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ख़बरों के आगे-पीछे: मोदी, गांधी, चुनाव और पाकिस्तान

इन चुनावों में बहुत बातें चलीं। अंत तक आते आते पाकिस्तान से लेकर महात्मा गांधी तक का मुद्दा उठा। इसी सब का विश्लेषण कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन। 
modi and rahul

पाकिस्तानी नेताओं ने तो मोदी की भी तारीफ़ की

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में कई बार कहा कि पाकिस्तान से राहुल गांधी और विपक्षी गठबंधन को समर्थन मिल रहा है। पाकिस्तान चाह रहा है कि शहजादे प्रधानमंत्री बने। इसके बाद उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि पाकिस्तान से राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल को समर्थन मिल रहा है, जो कि बड़ी चिंता की बात है और इसकी जांच होनी चाहिए। लेकिन सवाल है कि अगर पाकिस्तान के किसी नेता ने राहुल गांधी या केजरीवाल की तारीफ की है तो इसमें क्या नई या गलत बात है? पाकिस्तान से भारत का टकराव आजादी के बाद से ही चल रहा है। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठ कर पाकिस्तान गए थे और नरेंद्र मोदी तो बिन बुलाए अचानक लाहौर पहुंच गए थे, वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने। 

अगर वहां के किसी नेता द्वारा तारीफ की बात करें तो पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने जेल जाने से पहले कई बार प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की। उन्होंने रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर लगी पाबंदी के बावजूद वहां से कच्चा तेल खरीदने के प्रधानमंत्री मोदी के फैसले की तारीफ की। उन्होंने कई बार कहा कि मोदी विदेश नीति के मामले में स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। जब इमरान खान द्वारा मोदी की तारीफ को तमगे की तरह प्रचारित किया जा सकता है तो फवाद हुसैन जैसे दूसरी कतार के नेता ने राहुल गांधी की तारीफ कर दी तो उसमें चिंता की क्या बात हो गई? 

सोच-समझ कर गांधी को बौना बताया 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी को लेकर कह दिया कि उन्हें दुनिया में कोई नहीं जानता था और जब 'गांधी’ फिल्म बनी तब लोगों ने उन्हें जाना। उन्होंने कहा कि 75 साल में सरकारों को कुछ करना चाहिए था ताकि दुनिया गांधी को जानती। उनके इस बेतुके बयान के बाद सोशल मीडिया में हंगामा मचा और तरह-तरह से मोदी की खिल्ली उड़ाई गई। लेकिन ऐसा नहीं है कि मोदी ने गांधी के बारे में यह बात मूर्खता या अज्ञानवश कही हो। उनकी समझ और कई मामलों में कच्ची हो सकती है, उन्होंने गांधी के बारे में भले ही कुछ नहीं पढ़ा हो, लेकिन वे यह तो जानते है कि गांधी अपनी महानता की वजह से अपने जीवनकाल में ही वैश्विक ख्याति अर्जित कर चुके थे। उन्हें यह भी मालूम है कि गांधी की महानता इतनी व्यापक थी कि रिचर्ड एटनबरो उन पर फिल्म बनाने आए थे और उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फिल्म बनाने के लिए सरकार की ओर से पैसे दिलवाए थे। 

इसलिए यह मोदी के अज्ञान का तो मामला ही नहीं है। फिर सवाल है कि सब कुछ जानते-बूझते अगर मोदी कह रहे हैं कि फिल्म बनने से पहले गांधी को कोई नहीं जानता था, तो उसके पीछे उनका क्या इरादा है? गांधी का महत्व कम करना तो स्पष्ट रूप से समझ में आता है, जो कि आरएसएस और भाजपा का पुराना एजेंडा है। एक मकसद अपने को बतौर भगवान या मसीहा स्थापित करने का भी है। वैसे गांधी के बरक्स पहले सावरकर को और अब आंबेडकर को आगे करने का जो प्रयास है वह भी एक कारण हो सकता है। गांधी सांप्रदायिकता, हिंसा और एकाधिकारवादी राजनीति के रास्ते में बाधा बनते हैं। इसीलिए उन्हें निशाने पर लिया जा रहा है।

विपक्ष के खिलाफ भाजपा का माइंड गेम 

कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों ने एक दांव चला कि वे चुनाव जीत रहे हैं और इसलिए एक जून को ही बैठक बुला कर सरकार की रूपरेखा पर बात कर रही है। दूसरी ओर भाजपा ने भी यह दांव चला है कि वह तीन सौ से ज्यादा सीट जीत चुकी है और अब चार सौ की ओर बढ़ रही है। इस नैरेटिव का दूसरा पार्ट यह है कि कांग्रेस बुरी तरह से चुनाव हार रही है और उसका ठीकरा फोड़ने के लिए वह बलि के बकरे की तलाश कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह दोनों चुनाव प्रचार में लगातार यह बात कह रहे है। 

