विशेष: छोटी-छोटी किताबों के ज़रिये संविधान पढ़ाने और बचाने की लड़ाई
जब धूमिल कहते हैं “क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है – जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई ख़ास मतलब होता है”…तो वाकई इसका ख़ास मतलब होता है।
26 जनवरी 1950 को जब एक लम्बी बहस और बड़ी सारी मेहनत के बाद संविधान को आत्मार्पित किया गया तो यह कल्पना की गई थी कि आने वाले वर्षों में भारत के हर नागरिक को संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकारों के साथ एक गरिमामयी जीवन जीने के मौके भी हासिल होंगे और सबको विकास के अवसर भी मिलेंगे। समय बीतने के साथ-साथ जहाँ विकास हुआ वहीं लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता।
दिक्कत यह है कि आज बमुश्किल देश के एक प्रतिशत लोगों के घर में संविधान की प्रति होगी जबकि धार्मिक किताबों का भंडार हर घर में होगा और जब संविधान घर में नहीं, किसी ने देखा नहीं तो समझ कैसे विकसित होगी, और कैसे हमारा लोकतंत्र बचेगा। इधर सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने संविधान बचाने की तगड़ी पहल आरंभ की है जिसमें विभिन्न प्रकार की संस्थाएं संविधान पर बहुत बारीकी और गहराई से काम कर आ रही हैं।
इस क्रम में अनेक प्रकार की सामग्री विकसित की जा रही है और दूर दराज़ के गाँवों से लेकर शहरों और विभिन्न प्रकार के सोशल मीडिया पर लोग सक्रिय हैं और समाज के हर वर्ग के साथ संजीदा ढंग से काम हो रहा है। ख़ास बात यह है कि इनमें से अधिकतर लोग वे हैं जो कानून की विधिवत पढ़ाई करके नहीं आये हैं पर स्वाध्याय और लगन से वे बारीकी से पढ़कर उत्कृष्ट सामग्री बना रहें है।
सचिन जैन पेशे से पत्रकार हैं और इस समय विकास संवाद नामक संस्था के साथ भोपाल में रहकर विकास के मुद्दों पर वर्तमान में रणनीतिक संचार पर काम कर रहें हैं। वे प्रतिष्ठित अशोका फेलोशिप के फेलो भी है। उन्होंने 100 के करीब पुस्तकें अलग-अलग मुद्दों पर लिखी है। लगभग 2 दशक से ज्यादा समय से सचिन भोजन का अधिकार, कुपोषण, आजीविका, पंचायती राज, पैरवी, संचार और अन्य सामाजिक मुद्दों पर मध्यपदेश और देश के अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे हैं। देश और प्रदेश की कई नीतियां बनाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वे कहते हैं कि “दो दशक तक पत्रकारिता और जमीनी स्तर पर काम करने के बाद यह समझ बनी कि हमें संविधान पर काम करने की ज्यादा जरूरत है, क्योंकि जिस तरह से संवैधानिक मूल्यों का ह्रास हुआ है और संविधान की लगातार उपेक्षा हुई है वह बहुत चिंताजनक है। किसी भी देश को चलाने के लिए संविधान का होना अत्यंत आवश्यक है साथ ही लोगों को संविधान की व्यापक और गहरी समझ होना चाहिए, और जब तक यह नहीं होगा, लोगों में संवैधानिक मूल्यों का विकास नहीं होगा, उन्हें अपने मूल अधिकार और कर्तव्य से हम वाकिफ नहीं करवाएंगे - तब तक हमारे विकास और सामाजिक परिवर्तन का कोई अर्थ नहीं है”।
उनकी बारीक अवलोकन क्षमता और लेखनी से उपजी है चार किताबें, संविधान का कैलेंडर और साथ ही एक बड़ा पोस्टर। “संविधान और हम, भारतीय संविधान की विकास गाथा, जीवन में संविधान और भारत का संविधान – महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क”, जैसी चार किताबें लिखकर उन्होंने संविधान के बारे में जन जागृति फैलाने का महत्वपूर्ण काम किया है, साथ ही 2023 का अनूठा कैलेंडर विकसित किया है जिसमे संविधान के बार में , बहुत बढ़िया ढंग से चर्चा की गई है। एक पोस्टर भी संविधानिक मूल्यों को लेकर बनाया है जो मुझे लगता है कि यह पोस्टर भारत के हर घर और संस्थान में लगाया जाना चाहिए।
