पश्चिम दारफ़ुर में नरसंहार: सूडान की मिलिटरी जुंटा का खनिज समृद्ध भूमि को जनहीन करने का अभियान
सोमवार, 2 मई को संयुक्त राष्ट्र मानवीय मामलों के समन्वय कार्यालय (OCHA) के सामने आये अपडेट के मुताबिक़, 22 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच सूडान के पश्चिमी दारफ़ुर सूबे में हुए नरसंहारों के चलते लगभग 100,000 लोग विस्थापित हुए हैं।
राज्य की राजधानी अल जिनीना में चार लोगों के मारे जाने के बाद 30 अप्रैल को सूडानी डॉक्टरों की केंद्रीय समिति (CCSD) ने कम से कम 200 मौतों की पुष्टि की थी। केरेनिक शहर में लगभग 80 किलोमीटर सुदूर क्षेत्र में हिंसा शुरू होने के बाद वह हिंसा कई छोटे-छोटे गांवों से घिरी इस राजधानी में फैल गयी थी। इस हिंसा में मरने वालों में 24 बच्चे और 23 बुज़ुर्ग हैं।
सिर में गोली लगने से 95 लोगों की मौत हो गयी थी। अन्य 51 लोगों को सीने और 19 को पेट में गोली मारी गयी थी। पांच लोगों की जलकर मौत हो गयी थी। जो लोग बच गये हैं, उन्हें भोजन, साफ़ पानी और दवा की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। ज़्यादातर पीड़ित अंदरूनी तौर पर विस्थापित (IDP) वे लोग थे, जो गृहयुद्ध के दौरान अपने घरों से निकल जाने के बाद शिविरों में रह रहे थे।
पिछले साल 25 अक्टूबर को सैन्य तख़्तापलट के बाद से उस घटना के गवाह रहे लोग और देश भर में विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई कर रहेनागरिक समाज संगठनों और प्रतिरोध समितियों (RC) ने उस नरसंहार के लिए कुख्यात रैपिड सपोर्ट फोर्स (RSF) को दोषी ठहराया है। पश्चिमी दारफ़ुर के गवर्नर ख़ामिस अब्दुल्ला अबकार ने भी इस हिंसा में आरएसएफ़ के शामिल होने की पुष्टि की है।आरएसएफ़ का नेतृत्व सेना के जुंटा के डिप्टी कमांडर, जनरल मोहम्मद हमदान डागलो, उर्फ़ हेमेटी कर रहा है।
"सैन्य जुंटा इस नरसंहार में पूरी तरह शामिल"
सूडानी सरकार, जो वास्तव में तख़्तापलट में सत्ता पर काबिज़ होने वाला सैन्य जुंटा है, उसके बारे में मोहम्मद (बदला हुआ नाम) ने बताया कि "इस नरसंहार में वह पूरी तरह शामिल है।" कथित तौर पर आरएसएफ़ के ही जवानों ने मोहम्मद के चाचा और दो चचेरे भाई को एल जिनीना के बाज़ार में 29 अप्रैल को मार दिया था।
इस शहर के पड़ोसी शहर अल शती के प्रतिरोध समिति की ओर से बोलते हुए उन्होंने पीपुल्स डिस्पैच को बताया कि सैन्य जुंटा "अपनी पूरी सैन्य शक्ति और योजना का इस्तेमाल" इसलिए कर रहा है, ताकि आरएसएफ़ को सोने, हीरा, यूरेनियम और तांबा से भरे हुए खनिज से समृद्ध इस ज़मीन पर एक कथित जनशून्य अभियान चलाने में मदद मिल सके।
