नहीं है। किसी भी तरह की स्थापना के लिए दोबारा विस्तृत योजना और डिज़ाइनिंग करनी होगी, इसमें 18 से 30 महीने का वक़्त लग सकता है। इस काम के दौरान उत्पादन भी रोकना होगा। किसी भी सूरत में ताप विद्युत गृहों के पास संसाधनों की कमी होगी और वे इस प्रक्रिया को करने का जोखिम नहीं ले सकते।"
ऊपर से FGD उपकरणों की प्रासंगिकता पर भी मतभेद है। क्योंकि भारत के घरेलू कोयले में महज़ 0.4 फ़ीसदी सल्फर सामग्री ही होती है। भारत में घरेलू कोयले का उत्पादन भविष्य में बढ़ने की ही संभावना है, क्योंकि जून में सरकार ने 41 ब्लॉक्स की नीलामी की है। ऊर्जा संयंत्रों द्वारा आयात किए जा रहे 120 मिलियन टन कोयले को हमारे घरेलू कोयले से बदलने की कोशिश की जा रही है, ताकि उत्पादन दर कम की जा सके। कोल इंडिया लिमिटेड के पास भी अच्छी मात्रा में कोयले का भंडार मौजूद है, उसने ताप ऊर्जा संयंत्रों से इस घरेलू कोयले के इस्तेमाल के लिए संपर्क भी किया है, ताकि आयात को रोका जा सके।
सचदेवा आगे कहते हैं, "कई ऊर्जा संयंत्र अगले 10 से 15 सालों में काम से बाहर हो जाएंगे, ऐसी स्थिति में महंगे FGD उपकरण लगाना संसाधनों की बर्बादी ही होगी, खासकर इस तथ्य को ध्यान में रखा जाए कि भारतीय कोयले में सल्फर की मात्रा कम होती है। FGD उपकरण लगाने की अनिवार्यता बनाने के पहले हर संयंत्र का अलग-अलग अध्ययन करना चाहिए था और देखना था कि कहां-कहां सल्फर उत्सर्जन चिंताजनक स्थिति में है।"
दिसंबर, 2022 तक अंतिम तारीख बढ़ाने वाले प्रस्ताव और नुकसानदेह उत्सर्जन को कम करने के लिए वैक्लिपक तकनीक की संभावना से जुड़े न्यूज़क्लिक के सवालों को केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय और CPCB को भेज दिया गया है। इन ई-मेल पर अब भी किसी तरह की प्रतिक्रिया आना बाकी है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, केंद्र सरकार एक बार फिर समयसीमा को दिसंबर 2022 तक बढ़ाने पर विचार कर रही है।
जहां तक सार्वजनिक क्षेत्र की बात है, तो CEA की रिपोर्ट के मुताबि़क़, राज्य के स्वामित्व वाले 315 ताप ऊर्जा संयंत्रों में से केवल 2 में ही FGD उपकरण लगाए गए हैं। दोनों ऊर्जा संयंत्र केंद्र सरकार के स्वामित्व वाले हैं।
पिछले हफ़्ते प्रकाशित हुई RBI की 2019-2020 वित्तवर्ष की रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल के सालों में परिवर्तनशील वर्षा दर, बढ़ते तापमान और अतिवादी घटनाओं से हो रहे मौसम परिवर्तन का कृषि पर बहुत असर हो रहा है। रिपोर्ट में आगे बताया है कि वित्त क्षेत्र को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय संकटों के दौर में पर्यावरण, सामाजिक और सरकारी तत्व, कंपनियों के अस्तित्व को लंबे वक़्त में प्रभावित करते हैं।
RBI की रिपोर्ट कहती है, "भौगोलिक इलाकों में खराब होती स्थितियां के चलते उधार लेने वाले की संपत्तियों की गुणवत्ता में गिरावट आ सकती है। मतलब मौसम परिवर्तन पर समाज और सरकार की प्रतिक्रिया से व्यापारिक ढांचा प्रभावित हो सकता है, प्राकृतिक आपदाओं के चलते मुआवजे की मांग में वृद्धि हो सकती है, जिससे बीमा करने वाली कंपनियों के मुनाफ़े पर असर पड़ सकता है, साथ में इन चीजों से दीर्घकालीन तरलता भी प्रभावित हो सकती है।"
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
Thermal Power Plants Miss Emissions Deadline Even as RBI Flags Concerns Over Climate Change
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