“सच्चाई और पुनर्मेल के लिए आक्रामक मर्दानगी को छोड़ने की ज़रूरत है”
‘आफ्टर द वार’ (युद्ध के बाद) (स्पीकिंग टाइगर, 2022) पुस्तक महाभारत के अंतिम पर्वों (फाइनल पार्ट्स ऑफ द महाभारत) का नया अनुवाद है, जिसे वेंडी डोनिगर ने किया है। तीन सौ ईसा पूर्व और तीन सौ ईस्वी के बीच महाभारत के रचित 75,000 पद्य (श्लोक) उत्तर भारत के कुरु वंश की दो शाखाओं, पांडवों और कौरवों के बीच हुए पौराणिक युद्ध और उसके बाद की स्थितियों का वर्णन करते हैं। पूरे दक्षिण एशिया में और उसके बाहर भी, कथा कहने वालों ने महाकाव्यों में महानतम इस महाकाव्य के माध्यम से विगत की पीढ़ियों का मनोरंजन किया है और उन्हें शिक्षित किया है। लेकिन एक अनुवादक के रूप में वेंडी डोनिगर अपनी भूमिका में कहती हैं कि कथा कहने वालों ने आमतौर पर “भावना के तीव्र ज्वार, पौराणिक कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक जटिलताओं, और परस्पर विरोधी चरित्रों, जिन्हें महाभारत के अंतिम पर्वों में जीवंत रूप से चित्रित किया गया है और [जो]…अपनी स्वयं की एक सम्मिलित तथा स्व-परिबद्ध (सेल्फ बाउन्डिड) कहानी कहते हैं, को कम करके आंका है।
पंद्रहवें पर्व (आश्रम्वासिका पर्व, लिविंग इन द हर्मिटिज) में अपने अंतिम दिनों में वन में वास कर रहे सम्राट युधिष्ठिर की मां कुंती और कौरवों के माता-पिता धृतराष्ट्र तथा गांधारी को दावानल अपनी चपेट में ले लेता है। लेकिन क्या वे एक निरर्थक मृत्यु को प्राप्त हुए? सोलहवें पर्व (मौसल पर्व, द बैटल ऑफ द क्लब्स) में भाग्य सभी को अपने चक्र में जकड़ लेता है, यहां तक देवताओं को भी, जब भगवान कृष्ण मृत्यु को गले लगाते हैं और गांधारी के श्राप के रूप में उनके यादव वंश का मदोन्मत्त प्रकलह और डाकुओं के हमले में विनाश हो जाता है। पर्व सत्रह (महाप्रस्थानिक पर्व, द ग्रेट डिपार्चर) और अठारह (स्वर्गारोहण पर्व, क्लाइमिंग टु हेवन) में पांडवों के लिए यह स्वर्ग की ओर जाने का समय है, लेकिन इससे पहले नैतिक नियम में युधिष्ठिर की दृढ़ता की परख के लिए एक कुत्ता उनकी परीक्षा लेता है।
बहुत-सी प्रशंसित किताबों की लेखिका और संस्कृत पाठ्यों (जिनमें ऋग्वेद, लॉ ऑफ मनु और कामसूत्र शामिल हैं) की प्रतिष्ठित अनुवादक वेंडी डोनिगर, लेखिका गीता हरिहरन के साथ इस वार्तालाप में इस पुस्तक और अन्य चीजों के बारे में बताती हैं।
गीता हरिहरन (जी.एच.) : महाभारत के अंतिम पर्वों (लास्ट बुक्स ऑफ द महाभारत) के आपके अनुवाद के लिए ‘आफ्टर द वार’ (युद्ध के बाद) मुझे एक सटीक शीर्षक लगता है। अतीत में जाए बिना इन पर्वों का अर्थ समझना असंभव है – वो महान युद्ध और कैसे उसने उस वर्तमान को आकार दिया जिसे बचे हुए लोगों को जीना ही पड़ेगा। चरित्रों के लिए भविष्य का सामना करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है – हर किसी के लिए मृत्यु के बाद भी जीवन होता है। बहुत पहले के अतीत और हाल के अतीत तथा वर्तमान एवं भविष्य के बीच पाठ में इस बहु-स्तरीय वार्तालाप पर क्या आप कोई टिप्पणी करना चाहेंगी?
