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‘किताब छपवाना चाहते हैं, माईबाप सरकार से पहले पूछ लें ’

नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज (राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद ) द्वारा जारी फाॅर्म में इसी किस्म की बात पूछी गयी थी कि आप की रचना में ऐसी कोई बात तो नहीं है, जो सरकार विरोधी हो और देश के खिलाफ हो’. ;लेकिन इस पर कुछ भी नहीं हुआ।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज (राष्ट्रीय उर्दू भाषा विकास परिषद ) द्वारा जारी फाॅर्म में इसी किस्म की बात पूछी गयी थी, जो सभी स्थापित एवं नवोदित लेखकों को भेजा गया था, जिस पर उन्हें दस्तखत करके भेजना था। ऐसे सभी लेखक जिन्हें परिषद की तरफ से किसी सहायता की उम्मीद थी, उन्हें इस फॉर्म में यह बात साफ लिखनी थी कि उनकी किताब में ऐसा कुछ नहीं जो ‘सरकार और देश के खिलाफ’ हो। बात यहीं खत्म नहीं होती थी उन्हें साथ साथ में दो गवाहों से भी दस्तख़त करवाने थे।

केन्द्रीय सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के तहत संचालित उर्दू, पर्शियन और अरेबिक के विकास के लिए संचालित उर्दू परिषद के उस परिपत्र पर काफी हंगामा मचा था, फाॅर्म की भाषा पर आपत्ति जतायी गयी थी, मगर बात आयी गयी हो गयी थी।

मोदी सरकार की पहली पारी के शुरूआती दौर का वह वक्त़ था, लेकिन इससे यही स्पष्ट हो रहा था कि लेखकों, बुद्धिजीवियों के प्रति इस सरकार का क्या नज़रिया है और आगे क्या रहने वाला है ?

अब मोदी सरकार की दूसरी पारी भी आधी बीत चुकी है। और यह प्रवृत्ति अपने उरूज पर है।

मणिपुर की सरकार द्वारा पिछले माह जारी एक आदेश इसी बात की ताईद करता है।

इस कार्यकारी आदेश के तहत हर लेखक के लिए - जो मणिपुर के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और परंपरा पर कुछ लिखना चाहता है - यह अनिवार्य बना दिया गया है कि वह अपना प्रस्ताव तथा अपनी किताब की पांडुलिपि राज्य सरकार के शिक्षा मंत्री के तहत गठित विशेषज्ञों के पैनल के सामने पेश करे और अपनी इस प्रस्तावित योजना पर उनसे सहमति हासिल करे।

इस बात को मद्देनजर रखते हुए कई लेखक ऐसी शर्त स्वीकार नहीं करेंगे, उनके लिए यह चेतावनी भी दी गयी है कि वे सभी जो इस आदेश का उल्लंघन करेंगे उन्हें संबंधित कानून के तहत सज़ा मिलेगी।’

जैसा कि स्पष्ट है कि यह आदेश संविधान की अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का साफ साफ उल्लंघन करता दिखता है, इसे लेकर प्रबुद्ध तबकों - लेखकों, प्रकाशकों से लेकर नागरिक आज़ादी के संघर्षरत कार्यकर्ताओं में जबरदस्त बेचैनी देखी गयी है। यह भी सही है कि यह अधिकार कोई असीमित नहीं है और विशेष परिस्थितियों में उस पर जरूरी प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं, लेकिन बिना सरकार की अनुमति ही हर ऐसी रचना पर प्रकाशन की पाबंदी एक तरह से इस धारा की भावना का उल्लंघन करती दिखती है।

खोज और अनुसंधान जो किसी भी ज्ञान सृजन  का अनिवार्य अंग है, इस भावना का भी इससे उल्लंघन होता है। इसके चलते यह भी सुनिश्चित होता है कि ऐसे दृष्टिकोण  जो आधिकारिक या मुख्यधारा के नज़रिये से अलग है , उनकी न केवल अनदेखी की जाएगी बल्कि उन्हें मौन कर दिया जाएगा।

