महाराष्ट्र आख़िर क्यों बनता जा रहा बाल अपराध का गढ़?
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार: यूनिसेफ
देश में बाल अपराध दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इस लिहाज़ से महाराष्ट्र का देश में दूसरे स्थान पर आना कई वजहों से चौकाता है लेकिन, ज़्यादा चिंताजनक स्थिति यह है कि राज्य में पुलिस और प्रशासन के सामने बाल अपराध को रोकने की चुनौती बढ़ती ही जा रही है। वजह है कि राज्य में बाल अपराध की घटनाएं अप्रत्याशित ढंग से बढ़ती जा रही हैं।
बाल-अपराध के मामले में महाराष्ट्र मध्य-प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर आ गया है। फिलहाल राज्य में 4 हज़ार 554 बच्चों पर केस दर्ज किया गया है। मुंबई के बाद नागपुर शहर में बाल अपराधियों की संख्या सबसे अधिक है। राज्य में सबसे ज़्यादा चोरी के मामले बाल अपराध के क्षेत्र में हैं। सवाल है कि बाल अपराध के मामले में देश के दूसरे राज्यों से पीछे रहने वाला महाराष्ट्र सबसे संवेदनशील राज्यों में शुमार कैसे हो गया?
चिंताजनक स्थिति यह है कि राज्य में 12 से 16 वर्ष की आयु के 273 बच्चों पर हत्या जैसे अति गंभीर अपराध का आरोप है। वहीं, 359 बच्चों पर हत्या के प्रयास का आरोप है। इसी तरह, 340 बच्चों के ख़िलाफ़ यौन शोषण के मामले दर्ज किए गए हैं।
कैसे पहुंचे इस स्थिति तक?
बाल अपराध के पीछे की वजह छिपी नहीं है। इसके पीछे कई सामाजिक कारक काम कर रहे होते हैं। ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में बाल अपराध नहीं थे और इसके लिए इससे पहले संबंधित सामाजिक कारक नहीं थे। लेकिन, राज्य में बाल अपराध की बढ़ती दर से यह ज़ाहिर होता है कि जो कारण बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेलते हैं वे हावी हो रहे हैं। ज़ाहिर है कि यदि राज्य बाल अपराध के क्षेत्र में देश का दूसरा सबसे बदनाम राज्य बन गया है तो इसलिए कि यहां भी कहीं-न-कहीं ख़ास तौर पर पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियां बाल अपराध में सहयोगी साबित हो रही हैं।
महाराष्ट्र बड़े महानगरों वाला राज्य कहलाता है जहां मुंबई के अलावा ठाणे, पुणे, नागपुर और कोल्हापुर जैसे शहरों में शहरीकरण बहुत तेज़ी से हो रहा है। शहरीकरण के अनुपात में यहां के शहरों की ओर बड़ी संख्या में पलायन की प्रवृति भी देखी गई है। लिहाज़ा, यहां के शहरों में बड़े पैमाने पर 'स्लम' तैयार हो रहे हैं। राज्य में बाल अपराध के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो ज़्यादातर मामले स्लम क्षेत्र से जुड़े हैं। यह देखा गया है कि बाल अपराध की संख्या आमतौर पर स्लम क्षेत्रों में अधिक होती है। बाल अपराध से जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं कि पारिवारिक कलह, पिता में नशे की लत या घर में लगातार झगड़े और ऐसे ही कारण बच्चों के दिमाग पर बुरा असर डालते हैं। इससे बच्चे अपराध की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
इसके अलावा, मुंबई, ठाणे, पुणे, नागपुर और कोल्हापुर जैसे शहरों में शहरीकरण के चलते भौतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए जल्दी पैसे कमाने की चाहत भी छोटी उम्र वालों को अपराध की बड़ी दुनिया की राह पर ले जा रही है। यह प्रवृति भी देखी गई है कि कई बच्चों ने छोटी चोरियों के रूप में शुरुआत की थी और बाद में वे बड़े अपराधों में शामिल हो गए।