वेंडी डोनिगर (डब्ल्यू.डी.) : अतीत निश्चित रूप से महाभारत के अंतिम पर्वों में प्रेत की तरह मंडराता रहता है। प्रमुख चरित्र अपने कर्म से त्रस्त हैं, और विगत में उन्होंने जो गलतियां की थीं, खासतौर से सोये हुए योद्धाओं की हत्या या रथ के पहिये को ठीक करने में जूझते व्यक्ति की हत्या जैसे युद्ध के नियम के उल्लंघनों के अपराधबोध से संतप्त हैं। नायकों की मां कुंती अपनी उस स्मृति से संतप्त है, जिसमें उसने जिस तरह से अपने नवजात शिशु कर्ण, जिसका जन्म उसकी (कुंती) इच्छा के विरुद्ध सूर्य देवता की वजह से हुआ था, का परित्याग किया था। स्त्री का यह पाप एक योद्धा द्वारा अपने साथी का साथ छोड़ देने के पाप के समान प्रतीत होता है। और उनकी अपने भीतर की शर्मिंदगी और पछतावे के अतिरिक्त, इन नायकों द्वारा जो बहुत-से अपराध किए गए उनका परिणाम श्रापों के रूप में सामने आता है जो इन अंतिम पर्वों में अंततः इसका फल भोगते हैं। इनमें प्रमुख है गांधारी का श्राप, कि कृष्ण अपने परिवार का विनाश होते हुए स्वयं देखेंगे, एक श्राप जो बाद में ऋषियों के समूह के श्राप के माध्यम से प्रबलित होता है, कि कृष्ण के परिवार के जीवित बच गए योद्धा नशे में होंगे और एक-दूसरे की हत्या कर देंगे। इसलिए, मानसिक यंत्रणा के रूप में अतीत न केवल इस ड्रामा के किरदारों के दिमागों में चलता रहता है, बल्कि उनके जीवन में घटनाक्रमों के स्रोत के रूप में और उनके घातक अंतिम युद्ध के स्रोत के रूप में भी चलता रहता है। नायक निरंतर भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं और इस पर बहस करते हैं कि जब उनकी मृत्यु होगी, तो उनके साथ क्या होगा। महाभारत के अंतिम पर्व जटिल परिदृश्य को दर्शाते हैं, जो पुनर्जन्म के बारे में उतना नहीं है जितना कि स्वर्ग और नरक के बारे में है : उन्हें नरक में अपने बुरे कर्म का भुगतान करना होगा और बाद में स्वर्ग में उन्हें उनके अच्छे कर्म के लिए पुरस्कृत किया जाएगा।
जी.एच. : अतीत और वर्तमान की बात करते हुए, महाभारत के इन अंतिम पर्वों में विभिन्न रूपों के जरिये समय आगे बढ़ता है और इनमें सबसे डरावना है समय का वो जटिल अवतार है जो कलियुग को लाता है। एक युग या सांसारिक/भौतिक चरण की इस अवधारणा के बारे में जो आपने ‘ट्विस्टिंग ऑफ टाइम’ के रूप में अनुवाद किया है, क्या आप हमें इसके बारे और विस्तार से बताएंगी?