2013 में जिस जंजावीद नागरिक सेना से आरएसएफ़ का गठन किया गया था, वह भी इन हमलों में शामिल है। ख़ानाबदोश चरवाहों और स्थायी रूप से रह रहे किसानों और चरवाहों के बीच ज़मीन और पानी को लेकर चल रहे संघर्ष का इस्तेमाल करते हुए सूडानी स्टेट ने 2000 के दशक में दारफ़ुर में हुए गृह युद्ध के दौरान ही यहां के ख़ानाबदोशों से इन लड़ाकों को तैयार किया था।उल्लेखनीय है कि 1980 के दशक के मध्य से ज़मीन के बढ़ते मरुस्थलीकरण के बाद उस संघर्ष में तेज़ी आ गयी है।
वे दारफ़ुर में स्थायी रूप से रह रहे समुदायों के बीच उभरे विद्रोही समूहों को दबाने के लिहाज़ से सशस्त्र और प्रशिक्षित किये गये थे। पूर्व तानाशाह उमर अल-बशीर के शासन में स्थायी रूप से रह रहे ये समुदाय राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर थे। वे इस क्षेत्र की खनिज संपदा को भुनाने के रास्ते में भी एक रुकावट रहे हैं।
ख़ूनी सोना
नरसंहार, बलात्कार, यातना और पूरे गांवों को जलाने के उस अभियान के ज़रिये उन्हें लाखों की संख्या में विस्थापित करने के बाद जंजावीद ने सरकार की मिलीभगत से इस दशक के आख़िर तक इस क्षेत्र में सोने के इन खदानों के बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था। अगले चार सालों, यानी 2010 और 2014 के बीच युद्धग्रस्त दारफ़ुर से तक़रीबन 48,000 किलोग्राम सोने का अवैध रूप से निर्यात कर दिया गया था, जिसकी क़ीमत 2 मिलियन अमरीकी डॉलर से ज़्यादा आंकी गयी है।
हेमेती की कमान के तहत साल 2013 में इन जंजावीद मिलिशिया के औपचारिक रूप से आरएसएफ़ के रूप में संगठित होने के बाद उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी जंजावीद नेताओं को जल्दी ही हरा दिया, और आरएसएफ़ ने जेबेल आमेर के खदानों पर कब्ज़ा करने के बाद 2017 तक इस क्षेत्र के तमाम सोने के खदानों को अपने नियंत्रण में ले लिया था।
ग्लोबल विटनेस की एक पड़ताल के मुताबिक़, "दारफ़ुर में चल रही इकलौती बड़ी रियायत चालू" गोल्ड-ट्रेडिंग कंपनी अल गुनाडे के नियंत्रण में है, जिसका स्वामित्व हेमेटी के भाई और उसके भाई के दो बेटों के पास है। हेमेती ख़ुद भी इस कंपनी के निदेशक मंडल में हैं।
जब तक साल 2018 में शुरू हुई लोकतंत्र समर्थक दिसंबर क्रांति से अप्रैल 2019 में अल-बशीर को सत्ता से बेदखल नहीं कर दिया गया, तब तक आरएसएफ़ इतना अमीर हो चुका था कि उसने सूडान के केंद्रीय बैंक की वित्तीय हालत को स्थिरता के लिए 1 बिलियन अमरीकी डॉलर से ज़्यादा का दान दिया था।
उस क्रांति ने तानाशाह को उखाड़ फेंका था, इसके बावजूद 3 जून, 2019 को सूडान की राजधानी ख़ार्तूम में सेना मुख्यालय के बाहर धरना प्रदर्शन को ख़त्म करने वाले हेमेती सहित बशीर के जनरलों के ख़ास मंडली ने आरएसएफ़ को तैनात करके सत्ता को बनाये रख पाने में कामयाबी हासिल कर ली थी।
