क़र्ज़ लेकर कांवड़ यात्रा में दलितों का शामिल होना कैसा सामाजिक बदलाव?
सावन का महीना है और उत्तर भारत के अलग-अलग हिस्सों में कांवड़ यात्राएं चल रही हैं। सड़क के किनारे और गलियों में कांवड़ लेकर चलते भगवाधारी कांवड़िए कहीं भी नजर आ जाएंगे। कांवड़ यात्रा पूरे शबाब पर है। कोरोना महामारी के कारण 2 साल कांवड़ यात्रा पर काफी प्रभाव पड़ा था। मगर इस बार कांवड़ यात्रा में करोड़ों की संख्या में कांवड़ियों के आने का अनुमान लगाया जा रहा हैं।
सामाजिक उत्सव का रूप ले चुके इस यात्रा पर कई गाने और वीडियो बन रहे हैं। कांवड़ियों के गुस्से और उत्पात को लेकर भी अक्सर स्थानीय अखबारों में हेडलाइन बनती हैं। हाल में ही उत्तराखंड के हरिद्वार में कांवड़ यात्रा के दौरान गाड़ी को आगे निकालने का विवाद इतना गहराया कि एक कांवड़िए की हत्या कर दी गई। दरअसल, वह कांवड़िया भारतीय सेना के जाट रेजीमेंट का जवान था।
इस सबके अलावा कावड़ यात्रा में कोई तिरंगा लेकर चल रहा है तो कोई बाबा साहब अंबेडकर के फोटो को लेकर। मूल रूप से कांवड़ यात्रा में धर्म, समाज, संस्कृति और राजनीति सब घुल-मिल गए हैं। कई स्वतंत्र और बहुजन पत्रकारों ने कांवरियों की जाति-वर्ग को पता करना चाहा तो पता चला कि इसमें ज्यादातर कांवड़ यात्री छोटे किसान, खेत मजदूर, बेरोजगार और अर्ध बेरोजगार युवक हैं।
साथ ही कांवड़ यात्रा में सभी जाति के लोग पुरजोर तरीके से भाग ले रहे हैं। जितने सवर्ण है उतने दलित भी। हालांकि इसका कोई आंकड़ा या प्रमाण नहीं हैं। दलितों का भारी संख्या में कांवड़ यात्रा में शामिल होना एक महत्वपूर्ण सामाजिक परिघटना है लेकिन आखिर किन वजहों से ऐसा हो रहा है? आइए जानने की कोशिश करते हैं।
आख़िर क़र्ज़ लेकर कावड़ यात्रा में जाने की ज़रूरत क्यों पड़ रही?
"मैं दिल्ली में रहकर कमाता हूं। घर से पत्नी का फोन आया कि इस बार हमको भी बाबाधाम जाना है। टोला की 30-35 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं बाबाधाम यानी देवघर जाती है। मजदूर आदमी कहां से ही पैसा लाए तो कर्ज लेकर ₹6000 पत्नी को भेजा हूं। दिनों-दिन टोला की महिलाओं की संख्या ज्यादा ही हो रही है, जो देवघर प्रत्येक साल जा रही है। साथ में कुछ पुरुष भी जाते हैं। " सुपौल जिला के कटैया पंचायत के सरयू राय फोन पर बताते है।
बुधनी
सरयू राय से बात करने के बाद उनकी पत्नी बुधनी से बात किया। वह सावन के शुरुआत में ही देवघर गईं थीं, जो 6 दिनों के बाद वापस गांव लौट गईं। बुधनी बताती हैं कि, "जब मालिक के यहां काम करने जाती हूं तो देखती हूं मालकिन बहुत पूजा करती हैं। बस यही सब देखकर धर्म के प्रति आस्था और मजबूत होता है। दूसरा बात गांव की महिलाएं शुरुआत में नहीं जाते थी। अब सबके पति बाहर कमाते हैं तो अब..." मालकिन पूजा घर घुसने देती है? इस सवाल पर बुधनी हंसने लगती हैं। सरयू राय और बुधनी मुसहर समुदाय से आते हैं।
भागलपुर जिला के भ्रमरपुर गांव के कल्याणेश्वर झा (55 वर्ष) बताते है, "गांव में तथाकथित बड़ी जातियों के तुलना में छोटी जाति डीजे करके आस-पड़ोस के मंदिरों तक जाते हैं। हम लोग पहले यह सब नहीं देखते थें। पहले गांव से दो ही तीन ग्रुप देवघर जाता था। अब ग्रुप ज्यादा और बड़े हो रहे हैं। स्कूटी, स्कॉर्पियो से लेकर बस तक चल रहे हैं। इस सब की संख्या तब से बढ़ी है। जब से वह लोग दिल्ली और पंजाब जाकर कमाने लगें।"
आज़ादी के 75 साल के बाद भी रोटी नहीं धर्म का महोत्सव चल रहा है