डब्ल्यू.डी. : समय सभी चीजों के अपरिहार्य बिखराव का समर्थन करता है; महाभारत में अक्सर जब बुरी चीजें घटित होनी शुरू होती हैं, तो कोई निष्कपट भाव से कहता है, ‘समय! समय!’ काल-पर्याय शब्द, शाब्दिक रूप से समय को मोड़ना या घुमा देना है, अक्सर जिसे दूसरी तरह से अकथनीय प्रलय के लिए एक स्पष्टीकरण के रूप में उद्धृत किया जाता है, इसके दो अर्थ हैं, कि समय वापस मुड़ रहा है – कि, अतीत से एक अभिशाप अब अपने प्रभाव को अंजाम देने के लिए आगे आया है – और कि, समय बुराई की तरफ मुड़ गया है, अर्थात यह विकृत (शाब्दिक रूप से, ‘अशुभ में बदल जाना’) हो चुका है। समय के इस घुमाव के अर्थ दोनों ही हैं, कि समय कुछ खास घटनाओं को मोड़ देता है, और समय स्वयं अन्य ताकतों द्वारा बदल दिया जाता है।
जी.एच. : एक कारण से, ये बाद के पर्व हमारे साथ शक्तिशाली रूप से प्रतिध्वनित होते हैं, जिसका कलियुग के हमारे स्वयं के जीवंत अनुभवों से संबंध है – यह युद्ध के ‘बाद’ के अर्थ में नहीं है, बल्कि ‘संदेह और भ्रम के युग’ का इशारा करता है, जो ‘चिरस्थायी सांस्कृतिक दुविधाओं’ से ग्रस्त है – निस्संदेह रूप से, बदल चुके समय का युग। क्या आपको लगता है कि ये पुस्तकें हमें हमारे समय के बारे में बताती हैं? और, एक और प्रश्न जिसकी पूछने की बड़ी इच्छा है (या मूर्खतापूर्ण भी हो सकता है) कि क्या ये जीवित रहने का कोई तरीका हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं, जिन्हें हम हमारे समय के लिए अपना सकते हैं?
डब्ल्यू.डी. : हां, स्पष्ट रूप से यह सर्वदा ही एक कलि युग है, हमेशा ही कलि युग रहा है और विभिन्न सभ्यताएं महज एक स्वर्ण युग या कृत युग (सतयुग) की कल्पना करती हैं, जब लोग असत्य नहीं बोलते थे और एक-दूसरे की हत्या नहीं करते थे, एक दूसरे को पीड़ा नहीं पहुंचाते थे। इसलिए, यह भावना है कि अतीत में चीजें अच्छी थीं – संयुक्त राज्य के साथ-साथ भारत के संबंध में एक भावना मैं निश्चित रूप से साझा करती हूं – यूक्रेन और पूरे वैश्विक स्तर पर गर्म होते ग्रह का उल्लेख किए बिना – जो प्राचीन संस्कृत पाठ्यों को ध्यान में रखते हुए है; और कलियुग में कैसे जीवन जीना है उसके बारे में उनकी सलाह निश्चित रूप से आज हमारे जीवन में प्रासंगिक है और शायद ऐसा लगता है कि हमें उसे खोज निकालना चाहिए। दुर्भाग्य से, वे अधिकतर यही कहते हैं कि बस कयामत के रोज और अगले स्वर्ण युग के लिए इंतजार करें;या फिर ज्यादा उपयोगी रूप से वे हमें बताते हैं कि अच्छे लोग समय और हालात के विरूद्ध भी काम कर सकते हैं और नैतिकता तथा न्याय के उन नियमों का पालन कर सकते हैं जो स्वर्ण युग में मान्य थे, और इसी तरह से घोर कलि युग के मध्य में भी छोटे-छोटे एकांकी स्वर्ण युग निर्मित कर सकते हैं।
जी.एच. : इन पुस्तकों में इन सांड जैसे आदमियों का सम्मान और साहस जैसे सभी गुण पीछे धकेल दिए जाते हैं। इन सब का स्थान क्या ले लेता है? क्या मुक्ति की खोज? या फिर यह कहना सही रहेगा कि ये पुस्तकें हठी प्रश्नों के उत्तर ढूंढती हैं, ‘यह सब किस लिए था, यह युद्ध, हिंसा और ये भ्रातृहत्या’? और हम इस सबके के परिणाम के साथ कैसे जीएंगे – दूसरे शब्दों में, हम कैसे जी पाएंगे?
