यूपी; ग्राउंड रिपोर्ट: हर घर शौचालय का दावा लेकिन पूरे गांव में शौचालय नहीं
लखनऊ के बख्शी का तालाब ( बी के टी) स्थित अस्ती गांव की रहने वाली रूबी की शादी करीब एक महीना पहले सीतापुर जिले के बिसँवा तहसील के अंतर्गत आने वाले गांव पुरुषोत्तम पुर में हुई। शादी से पहले रूबी और उसका परिवार यह नहीं जानता था कि जहाँ शादी हो रही है वहाँ शौचालय नहीं। शौचालय के अभाव में बाहर जाने की बार बार परेशानी से बचने के लिए रूबी कुछ ही दिनों में अपने पति के पास रहने लखनऊ आ गई। एक काम के सिलसिले में रूबी से हुई मुलाक़ात के दौरान ये सारी बातें खुद रूबी ने हमें बताईं।
रूबी के पति दिहाड़ी श्रमिक हैं और पेंट का काम करते हैं। वह कहती हैं कि शादी को अभी कुछ ही दिन हुए हैं। सामाजिक परंपरा को निभाते हुए वह ससुराल में ही कुछ महीने रहतीं लेकिन शौचालय की दिक्कत के चलते कुछ महीने तो क्या कुछ दिन भी रहना मुश्किल हो रहा था सो पति के पास लखनऊ आ गईं जिसमें ससुराल वालों की भी रजामन्दी थी क्योंकि वे भी नहीं चाहते कि उनके घर की नई बहू को खुले में शौच करने जाना पड़े।
रूबी दलित समाज से हैं। उन्होंने बताया कि न केवल उनके ससुराल में बल्कि गांव के करीब करीब सभी घरों में शौचालय नहीं हैं। अगल बगल के गाँवों का भी यही हाल और खासकर दलित टोलों के घर शौचालयविहीन हैं। सरकार की तरफ से मिलने वाले शौचालय का लाभ बहुतेरे परिवारों को मिला ही नहीं। रूबी कहती है जब तक वो ससुराल में थी हर दिन शाम होने का इंतज़ार करती थी क्योंकि अंधेरा होने पर ही वह शौच के लिए जा पाती थीं।
रूबी से बातचीत के बाद शौचालय की स्थिति का जायजा लेने के लिए इस लेखिका ने उस क्षेत्र में जाने का निर्णय लिया। स्वच्छ भारत मिशन के तहत योगी सरकार द्वारा हर ग्राम पंचायत के प्रत्येक घर तक शौचालय पहुँचाने की सरकारी योजना कितनी सफल हो रही है और खासकर गरीब या दलित तबकों को योजनाओं का कितना लाभ पहुँच रहा है इसकी पड़ताल करने के लिए जब यह रिपोर्टर सीतापुर जिले के बिसवां तहसील के अंतर्गत आने वाले कुछ गाँवों तक पहुँची तो हालात सचमुच खराब मिले। शौचालय के अभाव में गांव के बाहर से ही गन्दगी दिखनी शुरू हो गई थी।
कुंदनी गांव की महिलाएं
सबसे पहले हम पहुंचे कंदुनी गांव
कंदुनी गांव पहुंचने पर सड़क के ठीक किनारे एक घर के बाहर हमें कुछ महिलाएं बैठी हुई मिल गईं। हमने उनसे गांव में शौचालय की स्थिति के बारे में जब जानना चाहा तो पहले वे हमसे बात करने में कतराने लगीं। उनके चेहरों पर कुछ संकोच और कुछ भय का मिलाजुला भाव देखा जा सकता था। संकोच इसलिए क्योंकि हम उनके बीच नये थे लेकिन भय इसलिए कि कहीं उनका बोलना खुद उनके लिए मुसीबत न खड़ी कर दे।
ये महिलाएं अशिक्षित, बेहद गरीब, दलित वर्ग से आती हैं। इन्होंने शायद ही कभी सोचा होगा कि कभी इनसे शौचालय के मुद्दे पर भी कोई बात करेगा। इनकी व्यथा जानने सुनने अधिकारी इन तक आते नहीं हैं और अपनी बात वे कहाँ और किसके सामने रखें, इस बेसिक जानकारी तक से ये अनभिज्ञ हैं। खैर, एक महिला के जीवन में शौचालय का कितना महत्व है और वे उसके मूलभूत अधिकार में शामिल है, जब यह बात हमने उन्हें समझाई तो वे बात करने को तैयार हो गईं।
उनसे पूछने पर पता चला कि उनके गांव की 80 प्रतिशत आबादी के पास शौचालय नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोग दलित समुदाय से हैं। राम देवी कहती हैं कि हर रोज हम महिलाओं और लड़कियों को शौच के लिए खुले में जाने की तकलीफ से गुजरना पड़ता है। जिन दिनों खेतों में खड़ी फसल कट जाती है तब मुश्किल और बढ़ जाती है।
वहीं मौजूद राम प्यारी कहती हैं कि शौच के लिए खेतों में जाने पर सांड़ जैसे छुट्टा मवेशियों के हमले का भी डर सताता रहता है। छोटे बच्चों के लिए सबसे ज्यादा चिंता रहती है। वहीं बगल में बैठी कलावती गुस्से भरे लहजे में कहती हैं कि शौचालय के न होने से हम महिलाओं और हमारी बच्चियों को हर रोज कितनी मुसीबत झेलनी पड़ती है वो हम ही जानते हैं। अंधेरे में बाहर निकलने में डर भी लगता है। एक पल वो हमारी तरफ देखकर कहती है, जान ही रहे हैं कौन डर....