आरएसएफ़ के एक कप्तान ने बीबीसी को बताया कि प्रदर्शन से ख़ाली करने का फ़रमान अब्दुल रहीम डागलो ने जारी किया था, जो कि हेमेती के उस भाई का भी नाम है, जो अल गुनादे का मालिक है। इसके बदले में जो कुछ हुआ, वह लोकतंत्र समर्थक 100 से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों का नरसंहार था, जिसके बाद राजधानी के निवासियों के ख़िलाफ़ एक हफ़्ते का आतंक मचता रहा। आरएसएफ़ ने शहर पर नियंत्रण कर लिया था। यह आतंक सड़कों पर क़दम रखने वाले निवासियों को पीटने, प्रताड़ित करने और मारने, और वास्तव में यहां के लोगों को एक घर में नज़रबंद कर देने रूप में था।
इसके बाद आरएसएफ़ को 2019 में गठित संयुक्त नागरिक-सैन्य संक्रमणकालीन सरकार के तहत सरकार के सुरक्षा बलों में तब शामिल कर लिया गया था, जब सेना ने मध्यमार्गी और दक्षिणपंथी पार्टियों को राज्य की सत्ता (पिछले अक्टूबर में हुए तख़्तापलट के बाद फिर से काबिज) में हिस्सेदारी दे दी गयी थी।
उस जंजावीद मिलिशिया को न तो भंग किया गया है और न ही निरस्त्र किया गया है,जो कि आरएसएफ़ के अधीन नहीं थे। ये मिलिशिया आरएसएफ़ के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाये रखते हैं और हमलों के दौरान इसे आरएसएफ़ का समर्थन हासिल होता रहता है। मोहम्मद की दलील है कि आरएसएफ़ "जंजावीद मिलिशिया का एक स्वाभाविक नतीजा" है और वे "अटूट रूप से जुड़े हुए हैं।"
माना जाता है कि इस शहर के दो ख़ानाबदोश चरवाहों के मृत पाये जाने के बाद बदला लेने की भावना से हत्याओं का मौजूदा चक्र 22 अप्रैल को इन्हीं मिलिशिया के केरेनिक पर हमले के साथ शुरू हुआ था। इस शहर पर किसानों का वर्चस्व है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़, इस शहर के 487,000 निवासियों में से 30%, या 146,700 शिविरों में रहने वाले युद्ध से निर्वासित लोग हैं।
इस हमले में जंजावीद मिलिशिया ने उम ड्वेन कैंप को दूसरी बार जला दिया था। दारफ़ुर बार एसोसिएशन ने 23 अप्रैल को कहा था कि कम से कम 20,000 लोग इसले विस्थापित हुये (कई मामलों तो बार-बार विस्थापन वाले हैं), क्योंकि उनके घर जला दिये गये थे।
पश्चिम दारफ़ुर के गवर्नर ख़ामिस अब्दुल्ला अबकार ने बताया कि इस हमले के बाद उन्होंने ख़ास तौर पर एसएएफ़, 12 अन्य वाहनों को भेजकर, प्रत्येक में 10 लड़ाकू विमानों के साथ सुरक्षा बलों के 25 वाहनों को बख़्तरबंद बना दिया। लेकिन, वह कहते हैं कि एसएएफ़ को इसलिए पीछे हटना पड़ा, क्योंकि वे 24 अप्रैल को हुए हमले के बाद बड़े पैमाने पर मारे गये थे।
विस्थापित और शरणार्थियों के सामान्य समन्वय के प्रवक्ता एडम रीगल ने कहा कि महज़ 15 सुरक्षा वाहन ही थे, जो कि हमला शुरू होने पर पीछे हट गये थे।
क्या सेना आरएसएफ़ के साथ सहयोग कर रही है?
