उत्तराखंड: मानसिक सेहत गंभीर मामला लेकिन इलाज के लिए जाएं कहां?
कोरोना और लॉकडाउन ने समाज के हर वर्ग और उम्र के लोगों की मानसिक सेहत पर असर डाला है। 2017 में मेंटल हेल्थ केयर एक्ट आने के बावजूद उत्तराखंड में अब तक भी मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण कागजों से उतरकर ज़मीन पर नहीं आ सका है। ऐसे में ट्रांसजेंडर्स समेत हाशिए पर रहने वाले तबके की मानसिक सेहत से जुड़े मुद्दों को कैसे हल किया जा सकेगा?
10 वर्ष की उम्र से आगे किशोर अवस्था वह समय है जब हम संभावनाओं के द्वार पर खड़े होते हैं। एक पूरी पीढ़ी अपने सपनों को हासिल करने के लिए खुद को तैयार कर रही होती है। यूनिसेफ़ की रिपोर्ट कहती है कि ये अवसरों को सुनिश्चित करने का समय है।
शगुन, अदिति, काजल जैसे नाम बदलकर रहने वाली ट्रांसजेंडर महिलाओं के बचपन में झांके तो बचपन से किशोर उम्र में प्रवेश का समय उनके परिवार-रिश्तेदार, स्कूल-समाज के भीतर भूचाल लेकर आया। पुरुष शरीर के भीतर स्त्री मन की उमंगों के साथ बढ़ रहे किशोरों का पहला संघर्ष अपने मां-बाप, भाई-बहन के साथ था। फिर विद्यालय, समाज और आगे…। आखिर में सबने घर छोड़ा, सड़कों पर अकेले रातें बितायीं। गिरते-संभलते अपने जैसों का साथ मिलने पर ज़िंदगी आगे बढ़ी।
ट्रांसजेंडर के तौर पर पहचाना जाना या पहचान छिपाकर रहना, पढ़ाई बीच में छूटना, घरवालों का साथ न मिलना, बेरोज़गारी, आर्थिक चिंताएं और सामाजिक बहिष्कार जैसी कठोर स्थितियां मानसिक सेहत पर असर डालती हैं।
ट्रांसजेंडर समेत हाशिए पर जीने वाले तबके की मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याओं को हल करने के लिए उत्तराखंड में क्या व्यवस्था है?
महिला एवं बाल कल्याण विभाग
उत्तराखंड महिला एवं बाल कल्याण विभाग की उप निदेशक सुजाता सिंह कहती हैं “ट्रांसजेंडर बच्चों या महिलाओं को लेकर विभाग की ओर से कोई कार्य नहीं हो रहा है। जबकि इनकी स्थिति बहुत ही खराब है। ट्रांसजेंडर महिलाओं के लिए कोई योजना नहीं है। इसकी जरूरत बहुत ज्यादा है”।
समाज कल्याण विभाग
राज्य में समाज कल्याण विभाग के सचिव एल फैनई कहते हैं “हमारे पास ट्रांसजेंडर्स के लिए छात्रवृत्ति, पेंशन, स्किल डेवलपमेंट जैसी योजनाएं हैं। इन योजनाओं का लाभ लेने के लिए उन्हें पहचान पत्र या अन्य आधिकारिक दस्तावेज दिखाने होंगे”।
वह बताते हैं “समाज कल्याण विभाग की ओर से राज्य में अब तक किसी ट्रांसजेंडर को किसी भी योजना से नहीं जोड़ा जा सका है। क्योंकि ट्रांसजेंडर युवा सामने नहीं आना चाहते हैं। वे अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करना चाहते हैं”।
उत्तराखंड समाज कल्याण विभाग की वेबसाइट पर ट्रांसजेंडर से जुड़ी किसी योजना की कोई जानकारी उपलब्ध क्यों नहीं है? छात्रवृत्ति और पेंशन जैसी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए क्या किया जाता है?