सचिन कहते हैं “कोई बहुत बड़े आग्रह नहीं हैं। यह जतन एक स्व-प्रयोग का परिणाम है। जिसका हासिल यही है कि संवैधानिक मूल्य, वास्तव में मानवीय मूल्यों का ही दूसरा रूप हैं। जिन्हें हम एक मूल्य आधारित जीवन में देख-महसूस कर सकते हैं। जब हम अपने जीवन, अपने व्यवहार और दुनिया से अपने सम्बन्ध पर सजगता से नज़र डालने लगते हैं, जब यह विचार करने लगते हैं कि क्या सही है और क्या गलत है; जब उचित और अनुचित को जानने लगते हैं, जब नैतिक और अनैतिक पहलुओं को पहचानने लगते हैं, तब हम संवैधानिक मूल्यों को अपने सामान्य जीवन में लागू होते देख सकते हैं।”
संविधान के प्रावधानों की भाषा कानूनी हो सकती है, लेकिन उनकी भावनाएं पूरी तरह से मानवीय हैं। यह दावा तो नहीं किया जाना चाहिए कि संविधान राजनीतिक पक्षधरता से परे होता है। हमारा संविधान भी राजनीति से परे नहीं है - लेकिन इसके आधारभूत मूल्यों और इसकी मंशा एक बेहतर समाज, एक बेहतर भारत के निर्माण की रही है।
इन्हीं बातों को लेकर सचिन ने पहली पुस्तक लिखी “संविधान और हम”, जो किशोर वय के बच्चों और युवाओं के लिए थी। इस पुस्तक को आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर ने प्रकाशित किया और इसकी बहुत जगह-जगह चर्चा हुई, इसे व्यापक स्तर पर वितरित किया गया तब लोगों ने खासकर ग्रामीण क्षेत्र में इस किताब कि सहज और सरल भाषा की सराहना हुई। पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी था।
सचिन की दूसरी किताब “भारतीय संविधान की विकास गाथा” थी - जो अघोरा प्रकाशन, वाराणसी में प्रकाशित की गई थी। इस किताब में वो सब बारीक तथ्य और बहस हैं जिसमें भारतीय संविधान के बनने की कहानी और संविधान के विकास क्रम का उल्लेख है। इस पुस्तक में सचिन लोकतंत्र, भारत में लोकतंत्र, उपनिवेशवाद, भारत में नियोजन की व्यवस्था, आधुनिक संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संविधान और विचारों की विविधता और संविधान सभा की 14 और 15 अगस्त की सभा से लेकर भारत के संविधान और व्यवस्था के बनने में डॉक्टर अंबेडकर का योगदान, महात्मा गांधी और संविधान, आदिवासी, वैश्विक अशांति, धर्म, गैर बराबरी ऋण की अर्थव्यवस्था और लोगों का एक भीड़ के रूप में तब्दील हो जाने के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं।
पुस्तक में वे कहते हैं कि संविधान सभा में जिस तरह की बहस हुई थी,विभिन्न ढांचों, भाषा, से लेकर ध्वज और कार्यप्रणाली के बारे में सभा के सदस्यों के बीच जो लंबी बातचीत की गई है, जिस पर घंटों बहस चली है, इन सब चीजों को लेकर लोगों को जानने की जरूरत है और यह समझना होगा कि आज जो देश की स्थिति है - चाहे वह बराबरी की बात हो, छुआछूत के निर्मूलन की बात हो, दलित उत्पीडन की बात हो, गैर बराबरी या स्त्री स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात हो - यह सब करने में संविधान सभा के लोगों ने दिन-रात एक कर दिया। इस पुस्तक में वे हजारों संदर्भ और बहस के मुद्दों को लेकर प्रामाणिक और विस्तृत बातचीत करते हैं और बताते है कि संविधान का बनना एक बड़ी और पेचीदा प्रक्रिया थी, आज जिस स्वरूप में हम संविधान देख रहें है वह कई लोगों कई अनथक मेहनत का नतीजा है।