हाँ, हम जान रहे हैं कौन और कैसा डर। डर केवल छुट्टा या जंगली जानवरों का नहीं, डर केवल साँप बिच्छुओं का नहीं। डर उससे भी कहीं बढ़कर। जब हम सुनते पढ़ते हैं कि शौच के लिए गई कोई बच्ची , किशोरी या महिला रेप का शिकार बना दी गई और उसकी हत्या तक कर दी गई। तब एक विचार यह उठता है, यदि उस पीड़िता के घर एक शौचालय होता तो इस घटना को रोका जा सकता था।
जब हमने पूछा कि आखिर आपके घरों में शौचालय क्यों नहीं बन पाया है। इस पर महिलाओं ने कहा कि उन्होंने प्रयास तो किया, लेकिन पता नहीं किन कारणों से उन्हें यह सुविधा नहीं मिल पा रही है। ग्राम प्रधान की ओर से बार-बार आश्वासन दिया जाता है, लेकिन कोई फायदा नहीं होता।
इसी गांव के एक दलित मजदूर मुरली ने बताया कि उनके गांव की आबादी करीब 1500 है, जिसमें पासी, धोबी, चिड़ीमार जैसे दलित समुदायों की बड़ी संख्या है। अधिकतर लोगों के घरों में शौचालय नहीं है। वो कहते हैं हर घर शौचालय देने की बात प्रदेश सरकार करती तो है लेकिन आज भी उनके जैसे गरीब परिवारों के पास शौचालय नहीं जबकि देखते हैं कि साधन संपन्न लोगों के घरों तक शौचालय की सुविधा पहुँच चुकी है।
मुरली कहते हैं वो अक्सर बीमार रहते हैं। उन्हें कई तरह की बीमारियों ने जकड़ा है। इस हालात में उन्हें जब शौच के लिए बार बार बाहर जाना पड़ता है तो उनकी तकलीफ और बढ़ जाती है।
पुरुषोत्तम पुर की महिलाएं
इसके बाद हम यहां से कुछ किलोमीटर दूर स्थित पुरुषोत्तम पुर गांव पहुंचे
करीब 350 की आबादी वाले इस गांव में लगभग 100 घर हैं। यह एक दलित टोला है। गांव की सीमा पर कुछ बच्चे हमें खेतों में शौच करते नजर आये, जिन्हें देखकर ये समझ में आ गया कि हालात यहां भी ज्यादा अलग नहीं हैं। गांव के भीतर घुसते ही हमारी मुलाकात सुखरानी से हुई, जो अपने बेटे के साथ बाजार से दवा लेकर घर लौट रही थीं। बातचीत शुरू करने पर उन्होंने बताया कि उनको भी शौचालय नहीं मिला है जबकि लिस्ट में नाम आ चुका है बावजूद इसके शौचालय नहीं मिला।
सुखरानी कहती है "दो दिन से पेट खराब है उसी की दवा लेकर आ रही हूँ, ऐसी स्थिति में हालात और तकलीफ़देह हो जाते हैं की हर समय शौच के लिए कहाँ भागें। एक तो पेट खराब की वजह से शरीर में कमजोरी आ जाती है ऐसे में बार बार पाखाना के लिए घर से दूर जाना तकलीफ़ और बढ़ा देती है।"
सुखरानी के ही बगल में रहने वाली रामा कहती है पेट खराब होने की स्थिति में कभी कभी तो हालात ये तक हो जाते हैं कि कपड़ों में ही पखाना हो जाता है। वह कहती हैं कि ऐसे हालात वो झेल चुकी हैं इसलिए बीमार होने से भी डर लगता है लेकिन बीमारी ही ठहरी कब घेर ले क्या पता। वह कहती हैं आप देख ही रही होंगी गांव के अंदर आने वाला रास्ता कितना गंदा पड़ा है। रुआंसी भाव से वह कहती है, गंदा होगा भी कैसे नहीं आखिर छोटे छोटे बच्चे शौच के लिए कहाँ जाएँ।
पुरुषोत्तम पुर गांव का दौरा करने पर हमने पाया कि गांव के इर्द गिर्द कुछ शौचालय तो बने हैं लेकिन उनकी हालत बेहद जर्जर है। शौचालय के नाम पर ईंटों की छोटी सी चारदीवारी खड़ी कर दी गई है जहाँ न तो नल है न ही गड्ढा खोदकर लेट्रीन सीट बैठाई गई है। दरवाजा तक नहीं। उस चारदीवारी के भीतर झाड़ियाँ उग आई हैं। गांव के रामपाल, शत्रुघ्न, रामनरेश, गुड़िया, रामशरण, राजरानी, जिनसे भी मुलाकात हुई सब ने यही कहा कि उन्हें शौचालय नहीं मिला और जो मिला भी है तो आधा अधूरा।
शौचालय के नाम पर सचमुच इन दोनों गाँवों के हालात निराशाजनक मिले।