डब्ल्यू.डी. : हां, मैं सोचती हूं कि ये पुस्तकें (महाभारत के अंतिम पर्व) युद्ध के विभिन्न कारणों से बहुत ज्यादा संबद्ध नहीं हैं, बल्कि इस प्रश्न से संबंधित हैं कि युद्ध के बाद किस तरह से जीना है, और विशेष रुप से युद्ध के परिणामों के साथ अब हमें कैसे जीना है, ताकि जब तुम्हारी मृत्यु होगी तो तुम नरक के बजाय स्वर्ग जाओगे। लेकिन उन नैतिक गलतियों के बारे में जो युद्ध का कारण बने, बल्कि जिन्होंने युद्ध के बुनियादी नियमों के उल्लंघन करने के लिए दोनों पक्षों के नायकों को प्रेरित किया, उसके बारे में बहुत सारी चर्चा और दोषारोपण है, और यह भी उस चर्चा का हिस्सा है जो यह निर्धारित करता है कि वे अंत में स्वर्ग जाएंगे या नहीं।
जी.एच. : विशेष रूप से, जब सम्मान और वीरता आपके भीतर से रिक्त हो जाती है, तब क्या युद्ध के बाद भी योद्धाओं के लिए जीवन है?
डब्ल्यू.डी. : प्रत्येक व्यक्ति, यहां तक कि युधिष्ठिर जैसे परम सदाचारी व्यक्ति ने भी कुछ नैतिक गलतियां कीं, और सम्मान एवं वीरता का उल्लंघन किया; हम इसे उस वक्त देखते हैं जब स्वर्गारोहण के समय में युधिष्ठिर के चारों भाई और उनकी पत्नी द्रौपदी एक-एक करके धरती पर गिरते हैं, इनमें से प्रत्येक को किसी प्रकार के गंभीर अपराध के बजाय छोटी मानवीय कमियों ने नीचे गिराया। युधिष्ठिर अकेले ही अपने मानव शरीर के साथ स्वर्ग में प्रवेश करते हैं – और उन्हें भी स्वर्ग में अनंतकाल तक रहने से पहले एक छोटी अवधि नरक में बितानी थी क्योंकि उन्होंने एक सफेद झूठ बोला था। और इसलिए, निश्चित रूप से युद्ध के बाद जीवन है, स्वर्ग और नरक, दोनों में ही, यहां तक कि उन योद्धाओं के लिए भी जिन्होंने अपनी स्वयं की संहिता का उल्लंघन किया था।
जी.एच. : इन पुस्तकों (महाभारत के अंतिम पर्वों) में निजी और सार्वजनिक, दोनों ही प्रकार से बहुत ज्यादा संतप्ति (दुख) है। गांधारी जैसी मां अपने मृत पुत्रों के लिए विलाप करती हैं; अर्जुन जैसे पुरुष मित्र और मार्गदर्शक को खो देने, या उर्जा और गति से युक्त अपने जीवन के गुजर जाने का शोक मनाते हैं। आम जन अपने शासकों, चाहे यह धृतराष्ट्र हों या फिर बाद पांडव हों, के त्याग के लिए अधिक औपचारिक रूप से शोक मनाते हैं; और निस्संदेह, वृष्णि जैसे कुलों के लिए भी, जहां एक दूसरे की हत्या करके पुरुषों का सफाया कर दिया गया। मैं चाहती हूं कि आप इस सर्वव्यापी पीड़ा (जो अक्सर अपराधबोध के रूप में नहीं, कदाचित पछतावे के रूप में है) के कई पहलुओं पर अपने विचार रखें। उदाहरण के लिए, पुरुष और स्त्री के दुख के बीच में कोई अंतर प्रतीत होता है।
डब्ल्यू.डी. : पुरुष उस समय के लिए दुखी हैं जब उन्होंने योद्धाओं की संहिता का उल्लंघन किया था। महिलाएं अपने पुत्रों, योद्धाओं की रक्षा करने में विफलता के लिए दुखी हैं। स्त्रियों के दुख का प्रतीक कुंती का वह गहरा पछतावा है कि उन्होंने अपने नवजात पुत्र कर्ण का त्याग कर दिया। पुरुषों के दुख का प्रतीक, जिसका उल्लेख अक्सर किया जाता है, इस बात के लिए उनकी शर्मींदगी है कि उन्होंने जिस प्रकार से किशोरवय अभिमन्यु से वादा किया था कि युद्ध में वह उसका समर्थन करेंगे, लेकिन वास्तव में उन्होंने दुश्मन की बहुत बड़ी तादाद के बीच उसे अकेला छोड़ दिया और दुश्मन ने अभिमन्यु का वध कर दिया।