यह देखते हुए कि इस क्षेत्र में जंजावीद मिलिशिया और आरएसएफ़ की ओर से महीने दर महीने नियमित रूप से बड़े और एकजुट हमले देखे जा रहे थे, सैकड़ों लोग मारे गये थे और लाखों लोग विस्थापित हुए थे,ऐसे में 15 वाहनों को तैनात किया जाना तो एक तरह की बाध्यता थी।
लोकतंत्र समर्थक समूह टीएएम(TAM) की पश्चिमी दारफ़ुर समिति के मुताबिक़, भारी हथियारों से लैस हमलावर आरएसएफ़ की वर्दी पहने हुए कई मोटरबाइकों और कारों के साथ 300 लैंडक्रूजरों पर हर तरफ से टूट पड़े। अल जिनीना में प्रतिरोध समिति समन्वय ने बताया कि इस हमले में इस्तेमाल किये गये चार पहिया ड्राइव और हथियार सैन्य श्रेणी के हैं और आम नागरिक इन्हें ख़रीद ही नहीं सकते।
मोहम्मद का मानना है कि एसएएफ़ भारी हमले का सामना करने को लेकर महज़ पीछे हटने से कहीं ज़्यादा का दोषी है। उन्होंने एसएएफ़ पर आरएसएफ़ के साथ सक्रिय रूप से सहयोग करने और पीड़ितों को अपने जाल में फ़ंसाने का आरोप लगाया।
उन्होंने इन आरोपों को दोहराते हुए कहा कि जो लोग शहर से भाग गये थे और पहाड़ों पर चले गये थे, जो अपेक्षाकृत छोटे हथियारों से लैस थे, जो इस इलाक़े में फैले हुए थे, उन्हें इस गारंटी के साथ अपने शहर में वापस लौट जाने के लिए इस आश्वसन के साथ तैयार कर लिया गया था कि एसएएफ़ उनकी हिफ़ाज़ करेगा। उन्हें छल से भरोसे में लेने के बाद वे आश्वस्त हो गये थे कि उस समय केरेनिक के ऊपर कम ऊंचाई पर उड़ने वाले एसएएफ़ विमान को इसलिए लाया गया है ताकि जंजावीद मिलिशिया जब हमला करे, तो उसपर बमबारी किया जा सके।
जैसे ही हमला शुरू हुआ था, वह विमान असहाय रूप से फ़ंसे और घिरे लोगों की नज़रों से ग़ायब हो गया था, जबकि एसएएफ़ के वाहन पीछे हटना शुरू हो गये थे। टीएएम की पश्चिमी दारफ़ुर समिति ने एक बयान में कहा कि "उस विमान को नागरिकों की हिफ़ाज़त के मक़सद से नहीं भेजा गया था, बल्कि इस क्षेत्र का पता लगाने और आरएसएफ़ को नागरिक-विरोधी ख़ुफ़िया जानकारी उपलब्ध कराना के लिए भेजा गया था।" शुरुआती रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि इस हमले में 80,000 परिवार विस्थापित हुए थे और 168 लोग मारे गये थे।
जहां ज़्यादातर मीडिया ने इस नरसंहार को "आदिवासी हिंसा" के रूप में दिखाया था, वहीं इस पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि ज़्यादातर किसान और ख़ानाबदोश नस्लीय या जातीय रूप से अलग समूह नहीं हैं। इसके बावजूद, बड़े पैमाने पर अरबी भाषी ख़ानाबदोशों को अरब जनजातियों के रूप में ही चित्रित किया जाता है और स्थानीय भाषा बोलने वाले स्थायी रूप से रह रहे किसानों और चरवाहों को ग़ैर-अरब, अफ़्रीकी जनजाति माना जाता है। इस तरह, दारफ़ुर में नरसंहारों को "आदिवासी संघर्ष" के रूप में दिखाया गया है।
केरेनिक पर हलमे को लेकर भारी हथियारों से लैस और वर्दीधारी आरएसएफ़ जवानों को ले जा रहे लैंड-क्रूजर पिक-अप ट्रकों की लम्बी-लम्बी क़तारों वाला एक वीडियो साझा करते हुए @SudanZUprise के ट्विटर हैंडल ने बताया कि "किसी भी "जनजाति" के पास इतनी बड़ी संख्या में लोग नहीं हैं, उनके पास इतने वाहन या तोपखाने भी नहीं हैं। इस लिहाज़ से इसे आदिवास संघर्ष दिखाना साफ़ तौर पर ग़लत है।”
Footage showing RSF invasion of Kreinik, West #Darfur, amidst reports of deadly clashes.