कोरासा गांव की महिलाएं
अब बारी थी तीसरे गांव जाने की सो हम चल पड़े कोरासा की ओर
यहाँ पहुँचते ही सबसे पहले हमारी मुलाकात गांव के बुजुर्ग भग्गा गौतम और संतराम मौर्य जी से जी से हुई। शौचालय को लेकर अभी हमने उनसे पूछना ही शुरू किया था कि वे हमें सरकार की ओर से सर्वेक्षण के लिए आये समझकर हमसे शौचालय निर्माण से लेकर अन्य सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने की निवेदन करने लगे।
सचमुच मेरे लिए यह बेहद असहज स्थिति थी। मैंने उन्हें समझाया कि हम कोई सरकारी आदमी नहीं, पत्रकार हैं और उनकी आवाज़ सरकार तक पहुँचाने का काम करते हैं। उन लोगों ने बताया कि उनके गांव की करीब 2500 आबादी है जिसमें दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। उनके मुताबिक गांव के एक दो घर को छोड़कर किसी को शौचालय मिला ही नहीं फिर वे चाहे दलित हो, पिछड़ा वर्ग का हो या अन्य बिरादरी का। संतराम और भग्गा जी से बात बात हो ही रही थी गांव के अन्य पुरुष भी वहाँ पहुँच गए। हर किसी का यही कहना था कि उनको शौचालय नहीं मिला। लिस्ट में नाम ही नहीं आता तो शौचालय कैसे मिलेगा।
अब हमारी तलाश थी गांव की महिलाओं की। महिलाओं से मिलना इसलिए जरूरी था क्योंकि जब मुद्दा शौचालय का हो तो महिलाओं की आवाज़ जरूर सुनी जानी चाहिए। शौचालय का न होना एक महिला के रोजमर्रा के जीवन को अन्य लोगों के मुकाबले कष्टकारी और संघर्षशील बना देता है खासकर माहवारी के दिनों में ।
और आगे जाने पर हमारी मुलाकात गांव की महेश्वरी, राजरानी और रामदेवी से हुई । महेश्वरी कहती है शौच जाने के लिए तड़के सुबह हम महिलाओं को जाना पड़ता है या शाम को अंधेरा होने का इंतज़ार करना पड़ता है। वह कहती हैं हम महिलाओं की आधी बीमारी की जड़ तो शौचालय का नहीं होना ही है क्योंकि यदि कभी सुबह या साँझ के बीच पाखाना जाने की जरूरत महसूस होती भी है तो भी महिलाएं संकोचवश नहीं जातीं और पूरा दिन ऐसे ही गुजार देती हैं तो शरीर में बीमारी पैदा नहीं होगी तो क्या होगा।
रामदेवी कहती है माहवारी के दिनों में तो बहुत आफत आ जाती है। एक तो तबीयत खराब उस पर शौच के लिए इतनी दूर जाना बहुत तकलीफ देह होता है। एक अन्य महिला राजरानी कहती है शौचालय नहीं मिलने से जगह जगह गंदगी का सामना करना पड़ता है तो इंफेक्शन भी हो जाता है।
भीरा गांव की महिलाएं
अब हम पहुंचे भीरा गांव
तीनों गाँवों की तरह शौचालय के मामले में यहाँ भी स्थिति कोई बेहतर नहीं दिखी। इस गांव की भी अधिकांश आबादी दलितों की है। गांव के बुजुर्ग मायाराम कहते हैं उनसे तो कहा गया कि तुम्हें शौचालय मिल गया इसलिए लिस्ट में नाम नहीं है। वे कहते हैं इतनी अंधेरगर्दी है। अब कहाँ गुहार लगाएं कहीं सुनवाई भी नहीं। उनकी पत्नी रामदेवी कहती हैं अगर शौचालय मिला होता तो क्या नज़र नहीं आता। वे भावुक होकर कहती हैं गरीबों की कहीं सुनवाई नहीं।
हालात सचमुच निराशाजनक थे। शौचालय के अभाव में गंदगी का अंबार लगना स्वभाविक है पर इससे भी बड़ी बात यह है कि जब हम स्वच्छ भारत मिशन की बात करते हैं तो उस स्वच्छता के दायरे में महिलाओं का स्थान सबसे पहले आता है। शौचालय एक महिला के लिए बुनियादी अधिकार में शामिल होना ही चाहिए। शौचालय पाने वालों में पात्रों के तहत महिलाओं को भी प्राथमिकता दी तो गई है लेकिन पात्र होने के बावजूद आज भी वे शौच के लिए बाहर जाने को विवश है।
क्या है स्वच्छ भारत मिशन?