जैसा कि मीडिया के एक हिस्से में छपा है कि मणिपुर सरकार द्वारा आनन-फानन में लिया गया यह कदम किसी रिटायर्ड फौजी द्वारा - जो अब काल कवलित भी हो चुके हैं - मणिपुर के इतिहास पर लिखी गयी एवं प्रकाशित हुई किताब  The Complexity Called Manipur: Roots, Perceptions & Reality. उठे विवाद की प्रतिक्रिया में लिया गया है। मालूम हो किताब में छपी कुछ ‘‘तथ्यगत गलतियों’ के चलते मणिपुर के देशज तबकों के बीच आंदोलन चला था और कथित तौर पर सरकार को विरोध का सामना करना पड़ा था।

अगर सरकार की आपत्तियों को सही मान लें तब भी उससे उपजी परिस्थिति से निपटने के लिए सरकार के पास सबसे अच्छा तरीका यह था कि वह मामले को अदालत में ले जाती, किताब की कथित तथ्यगत गलतियों को प्रश्नांकित करती और अगर संबंधित लोग इसका संतोषजनक जवाब नहीं देते तो किताब के उस हिस्से को हटाने का निर्देश अदालत से लेती। इतना ही नहीं किताब को ‘विस्फोटक’ साबित करके उस को बैन करने के आदेश के लिए अदालत से गुजारिश करती।  ऐसे प्रावधान कानून में मौजूद हैं।

गौरतलब है कि उस किताब को लेकर ऐसा कोई भी कदम न उठा कर उसने बेहद जल्दबाजी में जो निर्णय लिया, जिसके तहत उसने यह जो तय किया कि आइंदा जो भी किताब मणिपुर पर केन्द्रित लिखी जाएगी, उसके प्रकाशित होने के पहले सरकार की अनुमति आवश्यक होगी। यह फैसला इसी बात का परिचायक था कि वह इस प्रसंग को एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रही है ताकि असहमति की आवाज़ों पर अधिक अंकुश लगाने का उसे मौका मिले।

हम याद कर सकते हैं कि पिछले दिनों मणिपुर में दोबारा अपने बलबूते सत्तासीन भाजपा अपनी पहली पारी में / 2017-2022/ में इस वजह से काफी सुर्खियों में आयी थी कि जब पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को फेसबुक अपनी टिप्पणियों के चलते राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम जैसे दमनकारी कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया था।
 
आपको याद होगा अग्रणी पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम  (( kishorechandra-wangkhem) ) ;  जैसे पत्राकार और एरेन्द्रो लाइचोम्बाम (Erendro Leichombam)  पर महज इस वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का इस्तेमाल हुआ कि उन्होंने किसी भाजपा नेता की मृत्यु पर - जो कथित तौर पर कोविड के इलाज के लिए पारंपरिक उपायों पर जोर देते थे - श्रद्धांजलि देते हुए महज यह लिखा कि ‘कोविड का इलाज गोबर और गोमूत्र से नहीं होता’ और ऐसी बातों का प्रचार करना ‘गलत सूचनाओं का प्रसार करना है।’ जाहिर है ऐसी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारियों का मामला जब सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया तब उसने उन्हें न केवल तत्काल रिहा करने बल्कि सुरक्षा कानूनों के गलत इस्तेमाल को भी रेखांकित किया था।

इस बात को लेकर भी चिंता प्रकट की जा रही है कि किताबों के प्रकाशन के पहले उसकी सेन्सरशिप की राज्य की योजना को कानूनी तरीकों से तथा अहिंसक व्यापक जनप्रतिरोध के रूप में, देश के पैमाने पर चुनौती नहीं दी गयी तो यह संभव है कि भाजपाशासित अन्य राज्यों में भी ऐसे ही कानूनों को बनाया जाएगा तथा स्वतंत्र बुद्धिजीवियों एवं असहमति की आवाज़ रखने वालों के लिए नयी मुश्किलें खड़ी कर दी जाएंगी। हाल के महिनों में हम सभी अपनी आंखों के सामने देख चुके हैं कि किस तरह तुरंत न्याय दिलाने के नाम पर बुलडोजरों से मकानों के ध्वस्त करने का सिलसिला चल निकला है, विभिन्न भाजपा शासित राज्यों में चल निकला है,  जिसकी शुरूआत योगी की अगुआई वाले उत्तर प्रदेश से हुई थी और जिसका निशाना अक्सर अल्पसंख्यक समुदाय को बनाया जाता है।