“जीवन में संविधान” नामक किताब हमारे जीवन की कहानियां है जहां पर हम प्रतिदिन संवैधानिक मूल्यों का नामात्र क्षरण देखते हैं बल्कि हम यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि सत्ता, व्यवस्था और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया ने किस तरह से आम आदमी को और खास आदमी को अलग-अलग जगह पर नागरिकों की श्रेणियां बना कर खड़ा कर दिया है। पचहत्तर से ऊपर की ये कहानियाँ आजादी के बाद संविधानिक मूल्यों की लड़ाई, संघर्ष और तिल - तिल कर जी रहे वंचित और दबे हुए लोगों की एक ऐसी दास्तान है जो एक लम्बी सुरंग के मानिंद विकास के रास्ते में से गुजर रही है – इन कहानियों में गरीब, बेबस लोग हैं जो दलित हैं, स्त्रियाँ हैं, बूढ़े और लाचार लोग हैं, कुपोषित बच्चे हैं, आजीविका के लिए लड़ते लोग हैं, किशोर हैं, युवा हैं – ये सब जो नागरिक होने की पीड़ा भुगत रहें हैं। कहानी दर-कहानी आप पीड़ा, संत्रास, अवसाद और गहन नैराश्य पाते हैं, गुस्सा आता है, क्षोभ होता है, दया आती है, इन्हें पढ़ते हुए आप झुरझुरी महसूस करते हैं, क्षुब्ध होते हैं और आपके शरीर पर रोयें उग आते हैं कि हम किस समाज में रह रहें है जहाँ यह सब रोज– रोज घटित होता है और हम सब मूक बने रहतें हैं।
पर ठीक इसी समय आपको इस लम्बी अँधेरी सुरंग के उस पार रोशनी की हल्की सी झलक मिलती है, ताज़ी हवा के झोंके इस सुरंग की बदबूदार हवा को बदलकर, फिजां बदलने की कोशिश करते हैं, इन मेहनतकश लोगों के संघर्ष की कहानियां आपको आश्वस्त करती हैं कि सब कुछ अभी ख़त्म नहीं हुआ है। हर स्तर पर संविधान के मूल्यों की लड़ाई, अपने वाजिब हकों के लिए लड़ रहे लोग प्रेरणा बनते हैं – न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में सब कुछ खराब नही है - हालांकि द्वंद, चुनौतियां अभी ज्यादा बढ़ी हैं पर इनसे लड़ने का हौसला भी उतनी ही शिद्दत से मजबूत हुआ है।
जब बना बनाया रास्ता नहीं मिलता है, तभी हम नया रास्ता बनाने की कोशिश शुरू करते हैं। इस संकलन की सभी कहानियाँ वास्तविक और तथ्य-प्रधान हैं। इसलिए इन्हें कहानी कहना भी शायद अन्याय होगा, पर यह सब हमारे आसपास घटित हो रहा है। दुर्भाग्य है कि हाथरस जैसी घटनाएं अभी भी हो रही हैं और गटर में मैला साफ करते हुए लोगों की मौत भी हो रही है, बच्चे अभी भी कुपोषित हैं, परन्तु वहीं लड़ाई लड़ने वाले भी संगठित हो रहें हैं और व्यवस्था बदलने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं। ये कहानियाँ पढ़कर अगर हममें से किसी के मन भी संविधान को पढ़कर पलटने की इच्छा हो जाए या हम संविधानिक मूल्यों की ओर एक कदम भी आगे बढ़ जाए, तो इस किताब का मकसद पूरा होगा।
76 वर्ष के इतिहास में तमाम प्रयासों के बावजूद भी दलित, महिलाएं, पिछड़े, विकलांग और समाज के हाशिए पर पड़े वंचित जन अभी भी अपने मूल अधिकारों का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। यह छोटी-छोटी कहानियां हमारे आसपास रोज घटती हैं, परंतु जिस संवेदनशीलता के साथ सचिन इनका अवलोकन करके व्याख्या करते हैं - वह उनकी संवेदनशीलता ही नहीं दिखाता, बल्कि यह दर्शाता है कि अभी हमें बहुत लंबा सफर तय करने की जरूरत है। सचिन की 76 कहानियां मातृत्व सुरक्षा से लेकर आरक्षण, छुआछूत, दैनिक मजदूरी, सरकारी योजनाओं में लोगों का लाभ,, युवाओं की स्थिति नौकरी, भेदभाव आजीविका, भोजन का अधिकार, जेंडर आधारित समता, निर्णय में महिलाओं की भागीदारी, विकलांगों की स्थिति, आदि को संविधान के नजरिए से संवैधानिक मूल्यों के तहत देखने का एक प्रयास है।