जी.एच. : पाठ की प्रकृति : यह काफी बड़ा, लंबा-चौड़ा, यहां तक कि हद से ज्यादा विस्तारित है। संख्या हमेशा बहुत बड़ी होती है – चाहे वह कृष्ण की स्त्रियां हों या फिर प्रजा की वो संख्या जो धृतराष्ट्र का अभिवादन के लिए वन में जाती है। एक खंड के समाप्त होने के साथ जहां पहला खंड शुरू हुआ था, यह एक विशेषता के साथ मुड़ती है, जिसका आपने उल्लेख किया है। और फिर विषयांतर होता है कहानी के ढांचे में, या फिर संबंधों के स्पष्टीकरण में, या फिर नियमों में, या अपवादों में, जैसा कि कहते हैं कि किसी और कर्म के फल को भोगना। साथ ही साथ कई सारे ‘स्पष्टीकरणों’ और औचित्य में विरोधाभास भी शामिल है। तो, जैसा कि वास्तविक जीवन में होता है, क्या यह उस कहानी के लिए एक तर्क है जिसका कोई अंत नहीं है और इसे पूर्ण करने के प्रयास में इसको बार-बार कहा/सुनाया जाता है?
डब्ल्यू.डी. : मैं समझती हूं कि अत्यधिक, और अक्सर विरोधाभासी स्पष्टीकरण अंततः हमें इस भावना के साथ छोड़ देते हैं कि कोई भी इन रहस्यों के सभी उत्तर नहीं जानता है, कि विरोधाभासी स्पष्टीकरणों के बीच से चुनना असंभव है, कि हम में से प्रत्येक को इन बहुत सारे प्रबुद्ध विचारों, स्पष्टीकरणों में से उन विचारों और स्पष्टीकरणों को चुनना चाहिए जो हमें व्यक्तिगत रूप से ज्यादा बुद्धिमतापूर्ण लगते हैं।
जी.एच. : यह इस तरह का विस्तार लिया हुआ पाठ है, जिसमें सभी तरह के लोगों और समुदायों के लिए स्थान है। हालांकि, मैंने यह नोटिस किया कि आपने ‘वर्ग’ (क्लासेज) शब्द का इस्तेमाल किया है, न कि ‘जाति’ का। और इसमें मुझे ब्राह्मणों और क्षत्रियों, कुछ वैश्यों एवं शूद्रों के अलावा किसी और का स्मरण नहीं होता। शेष लोग कहां हैं, चाहे इस जीवन में हों या इस जीवन के बाद? दूसरे शब्दों में कहूं तो, पाठ में – सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर – हम जाति व्यवस्था में कैसे फिट होते हैं?
डब्ल्यू.डी. : महाभारत की रचना उस समय में हुई थी जब भारत में वास्तव में एक वर्ग व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी : वहां चार वर्ग अर्थात वर्ण हैं, जैसा कि आप उन्हें जानते हैं। लेकिन, वहां हजारों जातियों की जटिल व्यवस्था जैसी चीज नहीं है, जैसा कि भारत में बाद में पैदा होती है। वहां कुछ ‘अस्वच्छ’ जनजातियां, शिकारी और रथ चलाने का काम करने वाले वाले हैं : कर्ण यह गलत सोचते हैं कि वह रथ चलाने वालों की जाति में पैदा हुए, और एकलव्य को एक धनुर्धर के रूप में अयोग्य घोषित कर दिया गया क्योंकि वह शिकारियों की जाति में पैदा हुए थे। लेकिन जाति व्यवस्था समग्र रूप से मुख्य कहानी में कोई भूमिका नहीं निभाती है।
जी.एच. : पाठ एक काल्पनिक नोट को सामने रखता है, जब वह इस संभावना को सुझाता है कि वास्तव में परिणाम का भी एक अंत है – अर्थात, स्वर्ग और नरक से परे किसी स्थान पर जाना संभव है। यह न केवल अच्छे या बुरे कर्म के आधार पर पृथ्वी पर पुनर्जन्म को लेकर प्राप्त ज्ञान को उलटता प्रतीत होता है, बल्कि इसका तात्पर्य यह भी है कि स्वर्ग और नरक से परे वह स्थान अवर्णनीय है। क्या हमें इसे संभावना के खुलेपन के रूप में देखना चाहिए? या दांवों की एक बाड़बंदी के रूप में? या समय में अलग-अलग बिंदुओं पर मरणोपरांत जीवन के विभिन्न सिद्धांतों की परत के रूप में?