प्रधानमंत्री ने कई बार कहा कि विपक्षी गठबंधन के शहजादे चार जून के बाद खटाखट विदेश भागेंगे यानी चुनाव हार कर सब छुट्टियां मनाने विदेश जाएंगे। इसी तरह मोदी और शाह बार बार ईवीएम का जिक्र कर रहे हैं। मोदी ने कहा कि चार जून को कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां चुनाव हार जाएंगी और उसके बाद ठीकरा ईवीएम पर फोड़ेगी। ईवीएम पर हालांकि अब विपक्षी पार्टियां सवाल नही उठा रही हैं लेकिन भाजपा इस बहाने मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए हुए है। इसी तरह अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस में भाई-बहन यानी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा हार की जिम्मेदारी नहीं लेंगे। हार की जिम्मेदारी खड़गे को ही लेनी होगी। ये सारी बातें यह स्थापित करने के लिए कही जा रही है कि कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां चुनाव हार चुकी हैं ताकि आखिरी चरण में अगर कुछ मतदाता अनिर्णय की स्थिति में हो तो वे भाजपा के साथ जुड़ जाएं।

सेना प्रमुख को सेवा विस्तार क्यों?

केंद्र सरकार ने भारतीय थल सेना के प्रमुख जनरल मनोज पांडे को एक महीने का सेवा विस्तार दिया है। वे 31 मई को रिटायर होने वाले थे लेकिन उससे पांच दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट कमेटी ने उनका कार्यकाल 30 जून तक के लिए बढ़ा दिया। सरकार की ओर से कहा गया है कि लोकसभा चुनाव के बीच किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के पद पर नई नियुक्ति नहीं की जा रही है इसलिए नए सेना प्रमुख की नियुक्ति भी टाल दी गई है। लेकिन यह बात सही नहीं है। लोकसभा चुनाव की घोषणा और आचार संहिता लागू होने के बाद केंद्र सरकार की नियुक्ति मामलों की कैबिनेट कमेटी ने 19 अप्रैल को ऐलान किया कि एडमिरल दिनेश के. त्रिपाठी देश के नए नौसेना प्रमुख होंगे और वे 30 अप्रैल को एडमिरल आर. हरिकुमार की जगह लेंगे। सवाल है कि जब चुनाव के बीच में नए नौसेना प्रमुख की नियुक्ति हो सकती है तो नए थल सेना प्रमुख की नियुक्ति क्यों नहीं हो सकती? हालांकि जनरल मनोज पांडे का कार्यकाल एक महीना बढ़ाने से संभावित सेना प्रमुखों की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर इस अवधि में कोई वरिष्ठ सैन्य अधिकारी 60 साल का होकर रिटायर हो रहा होता तो इस पर ज्यादा सवाल उठते। इसके बावजूद सेना प्रमुख का कार्यकाल बढ़ाने को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि यह बहुत असामान्य बात है। आमतौर पर एक या दो महीने पहले ही नए सेना प्रमुख के नाम की घोषणा हो जाती है। 

मोदी विपक्षी पार्टियों को तोड़ने में जुटेंगे! 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के सिलसिले में पश्चिम बंगाल की अपनी आखिरी सभा में जो कहा वह बहुत अहम है। उन्होंने कहा कि चार जून के बाद अगले छह महीने में देश मे बड़ा राजनीतिक भूचाल आएगा। इसके आगे उन्होंने इसमे जोड़ा कि तमाम परिवारवादी पार्टियां अपने आप बिखर जाएंगी क्योंकि उनके कार्यकर्ता भी अब थक गए है। मोदी का यह बयान मामूली नहीं है। इससे भाजपा की आगे की राजनीतिक योजना की रूपरेखा का खुलासा होता है। इससे यह अंदाजा लग रहा है कि अगर भाजपा जीतती है तो ऑपरेशन लोटस बड़े पैमाने पर चलेगा। प्रधानमंत्री ने परिवारवादी पार्टियों के टूटने, बिखरने की बात कही है लेकिन ऐसा नही है कि जो पार्टियां किसी खास राजनीतिक परिवार द्बारा संचालित नहीं हैं उनके ऊपर भाजपा का निशाना नहीं है। अगर इस बार भाजपा जीतती है तो दो ऐसी पार्टियां उसके निशाने पर आएंगी, जिनमें परिवारवाद नहीं है। पहली पार्टी ओडिशा में नवीन पटनायक का बीजू जनता दल है और दूसरी बिहार में नीतीश कुमार का जनता दल यू। लंबे समय से भाजपा की नजर इन दोनों पार्टियों पर है। जहां तक परिवारवादी पार्टियों का सवाल है तो कई पार्टियां शिव सेना और एनसीपी की गति को प्राप्त हो सकती हैं। अगर भाजपा फिर से केंद्र में सरकार बनाती है तो कई क्षेत्रीय पार्टियों में तोड़-फोड़ कराने की कोशिश होगी। ऐसी कोशिश कांग्रेस को भी तोड़ने की होगी। कांग्रेस के अलावा जिन पार्टियों में टूट-फूट होने का खतरा है उनमें आम आदमी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा और तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति भी शामिल हैं। 