No “tribe” has this amount of manpower, vehicles or artillery. Any reference to tribal clashes is categorically false.
Death toll unknown speculated to be b/w 160 and 250. https://t.co/wULt5xDHWe
— SudanUprising (@SudanzUprising) April 25, 2022
आईडीपी और शरणार्थी शिविर के प्रवक्ता रीगल ने बताया, "सरकार इन मिलिशिया के साथ सहयोग करती है, उन्हें हथियारों और रसद की आपूर्ति करती है, और किसी भी तरह के अभियोग लगाये जाने से बचाने की गारंटी देती है।" उनका कहना है कि "दारफ़ुर में हो रहे युद्ध अपराधों और मानवता के ख़िलाफ़ अंजाम दिये जा रहे इन अपराधों का असली मक़सद उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करना है। अब आख़िरी क़दम आईडीपी शिविरों में मौजूद गवाहों से छुटकारा पाना है, ताकि इन नये बसने वालों के दावों का विरोध किसी भी तरह से न हो सके।” आरोप लगाये जा रहे हैं कि सरकार जिन नये बसने वाले लोगों को यहां ला रही है, उनमें अरबी भाषी "जनजाति" शामिल हैं, जो कि अक्सर पड़ोसी देशों के लड़ाके होते हैं।
पश्चिम दारफ़ुर की राजधानी में फैलती हिंसा
जहां केरेनिक में हुई तबाही के फुटेज में जलते हुए घरों, बाज़ारों और शिविरों से निकलते धुएं के घने काले रंग दिखायी दे रहे हैं, वहीं सशस्त्र आरएसएफ़ के जवान सड़कों पर घूमते दिख रहे हैं। नगर निगम की इमारतों और एक पुलिस स्टेशन को भी जला दिया गया था। कथित तौर पर केरेनिक अस्पताल पर हुए हमले में कुछ रोगियों के साथ चिकित्साकर्मियों की भी मौत हो गयी थी। इसके बाद से वह अस्पताल बंद पड़ा है।
इस हमले में घायल हुए कई पीड़ितों को 80 किलोमीटर दूर अल जिनीना के अस्पताल ले जाया गया था। अल जिनीना प्रतिरोध समितियों के समन्वय ने बताया कि उसी शाम बाद में इस शहर के कुछ हिस्सों में भारी गोलीबारी शुरू हो गयी थी। यहां के 646,000 निवासियों में से 126,700 अंदरुनी रूप से विस्थापित लोग हैं। आरएसएफ उन विद्रोही बलों से भिड़ गया, जिन्होंने वापस लड़ाई लड़ी,ऐसे में रुक-रुक कर की जाने वाली गोलीबारी विस्फ़ोटों और भारी गोलाबारी में बदल गयी, तो फिर यहां के इस अस्पताल को भी बंद कर देना पड़ा और 25 अप्रैल को सभी मरीज़ों को बाहर निकाल लिया गया।
दारफ़ुर में फिर से फैल रही हिंसा में शामिल होने और उसके लिए ज़िम्मेदार होने को लेकर सैन्य जुंटा की निंदा करते हुए 26 अप्रैल को देश भर में मौन विरोध प्रदर्शन किये गये। उसी दिन बाद में इस इलाक़े को नियंत्रण में लाने के लिए बड़ी संख्या में संयुक्त सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया गया था। इनमें एसएएफ़ के साथ आरएसएफ़ भी शामिल है। हालांकि, जुबा शांति समझौते के बाद सेना से हाथ मिलाने वाले विद्रोही समूहों को भी इस बल में शामिल किया जाना था, लेकिन इसे अभी तक अमल में नहीं लाया गया है।