"अब लगभग बिहार के हर गांव में दो जगह मेला लगता है। एक बड़ी जात वाला लगाता है दूसरा छोटी जात वाला। सामाजिक परिवर्तन के नाम पर बस इतना हुआ हैं कि कई जगह समुदाय पुजारी अपने जाति से रखता है ब्राह्मण से नहीं। फिर भी सवाल जस का तस बना हुआ हैं कि आखिर वह कौम जो रोटी के लिए लड़ रही थी वह कावड़ यात्रा और धर्म के लिए क्यों लड़ रही है? अंबेडकर के फोटो को साथ लेकर कांवड़ यात्रा में शामिल होने वाले कौन लोग हैं? मतलब आजादी के 75 साल के बाद भी रोटी नहीं धर्म का महोत्सव चल रहा है।" यह कहना है कि जेएनयू के पूर्व छात्र और कोसी क्षेत्र के कम्युनिस्ट पार्टी के नेता नंद देव यादव का।
कांवड़ यात्रा मे अधिकांश युवा, निम्न जाति और ठेला- खोमचा में काम करने वाले कामगार ही ध्वजा वाहक हैं
बिहार के दलित चिंतक, अध्यापक और समाजसेवी बालक राम पासवान बताते है, "दंगों और चुनाव के अलावा ये ही वे चंद मौक़े होते हैं जब मध्यम और निचली करार दी गई जातियों के लोगों को हिंदू होने की फ़ीलिंग आती है। बिहार का सबसे मशहूर दंगा भागलपुर दंगा में कौन जाति शामिल था पता कीजिए। जहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण तकनीकी विकास को तवज्जो देनी चाहिए थी। वहां ईश्वरीय विधान चमत्कार अवतार कर्मकांड को प्राथमिकता दी गयी। परिणामस्वरूप जनसाधारण समझ रहा है कि यह कांवड़ रास्ता उनकी भलाई का है।"
बालक राम पासवान आगे बताते हैं कि "कांवड़ यात्रा में भक्तों का एक बड़ा हुजूम भांग-गांजे का सेवन करता हैं। कुछ तो इसे भोले का प्रसाद और पता नहीं क्या क्या बुलाते हैं। मैं समझता हूं कि जिस आहत भावना की चुनौती में हिन्दू फंसा हुआ है उससे उसको हिन्दू धर्मग्रंथों का अध्ययन ही निकाल सकता है।"
"सिर्फ सावन में नहीं बल्कि रामनवमी और दशहरा में भी हम लोग यात्रा और काफिला निकालते हैं गांव में"
बिहार के सुपौल जिला का लाउढ पंचायत में सिर्फ दो घर ब्राह्मणों के हैं। बाकी यादव, कुर्मी, सोनार, पासवान और डोम जाति के लोग रहते हैं। 2007 या 2009 तक की बात करें तो यह गांव आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से बहुत पिछड़ा हुआ था। अधिकांश लोग गांव या आस पड़ोस के गांव के जमींदारों के यहां काम करके रोजी-रोटी चलाते थे। आजकल यानी सावन और भादो महीने में इस गांव से लगभग प्रत्येक सप्ताह कांवड़ यात्रा निकलती ही है। साथ ही गांव से लगभग 9 किलोमीटर दूर कपिलेश्वर बाबा का मंदिर है, जहां तक डीजे लेकर यहां के सोनार और पासवान जाति के लड़के काफिला निकाल कर पूजा करते हैं।
गांव में डीजे के साथ काफिला निकालने में आगे रहने वाले राहुल सोनी बताते हैं कि, "गांव के अधिकांश युवा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। सिर्फ सावन में नहीं बल्कि रामनवमी और दशहरा में भी हम लोग यात्रा और काफिला निकालते हैं गांव में। अधिकांश युवा 15-17 साल की उम्र में ही बाहर कमाने चले जाता है इसलिए हम लोग चंदा इकट्ठा भी लड़कों से मिलकर करते हैं। गांव के बुजुर्गों का हस्तक्षेप इसमें नहीं रहता है।"
वहीं गांव का 25 साल के अंकित पटना के किसी कोचिंग सेंटर में बाउंसर का काम करते हैं। वे बताते हैं कि, "पहले स्थिति गांव की कुछ और थी.. हम युवा लोग बदल रहे हैं। पहले की तुलना में गांव विकास भी कर रहा है। नई जनरेशन के बच्चे पढ़ भी रहे हैं। इस सब के साथ गांव में टूर्नामेंट का आयोजन और धार्मिक अवसर पर काफिला के साथ मंदिर जाते हैं। आप यह समझ लो गांव में परिवर्तन का दौर चल रहा है।"