किसी भी बौद्धिक विमर्श की एक किस्म की निगरानी के लिए राज्य के शिक्षा मंत्राी की अगुआई में विद्वतजनों के पैनल बनाना भले ही स्वतंत्रमना लोगों के लिए अधिनायकवादी रूझानों वाला कदम लगे और एक किस्म के विचारों के रेजिमेण्टेशन / एकमार्गीकरण का नमुना लगे, लेकिन अब जहां तक मौजूदा हुकूमत का सवाल है, उसे ऐसी बातें बिल्कुल प्रतिकूल जान नहीं पड़ती हैं।

स्वतंत्रचेता, अग्रणी बुद्विजीवियों, लेखकों के प्रति उसका यह रूख जब पहली दफा उसे केन्द्र में हुकूमत करने का मौका मिला तब भी स्पष्ट था। वह बातें अब इतिहास हो चुकी हैं लेकिन जब अटलबिहारी वाजपेयी की अगुआई में पहली दफा केन्द्र में भाजपा ने सत्ता की बागडोर संभाली तो किस तरह पाठयपुस्तकों के स्वरूप को बदलने के आरोप उस पर लगे थे और यह बात भी बहुचर्चित है कि तत्कालीन मानवसंसाधन मंत्राी प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी ने किस तरह प्रो रोमिला थापर, प्रो इरफान हबीब जैसे  विश्वस्तरीय विद्धानों पर ‘‘बौद्धिक आतंकवाद’’ पर संलिप्त होने का आरोप लगाया था, और यहां तक कहा था कि ‘‘ऐसे लोग सीमापार के आतंकवाद से भी अधिक खतरनाक होते हैं।’’

मौजूदा हुकूमत न केवल देश में सक्रिय बुद्धिजीवियों के प्रति ही नहीं बल्कि देश के बाहर के अग्रणी विश्वविद्यालयों में सक्रिय बुद्धिजीवियों के बारे में - जो स्वतंत्राचेता मालूम पड़ते हैं - किस तरह का प्रतिकूल रूख अख्तियार करती है, इसे इस साल के पूर्वार्द्ध के दो उदाहरणों से समझा जा सकता है।
 
याद किया जा सकता है कि जाने माने ब्रिटिश मानवविज्ञानी और समाज विज्ञानी प्रोफेसर फिलिप्पो को मार्च 2022 में तिरूअनंतपुरम हवाई अडडे से - बिना किसी स्पष्टीकरण के - वापस लौटा दिया गया जब कि वह रिसर्च के काम से बाकायदा वीसा हासिल करके यहां पहुंचे थे।मालूम हो विगत तीन दशकों से वह केरल आते जाते रहे हैं और अपने अध्ययनों के लिए चर्चित रहे हैं।

 प्रोफेसर ऑसेला ने दिल्ली की उच्च अदालत में एक याचिका डाली है  जिसमें उन्होंने दावा किया है कि उनके साथ ‘‘आतंकवादियों जैसा व्यवहार किया गया’’।

अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में बहुचर्चित इस घटना के बाद ब्रिटिश आर्किटेक्चर प्रोफेसर लिंडसे ब्रेमनेर को भी भारत प्रवेश की अनुमति देने से इनकार करने का मामला सुर्खियों में रहा, जबकि वह भी वैध वीजा के साथ भारत पहुंची थी।

निश्चित ही ऐसे प्रसंग शेष दुनिया में भारत की जो छवि बनाते होंगे, इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
 
अब भले ही मौजूदा हुकूमत के समर्थक यह दोहराते रहें कि जबसे मोदी भारत के प्रधानमंत्राी बने हैं, दुनिया में भारत की छवि और उज्वल हो गयी है, वहीं ऐसे प्रसंग यही बताते हैं कि सरकार असहमति की आवाज़ों से या स्वतंत्र बुद्धिजीवियों की महज उपस्थिति से भी कितनी डरती है। और यह बात अधिक पुष्ट होती जाती है कि रफता रफता भारत एक चुनावी अधिनायकवादी तंत्र में ( electoral autocracy ) में  तब्दील हो गया है।

वैसे भारत को हिन्दू राष्ट्र  बनाने के लिए आमादा लोगों, ताकतों को इस स्थिति से क्या गुरेज होगा ?

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