वे इस प्रयास में बहुत हद तक सफल होते हैं और यह बताते हैं कि मंजिल अभी कोसों दूर हैं। संविधान अभी सत्ता, न्यायपालिका और प्रशासन की जकड़न में है, मीडिया भी बहुत हद तक संविधान को समझ नहीं पाया है और जो समझ गया है वह जानबूझकर के मूल्यों को पीछे रखकर एक गलत किस्म की तस्वीर पेश करने का प्रयास करता है।
अपनी चौथी किताब “भारत का संविधान : महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क” में वे 8 अध्यायों के साथ संविधान बनने की कहानी और महत्वपूर्ण तथ्यों का तारीखवार संकलन करके यह बता रहे हैं कि संविधान के बनने में कितने प्रयास किए गए, किस तरह की बहस हुई और कितनी गहराई से तत्कालीन समाज की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझ कर आने वाले आज़ाद हिंदुस्तान की तस्वीर की झलक संविधान में दिखाई देती है और इसके लिए जिस तरह से संविधान सभा के लोगों ने बहस की और निर्णय करके संविधान का मूल पाठ तैयार किया -अकल्पनीय है। इस पुस्तक की प्रस्तावना प्रसिद्ध कानूनविद, शोधार्थी और युवा अधिवक्ता गौतम भाटिया ने लिखी है। वे कहते हैं “यह किताब आधुनिक भारत में संविधान निर्माण का विस्तृत और व्यापक इतिहास उपलब्ध कराती है। भारतीय संविधान 1949-50 में अचानक सामने नहीं आया, बल्कि इसका एक लंबा इतिहास रहा है जिसका एक सिरा भारत में ब्रिटिशों के शुरुआती अधिपत्य और 1773 के बंगाल रेगुलेशन से मिलता है। इस रेगुलेशन के जरिये औपनिवेशिक शासकों के लिए शासन का शुरूआती चार्टर तैयार किया गया था। 19वीं सदी के अंतिम समय में और सन् 1857 के विद्रोह के बाद दशकों से भारतीयों ने विभिन्न तरीकों से भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को चुनौती दी। इनमें से एक तरीका संवैधानिक तरीका भी था। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद उसने जल्दी ही यानी 1895 के आसपास संवैधानिक दस्तावेज तैयार करने का काम शुरू कर दिया था। इनमें मूल अधिकार सम्बंधित विधेयक भी शामिल था - जिससे स्वतंत्र भारत का खाका बनना था।
यद्यपि भारतीय संविधान को एक परिवर्तनकारी दस्तावेज होना था और यह पुस्तक कुछ ऐसे मुद्दों की सूची पेश करती है जिनका सामना किसानों को करना पड़ रहा था और जिन्होंने जरूरी तात्कालिक परिवर्तन किए। गरीबी, अधिक बढ़ती आबादी,अल्प साक्षरता दर, कमजोर पड़ता औद्योगिक आधार इसमें शामिल थे। यहाँ यह याद करना महत्वपूर्ण है कि भारतीय संविधान को दो अलग-अलग मायनों में परिवर्तनकारी होना था - इसे राजनीतिक दृष्टि से बदलाव लाने वाला होना था और इस मामले में इसमें विदेशी और औपनिवेशिक दबदबे को स्वतंत्रता और स्वशासन से बदला। साथ ही नागरिकों को उनके वास्तविक अधिकार दिए, परंतु इसे सामाजिक दृष्टि से भी बदलाव लाने वाला होना था। इस मामले में इसे सामाजिक रिश्तो में बदलाव लाना था और निजी क्षेत्र का लोकतंत्रीकरण करना था। इसका अर्थ था कि जाति और पितृसत्ता जैसी घातक