शंकर पासवान
वहीं गांव के 48 वर्षीय शंकर पासवान बताते हैं कि, "पहले गांव से 20 से 25 आदमी कांवड़ यात्रा में जाते थे। अब तो लगभग 200 आदमी जाते होंगे। बरका जात का नकल करना कौन नहीं चाहता हैं। नए लड़के कमा भी रहे हैं। इसलिए अपनी मनमर्जी का चलाते हैं। इस सब में घाटा गरीब लोगों का होता है जो आस-पड़ोस का नकल करते हुए कर्ज लेकर भी कांवड़ यात्रा में जाता हैं।"
उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रा में मरने वालों की बाक़ायदा जाति बताई है
22 जुलाई 2022 के दिन उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक अनियंत्रित डंपर ने कांवड़ियों को रौंदा डाला। दुर्घटना में 6 कांवड़ियों की मौत हो गई वहीं दो गंभीर रूप से घायल हो गए। कांवड़ यात्रियों का जत्था हरिद्वार से गंगाजल लेकर मध्य प्रदेश के ग्वालियर जा रहा था। गौरतलब हैं कि उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के सभी गंगा घाटों से कांवड़िया गंगा नदी का पवित्र गंगाजल लेकर अपने-अपने स्थानों के शिवालयों पर जाते हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार की और से मरने वाले कांवड़ियों की लिस्ट जारी की गई। जिसमें उनकी जाति भी बताई गई है। इंडिया टुडे के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने ट्वीट में लिखा कि, "मरने के बाद भी जो नहीं जाती वह है जाति। उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ यात्रा में मरने वालों की बाक़ायदा जाति बताई है।"
मध्यप्रदेश में बहुजन छात्र राजनीति के मुखर समाजसेवी और ग्राम प्रधान सतीश सोलंकी फोन पर बताते हैं कि, "मध्य प्रदेश में दलित जाति सबसे ज्यादा धार्मिक प्रभाव की और अग्रसर है। यहां पर गाड़ी में अपने -अपने जाति का नाम लिखा कर कांवड़ यात्रा निकाला जाता है। अब तो सरकार सैनिकों से उनकी जाति पूछ ही रही है।"
आधुनिक श्रवण कुमार के नाम पर मज़ाक
कांवड़ यात्रा शुरू होते ही सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल शुरू होना हो जाता है। जिसमें एक वीडियो ऐसा आता हैं कि 75 किलाेग्राम के वजन के पिता और 65 किलाेग्राम की मां काे कांवड़ में बिठाकर उनका आधुनिक बेटा जल चढ़ाने निकल जाता है। इस वीडियो पर लोगों की वाहवाही और धर्म के नाम पर उनकी प्रशंसा शुरू हो जाती है।
पटना विश्वविद्यालय के छात्र नेता अमित चौधरी बताते हैं कि, "आज के वैज्ञानिक युग मे जब यातायात के इतने साधन उपलब्ध होने के बावजूद भी मां बाप को कांवड़ में बैठाकर भोले बाबा के दर्शन कराने ले जाना कहां तक सही है? क्या इससे भोले बाबा ज्यादा प्रसन्न होते हैं?"
मध्यप्रदेश में बहुजन छात्र राजनीति के मुखर समाजसेवी और ग्राम प्रधान सतीश सोलंकी कहते हैं, "हाल में ही मध्य प्रदेश का एक वायरल वीडियो देखिए दोनों बुजुर्ग जिस स्थिति में खटोले में बैठे हैं, उस स्थिति में कितनी देर तक बैठ कर जवान लोग यात्रा कर सकते हैं? इस तरह से देश की एक बड़ी युवा पीढ़ी को पाखंड और अंधकार में धकेला जा रहा है। यदि इन के पास पैसे नहीं है तो श्रम करे मेहनत करे पसीना बहाए पैसा कमाए और कमाएं हुए पैसे से मां बाप को दर्शन करवाए। मेरे हिसाब से बेवजह सम्मान पाने की लालसा में ऐसा किया जा रहा है।"
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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