इस सवाल पर सचिव एल फैनई आश्वस्त करते हैं “हम इस पर कार्य करेंगे”।
स्वास्थ्य विभाग
उत्तराखंड की वर्ष 2021 में आबादी का आकलन 1.19 करोड़ है। इस आबादी की मानसिक सेहत की देखभाल के लिए राज्य के सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सक के 28 स्वीकृत पद हैं। एक आरटीआई के जवाब में बताया गया कि 30 अप्रैल 2021 तक राज्य में मात्र 4 मनोचिकित्सक कार्यरत थे। इनमें से 3 देहरादून में और 1 नैनीताल में तैनात हैं। देहरादून में मौजूद 3 डॉक्टरों में से एक, दून अस्पताल के डॉ जीएस बिष्ट दून मेडिकल कॉलेज से सम्बद्ध हैं। मौजूदा स्थिति भी यही है। स्वास्थ्य विभाग के प्रवक्ता जेसी पांडे इसकी पुष्टि करते हैं।
यानी 13 में से सिर्फ 2 ज़िलों में मनोचिकित्सक की तैनाती है और 11 ज़िलों में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं है।
मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण के नाम पर स्वास्थ्य महानिदेशालय में एक कमरा तैयार मिला
स्टेट मेंटल हेल्थ अथॉरिटी का हाल
वर्ष 2017 में देश में मेंटल हेल्थ केयर एक्ट लाया गया। मई 2018 में सेंट्रल मेंटल हेल्थ अथॉरिटी एंड मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड का गठन किया गया। फरवरी 2019 में उत्तराखंड में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण का गठन करने के लिए स्वीकृति प्रदान की गई। ये प्राधिकरण कागजों में भी पूरी तरह तैयार नहीं हो पाया है। प्राधिकरण में मानसिक स्वास्थ्य के लिए कार्य कर रहे मनोचिकित्सक या संस्थाओं से जुड़े 8 सदस्यों को नामित किया जाना है। मात्र 2 सदस्य ही अभी तक चुने जा सके हैं। मनोचिकित्सक के लिए 15 से अधिक वर्ष के अनुभव की शर्त इसमें एक बाधा बतायी जा रही है।
14 दिसंबर तक मेंटल हेल्थ अथॉरिटी की एक भी बैठक नहीं हुई थी। जुलाई-2021 में डॉ कृषन सिंह नेगी की स्टेट मेंटल हेल्थ अथॉरिटी में संयुक्त निदेशक पद पर तैनाती हुई। वह डेंटल सर्जन हैं लेकिन फिजिशियन पद पर नियुक्ति हुई थी। प्रमोशन के बाद मेंटल हेल्थ अथॉरिटी में संयुक्त निदेशक का पद मिला।
डॉ नेगी बताते हैं कि नेशनल हेल्थ मिशन के तहत राज्य में पिछले 2 वर्ष में 22 डॉक्टर्स की बंगलुरू के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेस से पत्राचार के ज़रिये एक वर्ष का मेंटल हेल्थ का डिप्लोमा कोर्स कराया गया है। यही डॉक्टरों अपनी तैनाती वाली जगहों पर मानसिक रोग विशेषज्ञ के तौर पर देखे जा रहे हैं।
हालांकि विभाग में ही अभी ये तय नहीं हो सका है कि एक वर्ष का डिप्लोमा लेने वाले इन डॉक्टर्स को किस तरह देखा जाए। क्या ये मानसिक रोग, डिप्रेशन, अल्कोहल लेने से जुड़ी समस्याओं में इलाज के लिए अधिकृत होंगे या नहीं?
