यूपीः स्वास्थ्य मंत्री के दौरों और तमाम घोषणाओं के बाद भी अस्पतालों की स्थिति जस की तस
"मरीज़ों को किसी भी स्तर पर बाहर की दवाएं न लिखी जाएं। अस्पताल में सभी ज़रूरी दवाएं उपलब्ध कराई जाएं। जिन दवाओं की कमी है, उनकी नए सिरे से निविदा कर दवा की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए, अगर शिकायत मिलती है तो संबंधित डॉक्टर व अस्पताल के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाएगी।"
क़रीब तीन महीने पहले प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक ने ये बातें कही थीं। योगी सरकार के सत्ता में लौटने के बाद से ही स्वास्थ मंत्री लगातार विभिन्न ज़िलों के सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों का औचक दौरा कर वहां के हालात और कमियों के बारे में जानकारी ले रहे हैं। अस्पताल में वे मरीज़ों और उनके तीमारदारों से बात कर रहे हैं और प्रदेश की जनता को यह विश्वास दिला रहे हैं कि सरकार अस्पतालों के हालात सुधारने के लिए संकल्पबद्ध है और अब मरीज़ों को बाहर से दवायें नहीं ख़रीदनी पड़ेंगी...। निश्चित तौर पर मंत्री का यह क़दम सहरानीय है। एक जनप्रतिनिधि का यह पहला कर्तव्य भी है कि वह जनता से संवाद बनाये रखे लेकिन तमाम बातें तब बेमानी हो जाती है जब हालात में वैसा सुधार नजर नहीं होता है जितना प्रचार किया जाता है। मंत्री ने बाक़ायदा यह निर्देश भी दिया था कि पर्ची पर वही दवायें लिखी जाए जो अस्पतालों में मौजूद हैं ताकि मरीज़ों को बाहर परेशान न होना पड़े और उन पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी न पड़े लेकिन जब यह रिपोर्टर राजधानी लखनऊ के कुछ सरकारी अस्पतालों में लोगों से यह जानने के लिए पहुंची कि क्या अस्पतालों के मेडिसन काउंटर में उन्हें सभी दवायें मिल रही है तो तस्वीर ज्यों की त्यों ही मिली। यानी सख़्त निर्देश और लाख आश्वासन के बाद भी अभी भी कई ऐसी दवायें लिखी जा रही हैं जो अस्पतालों के औषधि केंद्र या मेडिसन काउंटर में उपलब्ध नहीं। अस्पताल पहुंचे लोगों से बात करने पर दवाओं की कमी पर उनमें भारी नाराज़गी दिखी। उनका कहना था कि पर्ची पर केवल दो से तीन ऐसी दवायें लिखी जाती हैं जो अस्पताल में मिल जाए बाकी 300-400 या कभी उससे भी ज़्यादा दाम की दवायें ऐसी लिखी होती हैं जिन्हें बाहर से ख़रीदनी ही पड़ती है।
लखनऊ के मड़ियांव की रहने वाली तैयबा पिछले कई महीनों से कान के रोग से परेशान है। उचित इलाज न हो पाने के कारण बीमारी बढ़ती जा रही है। तैयबा से हमारी मुलाक़ात लखनऊ के सरकारी अस्पताल बलरामपुर अस्पताल में हुई। यहां वह इलाज के लिए आई थी। वह कहती है डॉक्टर को तो दिखा दिया और उन्होंने दवा भी लिख दी लेकिन जो दवाएं लिखी गई हैं वह अस्पताल के औषधि केंद्र में उपलब्ध नहीं इसलिए उसे अब बाहर से दवा ख़रीदनी पड़ेगी पर आज वह बिना दवा ख़रीदे ही घर वापस जा रही है। पर ऐसा क्यों, यह पूछने पर वह कहती है, दवा ख़रीदने के लिए उसे कम से कम दो सौ रुपये चाहिए जो उसके पास नहीं है और जो थोड़ा बहुत पैसा उसके पास है उसे वह ख़र्च नहीं कर सकती क्योंकि उसे घर वापस भी जाना है और उसी पैसों से परिवार के लिए साग सब्जी की व्यवस्था भी करनी है। मायूस भाव से तैयबा कहती है कि अब जब हाथ में पैसा होगा तभी दवा ख़रीदेंगे।
तैयबा
अपनी बीमार मां का इलाज करवाने आए सुनील कुमार कहते है कि सरकारी अस्पताल में डॉक्टर द्वारा किसी भी बीमारी का चेकअप तो बढ़िया से हो जाता है बस परेशानी यही है कि दवाएं अक्सर बाहर से लेनी पड़ती है जो उन जैसे कम आय वाले लोगों के लिए भी वहन करना मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी तो आधी दवा ही ख़रीदनी पड़ती है। वे कहते है पिछले कुछ महीनों से स्वास्थ्य मंत्री अस्पतालों का दौरा तो कर रहे हैं और बार-बार अव्यवस्था सुधार की बात भी कह रहे हैं लेकिन कुछ मामलों में हालात जस की तस है। ख़ासकर अस्पतालों के औषधि केंद्रों में कभी भी पूरी दवाओं का न मिलना। तो वहीं नाम न छापने की शर्त पर, बलरामपुर के ओर्थोपेडिक विभाग में अपना इलाज कराने आए एक मरीज़ ने बताया कि अस्पताल में लगी एक्स-रे मशीन ख़राब हो गई है कब तक ठीक होगी कुछ पता नहीं। मरीज़ परेशान हैं कि आख़िर उनका एक्स-रे कैसे होगा। वे झल्ला कर कहते हैं सरकार चाहे लाख दावा कर ले, स्वास्थ्य