हालांकि, तैनाती के बाद हिंसा की तीव्रता और हमलों के पैमाने में कमी ज़रूर आयी है, लेकिन अल जिनीना में हत्यायें कई दिनों तक, कम से कम 30 अप्रैल तक जारी रहीं। सीसीएसडी ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि 22 अप्रैल से लेकर 30 अप्रैल तक कम से कम कुल मिलाकर 200 लोगों की मौतें हुई थीं। सीसीएसडी ने कहा, "शल्य चिकित्सा से जुड़ी इमरजेंसी का काम इस समय भी आधी क्षमता के साथ चल रहा है", जबकि महिलाओं और प्रसव को लेकर चलने वाली आपातकालीन सेवायें और आंतरिक चिकित्सा विभाग "काम नहीं कर रहे हैं"। सीसीएसडी ने "अस्पताल में काम पर पूरी तरह से लौटने के लिए ठोस प्रयास" करने का आह्वान किया। उसी दिन पड़ोसी उत्तरी दारफ़ुर सूबे के अल-फ़शर से सशस्त्र मिलिशिया की ओर से हिंसा और लूटपाट की ख़बरें भी आयी थीं।
जुबा शांति समझौते के बाद से लाखों लोग विस्थापित
दारफ़ुर के इस इलाक़े में कम से कम 300,000 लोग मारे गये हैं और 20.5 लाख से ज़्यादा लोग उस गृहयुद्ध के दौरान विस्थापित हुए हैं, जो कि 2000 के दशक में चरम पर था। हालांकि, ज़्यादतर विद्रोही समूहों और सेना के बीच अक्टूबर 2020 में जुबा शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये गये थे, लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह महज़ सत्ता में भागीदारी वाला एक समझौता था। ज़मीन और पानी, आईडीपी की उन ज़मीनों पर वापसी, जहां से वे विस्थापित हुए थे, और जंजावीद के निरस्त्रीकरण जैसे सवालों को हल किये बिना इस समझौते से इस अशांत क्षेत्र में कोई शांति नहीं आने वाली है।
इस समझौते के एक हिस्से के रूप में ही सत्ता में हिस्सेदारी की पेशकश करने वाले विद्रोही समूहों ने एक साल बाद अक्टूबर 2021 में सैन्य तख़्तापलट का समर्थन किया था। पिछले साल दारफ़ुर में 430,000 लोगों का एक और विस्थापन हुआ था, इसके बाद तो दसियों हज़ार लोग विस्थापित हुए थे, जिनमें 2022 के शुरुआती महीनों में अल जिनीना और केरेनिक के विस्थापन भी शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़, पश्चिमी दारफ़ुर में हाल ही में हुई हिंसा में कुछ विस्थापितों ने अपने घरों में लौटना शुरू कर दिया है, जहां तहां रह रहे इन विस्थापितों की संख्या 85,000 से 115,000 के बीच है।
ओसीएचए ने 2 मई को कहा था, “इन परिवारों के हाथों से उनके खाद्य भंडार और आय के स्रोत (खेतों, घरेलू काम या बाज़ार में काम करने से मिलने वाली श्रम मज़दूरी) निकल गये हैं। ज्वार, चीनी, बाजरा, और तेल जैसी बुनियादी वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ गयी हैं, और लोगों के पास न तो नक़द या ख़र्च करने के लिए कोई आय है। अंदरूनी रूप से विस्थापित कई लोगों ने पिछले पांच दिनों से कच्चे आम और ज्वार के अलावा कुछ नहीं खाया है, क्योंकि उनके सभी खाद्य भंडार लूट लिये गये हैं या फिर जला दिये गये हैं।" पानी के कंटेनर उपलब्ध नहीं होने के कारण "लगभग 90 फ़ीसद अंदरूनी रूप से विस्थापित ये लोग असुरक्षित स्रोतों से ही पानी पी रहे हैं।"
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