डब्ल्यू.डी. : महाभारत आत्म-चेतन रूप से पुरातन है। यह ग्रंथ (टेक्स्ट) एक ऐसे युद्ध की कल्पना करता है जो वास्तव में इसकी रचना से सदियों पहले लड़ा गया था। यह युद्ध के बाद के जीवन को लेकर एक ऐसे पुरातन विचार की कल्पना करता है जिसमें योद्धा मृत्यु के बाद स्वर्ग जाते हैं और देवताओं में शामिल हो जाते हैं और पापी (जिनमें पापी योद्धा भी शामिल हैं) कभी-कभी स्वर्ग जाने से पहले या बाद में नरक भी जाते हैं या फिर स्वर्ग जाने के बजाय नरक जाते हैं। यह सब महाभारत के अनेक शुरुआती खंडों में विकसित कर्म और पुनर्जन्म की व्यवस्था से भी पहले से है और इसका यदा-कदा बहुत सारे अवसरों पर संदर्भ भी दिया गया है। लेकिन यह व्यवस्था अंततः इस महान ग्रंथ के अंतिम खंडों में मृत्यु के बाद जीवन के अधिक पुरातन विचार की वापसी के जरिये अपना स्थान बनाती है – जिसमें किसी का कर्म पृथ्वी पर उसके पुनर्जन्म को निर्धारित नहीं करता, बल्कि यह निर्धारित करता है कि कोई कब तक नरक और स्वर्ग में कितनी अवधि तक रहेगा। इंद्र द्वारा शासित जटिल देव समूह और विशिष्ट रूप से वैदिक देवताओं के साथ-साथ पूरे पाठ्य (ग्रंथ) में ऐसे-ऐसे प्रकरण भी हैं जो ऐसे एकल, श्रेष्ठ देवता की कल्पना करते हैं जिसे अक्सर कृष्ण के रूप में पहचाना जाता है। और अंतिम पर्वों में भी एक ऐसे ऐसे ईश्वर को लेकर और समस्त ब्रह्मांड से परे एक दुनिया के संदर्भ में छोटे और गूढ़ उद्धरण पाए जाते हैं, जैसे कि पाठ पहले से ही एक ऐसे बहुत ही अलग धर्मशास्त्र की प्रतीक्षा कर रहा था जो कि महाभारत काल के बाद ही पूर्णतः विकसित होगा।
जी.एच. : ‘लेखक’ की प्रकृति : जटिल पात्रों से भरे मंच पर, इसमें व्यास मुझे बहुत ही आकर्षक उदाहरण लगे, जिसे मैं केवल बहुत-सी विशेषताओं से बना व्यक्तित्व कह सकती हूं। वह लेखक हैं, क्युरेटर हैं, विचारक हैं और अपनी लिखी कहानी में एक प्रमुख पात्र हैं। यह ग्रंथ उन्हें कभी नहीं छोड़ता, न ही वह इसे कभी छोड़ते हैं, जैसा कि हम जैसे सांसारिक लेखकों के साथ होता है कि जब हम लिख लेते हैं तो वह हमें छोड़ देता है। वह नाटककार, अभिनेता, मंच प्रबंधक और बहुत कुछ हैं। क्या हम उन्हें एक स्वीकृत व्यवस्था का भंजन करने वाले, एक आवश्यक भंजन करने वाले, के रूप में भी देख सकते हैं? मैं उनके मिश्रित किस्म के मूल के बारे में सोचती हूं; एक द्वीप पर उनका परित्याग; और एक बूढ़े और कुरुप एवं बदबूदार व्यक्ति जैसे कि वह हैं, और यह भी कि उन्हें कैसे राजपरिवार की वधुओं को गर्भवती करने के लिए बुलाया जाता है। एक लेखक का अर्थ क्या है, या क्या हो सकता है, इस बारे में एक समृद्ध ग्रंथ के रूप में व्यास को पढ़ना रोचक है। क्या यह सब अतिशयोक्ति पूर्ण है?