मंत्री अस्पतालों का कितना ही दौरा कर लें लेकिन हालात में बहुत सुधार होता नहीं दिख रहा। अभी भी ज़रूरत की दवायें और इंजेक्शनों की भारी क़िल्लत सरकारी अस्पतालों में बनी रहती है और एक्स-रे, अल्ट्रा साउंड मशीनें तो अक्सर ख़राब ही रहती हैं ऐसे में एक ग़रीब इंसान आख़िर कैसे अपना इलाज करवाएगा। वे कहते है कि अब यदि बाहर से एक्स-रे करवाते हैं तो कम से कम 500 का ख़र्च है फिर दवाओं का 500-700 का ख़र्च अलग यानी एक बार में 1000-1200 का भार तो तय है वह भी सबसे कम इसके अलावा ख़र्च इससे ज़्यादा भी हो सकता है। ग़रीब तो हर तरह से मारा गया या तो महंगा इलाज उसे मार देगा या बीमारी।
बलरामपुर अस्पताल का जन औषधि केंद्र
हालात का जायजा लेने जब यह रिपोर्टर लखनऊ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी सिविल अस्पताल पहुंची तो वहां भी अमूमन यही स्थिति थी। अस्पताल के दवा काउंटर में लोगों की क़तारें तो लगी थी लेकिन दवाओं की उपलब्धता पूरी न होने की वजह से ज़्यादातर लोगों को बाहर से दवा लेनी पड़ रही थी। इसी भीड़ में मेरी मुलाकात रंजना और सुशीला से हुई जो अपने इलाज के लिए आई हुई थी। सुशीला ने बताया कि उसके कमर में परेशानी है डॉक्टर को तो दिखा दिया लेकिन अब दिक्कत यह है कि उसकी सब दवायें अस्पताल में उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही रंजना का यह भी कहना था कि उसे भी अपनी कुछ दवायें बाहर से लेनी पड़ेंगी। जब मैंने उनसे कहा कि पिछले कई महीनों से राज्य के उपमुख्यमंत्री जो स्वास्थ्य मंत्री भी हैं वह सरकारी अस्पतालों का औचक दौरा कर रहे हैं और हर जगह यह निर्देश दे रहे हैं कि अस्पतालों में दवाओं की कमी को दूर किया जाए और किसी को भी बाहर से दवा न ख़रीदनी पड़े तो इस पर उनका कहना था कि अब उनके दौरों से कितना सुधार हुआ है खुद ही देख लीजिये अभी भी तो कई दवायें बाहर से ही ख़रीदनी पड़ रही हैं।
रंजना
राम मनोहर लोहिया के सुपर स्पेशलिस्ट विभाग में अपनी बीमार पत्नी को दिखाने आए बस्ती के संतराम ने बताया कि वे पहले भी यहीं से पत्नी का इलाज करवा चुके हैं। इसमें दो राय नहीं है कि डॉक्टर बढ़िया से जांच कर देते हैं लेकिन दवाओं के नाम पर यहां भी ज़्यादा कुछ उपलब्ध नहीं है। ऐसे में मजबूरन बाहर से दवा लेनी पड़ती है। उन्होंने बताया कि बाहर से ख़रीदने पर उन्हें तीन महीने की दवा क़रीब चार हजार की पड़ी है अगर यही दवायें अस्पताल में होती तो तक़रीबन आधे दाम में मिल जाती। वे कहते हैं केवल निर्देश दे देने से समस्याओं का समाधान नहीं होता उन निर्देशों का कितना पालन हो रहा है इसका निरीक्षण भी ज़रूरी है।
सुशीला
उतर प्रदेश के एक बड़े मेडिकल कॉलेज लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज यानी केजीएमयू के भी हालात ऐसे ही मिले। अस्पताल के मानसिक रोग विभाग में अपने 14 वर्षीय बेटे को दिखाने आए एसपी वर्मा से जब हमारी मुलाक़ात हुई तो उन्होंने बताया कि उनके बेटा टिक डिसॉर्डर से ग्रसित है (यानी बच्चे का दिन भर किसी ख़ास गतिविधि को दोहराते रहना जैसे- होंठ चबाना, आंख मटकाना, सिर को झटका देना, नाखून चबाना आदि। ऐसी ज़्यादातर आदतों पर उनका कंट्रोल नहीं होता है)। कुछ महीने लंबा इलाज चलेगा उसके बाद बच्चा सामान्य स्थिति में आ जायेगा। उनके मुताबिक जो दवा उनके बेटे के लिए लिखी गई है उन्हें वह बाहर से ही लेनी होगी। वे कहते हैं अब जब तक इलाज चलेगा तब तक हर दवा उन्हें बाहर से ही ख़रीदनी पड़ेगी क्योंकि यहां कोई दवा उपलब्ध ही नहीं। तो वहीं मेडिकल कॉलेज के दंत विभाग में अपने दांत का इलाज कराने आई सरोज देवी कहती है इतने बड़े हॉस्पिटल का सबसे बड़ा विभाग है यह दंत विभाग लेकिन अव्यवस्था ऐसी कि डॉक्टर कहते हैं यहाँ एक्स-रे मशीन ख़राब पड़ी है तो बाहर से दांत का एक्स-रे कराना होगा। डॉक्टर ने पर्ची पर अपने मुताबिक अस्पताल से थोड़ी दूरी पर स्थित एक्स-रे सेंटर का नाम लिख दिया है अब करें तो क्या करें पैसा लगाकर एक्स-रे कराना मजबूरी है क्योंकि जब तक एक्स-रे नहीं होगा तब तक इलाज शुरू नहीं होगा। वे कहती है 200 रुपए ख़र्च करके उन्होंने एक्स-रे कराया। सरोज देवी कहती है ऐसे में हम सरकार से यह पूछना चाहते हैं कि जब दवायें भी बाहर से ख़रीदनी है एक्स-रे भी बाहर से करवाना है तो फिर आख़िर निःशुल्क इलाज कैसा?