संस्थाओं का मुकाबला करना और आर्थिक दबदबे से निपटना। इसका कुछ हिस्सा बुनियादी अधिकारों वाले भाग में पाया जाता है जबकि अन्य राज्य नीति के निदेशक तत्व में पाए जा सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि संविधान की तमाम परिवर्तनकारी भावनाओं की पूर्ति हो गई हो उदाहरण के लिए यह पुस्तक इस बात पर ध्यान देती है कि कैसे हम राज्यों के कानून तथा मृत्युदंड से निजात पाने में अभी तक नाकामयाब रहे हैं, यह बात याद रखना महत्वपूर्ण है कि संविधान संघर्षों का क्षेत्र है और यह लड़ाइयां हमेशा लड़ी जाती रहेंगी।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आजादी के 75 वर्षों के काल में भारत की राज्य और समाज व्यवस्था दोनों में ही संविधान की गंभीर उपेक्षा की गई हैं ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि संविधान प्रचलित राज्य व्यवस्था तथा सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन लाने की पहल करता है। राज्य और समाज दोनों को ही ऐसा होना स्वीकार नहीं था। भारत के संविधान की जिजीविषा को कुछ बिंदुओं में समझने की कोशिश की जा सकती है और यह जानना समझना जरूरी है कि भारत का संविधान किन परिस्थितियों में बनाया गया क्या वह बहुत सहज सरल और शांति काल के साथी इस प्रश्न का उत्तर भारत के संविधान के महत्व को स्थापित करता है।
आठ अध्याय में फैली इस किताब के अंत में डॉक्टर अंबेडकर के संविधान सुधारों पर महत्वपूर्ण विचार रखे गए हैं जिसमें वे संविधान के उद्देशिका से लेकर से लेकर संविधान में बदलाव या संशोधन को लेकर क्या और किस तरह की प्रक्रिया होनी चाहिए इसके बारे में बात करते हैं। पूरी पुस्तक में विभिन्न प्रकार के संदर्भ, केस स्टडीज, सुप्रीम कोर्ट के फैसले, लोकसभा और राज्यसभा की बहस के साथ-साथ देश के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं द्वारा लिखे गए आलेखों को भी उद्धत किया गया है।
ये किताबें सिर्फ अकादमिक जगत के लिए नहीं, बल्कि युवाओं, कानून के विद्यार्थियों, शासन प्रशासन एवं मीडिया से जुड़े लोगों और समुदाय के लोगों के लिए हैं जिसका व्यापक स्तर पर उपयोग कर संविधान पर एक अच्छी समझ बनाई जा सकती है। सभी किताबों की भाषा सरल और प्रांजल है। बहुत सरल तरीके से हर बात को विस्तार और बारीकी से समझाया गया है, साथ ही हर सिद्धांत और संकल्पना के उदाहरण दिए गए हैं। चारों किताबों को एक क्रम में यदि पढ़ा जाए तो अंत में कोई भी संविधान की मोटी-मोटी बातें सीख सकता है और यह कह सकता है कि आज के समय में संवैधानिक मूल्य अति महत्वपूर्ण है, साथ ही उनका बचाया जाना बहुत जरूरी है।
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में जब तक संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात कर लोकतंत्र को सही मायनों में हम नहीं सीखेंगे तब तक हर आदमी में विकास नहीं हो सकता, और तब तक हम देश में स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा जमीनी स्तर पर नहीं देख पाएंगे, ऐसे में सचिन जैन की ये चार किताबें और विकास संवाद द्वारा बनाया गया कैलेंडर और पोस्टर बहुत महत्वपूर्ण है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आपसे naiksandi@gmail।com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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