डब्ल्यू.डी. : अगर पिरांडेलो को उद्धृत किया जाए तो, व्यास वास्तव एक लेखक और लेखक की तलाश में एक चरित्र का दिलचस्प मेल हैं। उनके हस्तक्षेप सबसे महत्वपूर्ण रूप से इस महान ग्रंथ की शुरुआत में और अंत में होते हैं। शुरुआत में, वह युद्ध में दोनों ही शत्रु परिवारों (पांडु और धृतराष्ट्र) के साथ-साथ तीसरे पुत्र (विदुर), जो कि धर्मात्मा और सेवक, दोनों का ही रहस्यमयी मिश्रण है, के जन्मदाता हैं। लेकिन व्यास इन तीनों पुत्रों का महत्वपूर्ण दोषों के साथ सृजन करते हैं जो कि उन्हें शासन करने की दुखद अक्षमता की ओर ले जाता है, और इसलिए उत्तराधिकार का युद्ध लड़ा जाता है। और अंत में, वह योद्धाओं के शोक-संतप्त माता-पिता और पत्नियों को उनके मृत पुत्रों की एक शानदार मायावी झलक निर्मित करके उनको सांत्वना देते हैं, जो नदी में समाहित होने और मरणोपरांत जीवन में लौटने से पहले अपनी पत्नियों और परिवार के साथ खुशी से भरी एक रात गुजारने के लिए नदी में से उभरकर आते हैं; वह कुंती को कर्ण को त्यागने के उसके पाप से मुक्त करके सांत्वना देते हैं; वह सभी को यह समझाते हैं कि स्पष्टतया मृत योद्धा वास्तव में देवता हैं जो कुछ समय के लिए मनुष्य के रूप में अवतरित हुए और अब स्वर्ग में वापस जाकर खुश हैं। अतएव, वह वास्तव में एक भंजक होने के साथ-साथ एक सूत्रधार भी हैं, लेकिन मेरा मानना है कि उनकी शक्तियां इतनी असाधारण और वास्तव में इतनी अनेकार्थी हैं कि कोई भी मानव लेखक उन्हें रोल मॉडल के रूप में लेने का साहस नहीं कर सकता था।
जी.एच. : आखिर में, मन की शांति और मृत्यु के बाद जीवन के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए वास्तव में क्या निर्देश हैं? और नायक सांसारिक शत्रुओं के साथ संधि और स्वीकृति की स्थिति को किस तरह से प्राप्त करते हैं? इसके अलावा, मैं इस बात को अनदेखा नहीं कर सकी कि पृथ्वी की भांति यहां भी वे आंके जाते हैं ताकि एक जैसे तत्व/गुण एक साथ आ जाएं – वसु, वसु के पास जाते हैं, जो आग से जनित होते हैं वे अग्नि के पास जाते हैं, और इत्यादि। देवताओं में भी कहीं कोई ‘मिला-जुला’ स्थान या समुदाय नहीं है। क्या मैं बहुत अधिक शब्दशः हो रही हूं या फिर यह सांसारिक जीवन पर थोपी गई व्यवस्था का एक अपरिहार्य प्रतिबिंब है?