अब बात लखनऊ से सटे ग्रामीण क्षेत्र बख्शी का तालाब ( बी के टी) स्थित सौ बेड वाले राम सागर मिश्र की। इस अस्पताल में व्याप्त भ्रष्टाचार और दवाओं की कमी को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता कमला गौतम के नेतृत्व में ग्रामीणों ने तहसील के समक्ष प्रदर्शन कर मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन भी सौंपा था। कमला गौतम कहती हैं योगी सरकार के पुनर्गठन के बाद से ही स्वास्थ मंत्री अस्पतालों का दौरा कर रहे हैं और व्यवस्था सुधारने की बात कह रहे हैं लेकिन जब बात सौ बेड वाले इस अस्पताल की आती है तो कोई एक्शन लेते नज़र नहीं आते। वे बताती हैं इस अस्पताल की अव्यवस्था का ज़िक्र करते हुए एक पत्र स्वास्थ मंत्री को सौंपा गया है जिसमें यह बताया गया है कि किस क़दर अस्पताल भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है। वे तल्खी भरे स्वर में कहती हैं, एक तरफ़ प्रदेश सरकार " स्वास्थ आपका संकल्प हमारा" के तहत सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने की बात कहती है तो वहीं स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टरों को यह निर्देश देते नजर आते हैं कि पर्ची पर कोई भी बाहर की दवा नहीं लिखी जाए और जनता को आश्वासन देते हैं कि उनकी हर परेशानी का समाधान किया जायेगा लेकिन वहीं दूसरी तरफ हालात सुधरते नजर नहीं आ रहे। वे कहती हैं बी के टी के सीतापुर रोड़ स्थित सौ बेड वाले अस्पताल में स्थिति यह है कि अक्सर सबसे साधारण एंटीबायोटिक दवा तक बाहर से लेनी पड़ती है, अल्ट्रा साउंड निशुल्क है लेकिन भ्रष्टाचार का आलम यह है कि जो पैसा दे देता है उसका अल्ट्रा साउंड बिना देरी किये कर दिया जाता है और पैसा न देने वालों के लिए कोई निश्चितता नहीं होती है कि उस दिन उनका अल्ट्रा साउंड हो भी पायेगा कि नहीं। कमला कहती है इन सब मुद्दों के साथ अन्य भ्रष्टाचार के मुद्दों से भी अवगत कराते हुए उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक को पत्र भी भेजा है ताकि मंत्री जैसे अन्य अस्पतालों का औचक दौरा कर रहे हैं वैसे यहां भी आयें और मरीज़ों से बात करें लेकिन अभी तक उनका यहां दौरा नहीं हो पाया।
22 जून को ‘स्वास्थ्य आपका, संकल्प सरकार का’ अभियान की शुरुआत डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक ने की थी। अभियान के तहत वह ख़ुद रोज़ पांच जिलों के 10 मरीज़ों से फ़ोन पर बात कर रहे हैं। मरीज़ों की शिकायत और सुझाव को सुनते हैं। मरीज़ों की संख्या से लेकर उपलब्ध सेवाओं की समीक्षा कर रहे हैं, हम किसी भी लिहाज से सरकार के इस प्रयास की अवहेलना नहीं करते लेकिन सरोज देवी ने जो सवाल किया कि जब सब कुछ के लिए बाहरी चीज़ों पर ही निर्भर रहना है तो फिर मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा का क्या मतलब। स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टरों को निर्देश भले ही दे रहे हों कि कोई भी बाहर की दवा न लिखे लेकिन उस निर्देश के देने के बाद उस निर्देश का पालन कराने की ठोस ज़िम्मेदारी भी तो सरकार की ही बनती है।
लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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