वर्ष 2014 में केंद्र में जब भाजपा सरकार आई तो उसने गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर 2014 से स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की।
(हालांकि यह योजना 1999-2000 में कांग्रेस के समय ही शुरू हुई थी तब इसका नाम संपूर्ण स्वच्छता अभियान था, तत्पश्चात 2012 में इसका नाम निर्मल भारत अभियान कर दिया गया लेकिन 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने इसका नाम बदलकर स्वच्छ भारत मिशन ( ग्रामीण) कर दिया)
(स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के अन्तर्गत व्यक्तिगत पारिवारिक शौचालय (IHHL) इकाईयों के निर्माण एवं उपयोग करने पर प्रोत्साहन राशि के रूप में 12000 रुपये (केंद्र का अंश 60% यानी-7200 रुपये और राज्य का अंश 40% यानी 4800 रुपये इस प्रकार कुल-12000 रुपये) दिए जाने का प्रावधान है।)
स्वच्छ भारत मिशन के तहत गांधी जी की 150 वीं जयंती यानी 2 अक्टूबर 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त करने का संकल्प लिया और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के सामान्य जीवन स्तर में सुधार लाने का वादा किया।
साल 2017 में जब उत्तर प्रदेश में भी भाजपा सरकार सता में आई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने स्वच्छ भारत मिशन के तहत केंद्र के लक्ष्य के साथ कदम मिलाते हुए हर परिवार को 2019 तक शौचालय देने का वादा करते हुए उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों को शौच मुक्त बनाने की बात कही। प्रदेश सरकार मानती है कि ग्रामीणों को शौचालय देने में उत्तर प्रदेश पूरे देश में अव्वल स्थान पर है और ग्रामीण क्षेत्रों को उसने करीब करीब शौच मुक्त बना दिया है पर आँखों देखा हाल कुछ और बयाँ कर रहे हैं।
हम जिस भी गांव में गए हालात बेहद खराब मिले। बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सब शौच खुले में करने को मजबूर थे। ये बदत्तर हालात हमें ज्यादातर दलित बहुल गाँवों में देखने को मिला। दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए लंबे समय से काम कर रहीं लखनऊ के बख्शी का तालाब क्षेत्र की रहने वाली की रहने वाली ऐपवा नेता कमला गौतम कहती है सच तो यह है कि इन गरीबों का आधा हक ग्राम प्रधान मार रहे हैं। ये तबका आज भी बेहद गरीब और अशिक्षित है। वे अपने हक से अनजान रहते हैं। उन्हें यह तक नहीं पता होता है कि अपनी गुहार कहाँ और किसके सामने लगाएं इसलिए बिचौलिए इनकी अज्ञानता का फायदा उठा कर इनके हिस्से की आधी धनराशि हड़प रहे हैं जिसमें ग्राम प्रधानों की भूमिका सबसे ज्यादा है।
कमला कहती हैं सबसे पहले तो इस तबके को जागरूक करने की बेहद जरूरत है ताकि यह इतना कहना तो सीखें कि जितना उनके नाम पर प्रचार किया जा रहा है उतना उन्हें मिला ही नहीं और साथ ही एक कर्तव्य मीडिया का भी है कि वे वहाँ तक तो पहुंचे जहाँ वे इस सच को उजागर कर सकें कि सरकारों की कथनी और करनी में कितना फर्क है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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