डब्ल्यू.डी. : अंतिम सीख जो इन योद्धाओं को मृत्यु के बाद मन की अंतिम शांति प्राप्त करने के लिए जरूर सीखनी चाहिए, वह है शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की शिक्षा। हालांकि, प्रत्येक मृत योद्धा को स्वर्ग में उसका अपना परिवार मिल जाता है, लेकिन ऐसे अनेक संदर्भ हैं जहां उन सभी लोगों के साथ शांति से रहने की आवश्यकता बताई गई है जो जीवन में उनके शत्रु थे, लेकिन अब वे उनके दुश्मन नहीं है क्योंकि स्वर्ग में शत्रुता की अवधारणा अर्थहीन है। पृथ्वी पर जीवन से स्वर्ग के जीवन में जो एक सबसे महत्वपूर्ण फर्क है, जैसा कि देवता स्वर्ग में आने वाले नए-नए मृत नायकों को समझाते हैं, कि स्वर्ग में कोई मन्यु नहीं है। मन्यु एक ऐसा शब्द है जिसे कि किसी और रूप में अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता, इस शब्द में साहस, गर्व, गर्म मिजाज, अभिजातीय अहंकार, आक्रामक अस्थिरता और मर्दानगी जैसी सभी अवधारणाएं समाहित हैं। सबसे विशेष बात यह है कि मन्यु का तात्पर्य है कि अपमान का बदला जरूर लिया जाना चाहिए। मृत योद्धा जो पहले एक विजन में देखे गए और फिर वे पुस्तक के अंत में स्वर्ग में मिलते हैं, उनमें कोई मन्यु शेष नहीं होता। स्वर्ग वह स्थान है जहां मन्यु नष्ट हो जाता है। व्यास जिन सुखी योद्धाओं को स्वर्ग से एक संक्षिप्त यात्रा के लिए धरती पर लाते हैं, वे सब अब अपना मन्यु त्याग चुके हैं। अपने जीवन के अंत में अपने पूर्व शत्रुओं के साथ अंततः पुनर्मेल के बाद युधिष्ठिर कहते हैं कि अब उनमें कोई मन्यु नहीं बचा। और अंत में जब केवल इंद्र, युधिष्ठिर से यह आग्रह करते हैं कि वह अपना मन्यु त्याग दें जिसके कारण वह अपने शत्रुओं के साथ स्वर्ग सांझा नहीं कर पा रहे हैं और केवल जब पूर्व शत्रु स्वर्ग में अपने मन्यु का त्याग कर देते हैं तभी वे अपनी अंतिम शांति को प्राप्त होते हैं। इस हद कि मन्यु ही मर्दानगी का सार है, तो ऐसा लगता है कि महाभारत के नायकों को अन्य सभी सांसारिक बंधनों के साथ जिस एक चीज को पूरी तरह त्यागना चाहिए वह है उनकी मर्दानगी।
पीछे मुड़ कर देखें तो विनाश को प्राप्त मानव संघर्ष के मूल में जो समस्या है वह है मन्यु, यहां तक कि दैव्य क्रोध (यहां तक कि कृष्ण भी अपने मन्यु के हाथों मजबूर हो जाते हैं जब वे अपने पुत्रों की हत्या देखते हैं और यह भूल जाते हैं कि उन्होंने इस रक्तरंजित अंतिम युद्ध में भाग नहीं लेने की कसम खाई है : वह किसी अन्य के मुकाबले सबसे ज्यादा लोगों को मारते हैं)। उन लोगों को जिन्होंने एक-दूसरे के पुत्रों और पिताओं तथा भाइयों की हत्या की है, उन्हें अपने मन्यु को, प्रतिशोध को त्यागने की आवश्यकता है ताकि वे स्वर्ग में एक साथ शांति से रह सकें। यह ग्रंथ सत्य और सुलह की समस्या, दंडात्मक हिंसा का अंत करने की समस्या जैसे प्रश्नों का उत्तर है, जो आज भी हमें पीड़ा पहुंचाते हैं।
कृष्ण सिंह द्वारा हिंदी में अनुवादित। अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ें।
साभार: आईसीएफ
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