विपक्ष ने मोदी को निराश किया

इस बार भी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी आजमाई हुई रणनीति अमल में लाए हैं। यह आजमाई हुई रणनीति है विपक्ष को उकसाने की। हर चुनाव में मोदी इसे आजमाते हैं और हर बार कोई न कोई नेता उनके जाल में फंस जाता और भड़क कर उनके खिलाफ अनापशनाप बोल जाता है। मोदी इसका फायदा उठा लेते हैं। मोदी को पता था कि विपक्ष के नेता उनके खिलाफ कई बड़े मुद्दे उठा सकते हैं। 10 साल के शासन में लोगों की नाराजगी बढ़ाने वाले कई कारण पैदा हुए हैं। इसी तरह मोदी को पता था कि उनके कई उम्मीदवार बहुत कमजोर हैं, जिनके खिलाफ विपक्ष मजबूत है। यही वजह रही कि उन्होंने सब कुछ अपने पर केंद्रित कराने की कोशिश की। वे नहीं चाहते थे कि सरकार के कामकाज या उनके उम्मीदवार के बारे में चर्चा हो। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा, पर्यावरण आदि किसी भी जरूरी मुद्दे पर वे लोगों का ध्यान नहीं जाने देना चाहते थे। उन्हें अंदाजा था कि अगर मुद्दों पर या उम्मीदवार के नाम पर लड़ाई हुई तो भाजपा के पास लड़ने को कुछ नहीं है। लेकिन अगर लड़ाई उन पर केंद्रित रही तो विपक्ष कमजोर पड़ेगा। इसलिए वे विपक्षी गठबंधन और उसके नेताओं के खिलाफ बेहद अनाशपनाप बोलते रहे, ताकि वे भड़क कर उन पर जवाबी हमला करे। लेकिन उनका यह दांव नहीं चला। विपक्ष के किसी नेता ने भी मोदी का इरादा पूरा नहीं होने दिया। इसीलिए मतदान का आखिरी चरण आते-आते मोदी आपे से बाहर होते दिखे। 

भाजपा के काम नहीं आ सके अमरिंदर 

भाजपा ने कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी का इस उम्मीद में विलय कराया था कि वे पंजाब में भाजपा का चुनाव अभियान संभालेंगे। गौरतलब है कि 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में कैप्टन अकेले लड़े थे और भाजपा को कुछ खास फायदा नहीं पहुंचा पाए थे। हां, उन्होंने कांग्रेस के बुरी तरह से हारने में जरूर भूमिका निभाई थी। लेकिन उसके बाद भाजपा ने उनकी पार्टी का विलय कराया और उनके हिसाब से पंजाब की अपनी टीम बनाई। चुनाव से ऐन पहले कैप्टन की पत्नी परनीत कौर भी भाजपा में शामिल हो गईं और पटियाला सीट से उम्मीदवार बनी। लेकिन अचानक कैप्टन अमरिंदर सिंह की तबीयत खराब हो गई और वे अस्पताल में भर्ती हो गए। खुद परनीत कौर ने बताया कि कैप्टन अस्पताल में हैं और बेटे रणइंदर उनकी देखरेख में हैं। बेटी के ससुराल वालों के यहां भी कुछ पारिवारिक समस्या हो गई है, जिसकी वजह से वे भी प्रचार का काम नहीं देख पाए। सो, परनीत कौर का प्रचार गड़बड़ा गया। लेकिन उससे ज्यादा भाजपा को मुश्किल हुई। कैप्टन शारीरिक रूप से प्रचार अभियान से दूर रहे लेकिन सोशल मीडिया पर भी उनकी ओर से कुछ नहीं कहा गया। भाजपा के नेता चाहते थे कि परिवार के लोग उनके सोशल मीडिया का इस्तेमाल करें और माहौल बनाएं। उससे कांग्रेस समर्थकों का एक वर्ग भाजपा की ओर आ सकता है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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