ज़िला स्वास्थ्य इकाइयां कहां हैं
कानून के लिहाज से राज्य में ज़िला स्तर पर भी मानसिक स्वास्थ्य रिव्यू बोर्ड का गठन करने की स्वीकृति 31 दिसंबर 2019 को दी गई थी। इसके तहत देहरादून, हरिद्वार, रुद्रपुर में एक-एक बोर्ड, टिहरी-उत्तरकाशी का एक बोर्ड, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली को मिलाकर एक बोर्ड, नैनीताल और अल्मोड़ा को मिलाकर एक बोर्ड साथ ही बागेश्वर, पिथौरागढ़ और चंपावत को मिलाकर एक बोर्ड बनाने की स्वीकृति दी गई।
अभी ये स्वीकृतियां फाइलों में ही दर्ज हैं। मानसिक स्वास्थ्य की देखरेख के लिए किसी ज़िले में कोई बोर्ड तैयार नहीं है। समुदाय के स्तर पर काम होना दूर की बात है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मानसिक सेहत के कार्यक्रम से जुड़े डॉ फरीदउर ज़फ़र इस पर बात करने को तैयार नहीं हुए।
मानसिक सेहत के मुद्दे पर राज्य में क्या किया जा रहा है? इस पर स्वास्थ्य विभाग के प्रवक्ता जेसी पांडे कहते हैं “देहरादून के सेलाकुईं में मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में अभी 30 बेड का है। इसे 100 बेड का बनाया जा रहा है। मेंटल हेल्थ पर राज्य के अस्पतालों में अभी कोई व्यवस्था नहीं है। ज़िलों में जब तक मनोचिकित्सकों की तैनाती नहीं होती तब तक कुछ नहीं किया जा सकता”।
मेंटल हेल्थ अथॉरिटी के नाम पर स्वास्थ्य निदेशालय में कुछ फाइलों के साथ एक कमरा बना मिला।
सही समय पर मनोचिकित्सीय सलाह ट्रांसजेंडर व्यक्ति के जीवन में बेहतर बदलाव ला सकती है
बदलाव की उम्मीद
मनोचिकित्सक और देहरादून के हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में असोसिएट प्रोफेसर डॉ प्रियरंजन अविनाश कहते हैं “ट्रांसजेंडर समुदाय से रोल मॉडल सामने आने पर समुदाय से जुड़े अन्य लोगों को मानसिक बल मिला है कि वे भी खुलकर कर सामने आ सकते हैं और अपनी पहचान स्वीकार कर सकते हैं। उन्हें ये अहसास भी हुआ है कि मैं अकेला नहीं, मेरे जैसे अन्य लोग भी हैं। ट्रांसजेंडर्स के मुद्दे पर समाज में सहजता और स्वीकार्यता बढ़नी जरूरी है”।
डॉ अविनाश कहते हैं ट्रांसजेंडर को बहुत लंबे समय तक मानसिक सेहत से जुड़ी समस्या माना गया। यहां तक कि मेडिकल साइंस में भी।
वह केरल हाईकोर्ट के इस वर्ष के महत्वपूर्ण फैसले का ज़िक्र करते हैं। जिसमें अदालत ने नेशनल मेडिकल कमीशन को मेडिकल शिक्षा से जुड़े पाठ्यक्रम में ट्रांसजेंडर फ्रेंडली नवीनतम वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर जरूरी बदलाव करने के निर्देश दिये थे।
“अगर मेडिकल समुदाय के लोग ट्रांसजेंडर को सामान्य स्वीकार करने लग जाएं तो इससे भी समाज में बदलाव आएगा और स्वीकार्यता बढ़ेगी”। डॉ अविनाश कहते हैं कि अदालत के आदेश के बाद उनके संस्थान में भी जेंडर से जुड़े शीर्षक पर ट्रांसजेंडर के बारे में वैज्ञानिक जानकारी दी जा रही है। साथ ही इस पर जागरुकता के लिए वर्कशॉप भी किए गए।
डॉ अविनाश उत्तराखंड मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण में भी बतौर सदस्य नामित हैं। वह उम्मीद जताते हैं कि अगले कुछ महीनों में प्राधिकरण कार्य करना शुरू कर देगा।
मानसिक सेहत की देखभाल को मानवाधिकार के तौर पर दुनियाभर में हक़ जताया जा रहा है। सही वक़्त पर दी गई मनोचिकित्सीय सलाह ज़िंदगी पटरी पर ला सकती है और ज़िंदगी बचा भी सकती है। लेकिन उत्तराखंड मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण अभी ठीक से जन्मा भी नहीं है। ज़िला और समुदाय स्तर पर मानसिक सेहत का प्रचार-प्रसार और पहुंच दूर की बात है।
(This reporting has done under the Essence media fellowship on mental health issues)
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