ले रहा व्यवस्थागत अपराध की शक्ल
जब बच्चे आपराधिक क्षेत्रों में सक्रिय हो जाते हैं तो उन्हें बाल या किशोर अपराधी करार दिया जाता है। इसके बाद उन्हें माफिया और होटल मालिक ट्रैक करने लगते हैं। मुंबई जैसे महानगरों में व्यवस्थागत अपराध का चलन रहा है और कई गैंग अपने अपराध से जुड़ी गतिविधियों को विस्तार देने के लिए नए अपराधियों की खोजबीन करते हैं। गैंग के मास्टर माइंड उन्हें सुधार के रास्ते पर जाने की बजाय अपनी गैंग में शामिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने से नहीं चूकते हैं। बड़े अपराध कराने के लिए उन्हें हमेशा अपरिपक्व दिमाग चाहिए होता है। कई मामलों में पुलिस जांच के दौरान यह पाया गया है कि माफिया या होटल मालिक ऐसी प्रवृत्ति वाले बच्चों की जासूसी करते हैं और कई बार बड़े अपराध करने में उनकी मदद लेते हैं।
वहीं, एक तथ्य यह भी उजागर हुआ है कि पुलिस रिकॉर्ड में अधिकांश बाल व किशोर अपराधी नशे के आदी हैं। चोरी और डकैती से प्राप्त धन से किशोर अपराधी शराब, हुक्का और दूसरी नशीली दवाइयों समेत अन्य बुरी तरह की गतिविधियों में लिप्त हो रहे हैं। वे होटलों, ढाबों पर शराब पार्टियों या फार्महाउसों पर ऐसी ही गतिविधियों में भी खूब पैसा खर्च करते हैं। जब पैसा ख़त्म हो जाता है तो वे फिर से शहरों में अपराध के ज़रिए पैसा कमाने में लग जाते हैं।
इसके अलावा, 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों से जब विशेषज्ञ बातचीत करके काउंसिलिंग करते हैं तो पता चलता है कि कम उम्र में संबंध बनाना, अपने साथी पर खर्च करना या शारीरिक संबंध के लिए किसी भी स्तर तक जाने की प्रवृत्ति भी बाल अपराध का एक कारण बन कर उभरा है।
सरकारी स्तर पर बढ़ रही संवेदनहीनता
जब किसी अपराध में बच्चों की संलिप्तता का पता चलता है, तो पुलिस एक डोज़ियर यानी अपराध पंजीकरण रिपोर्ट तैयार करती है। उसके बाद अगर शहर में कहीं भी ऐसी घटना होती है तो पुलिस सबसे पहले संबंधित बच्चों को पकड़ लेती है। जैसे-जैसे पुलिस बच्चे के घर पर बार-बार आती है, बच्चों के प्रति आसपास के निवासियों का रवैया भी बदल जाता है और वे उसे पेशेवर अपराधी के नज़रिए से देखते हैं।
वहीं, अक्सर पुलिस इन बच्चों को 'मुखबिर' के तौर पर भी इस्तेमाल करती है। इसलिए एक बार जब बच्चे इस चक्रव्यूह में फंस जाते हैं तो उनके लिए इससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। ज़ाहिर है कि राज्य के कई बड़े शहरों में बढ़ती बाल अपराध की प्रवृतियों के लिए सिर्फ़ सामाजिक ही नहीं बल्कि प्रशासनिक कारक भी ज़िम्मेदार हैं। लेकिन, इस ओर सरकार किसी तरह का कोई ठोस प्रयास करती नज़र नहीं आ रही है। लिहाज़ा, बाल अपराध में बढ़ोतरी को सामान्य तरह से लिया जा रहा है और इसे सिर्फ़ बढ़ते शहरीकरण तक सीमित करके देखा जा रहा है, जबकि ऐसी घटनाएं राज्य सरकार की असफलता को भी सिद्ध करती हैं।
वहीं, बाल अपराध को रोकने के लिए किए गए प्रयास भी महज़ औपचारिकता पूरी करने तक सिमट कर रह गए हैं। बाल अपराध को रोकने के लिए राज्य के हर थाने में एक विशेष टीम का गठन किया गया। कुछ आयुक्त कार्यालयों में बाल व किशोर अपराधियों को अपराध की गर्त से बाहर निकालने के लिए 'केयर' जैसे कार्यक्रम लागू करके उन्हें सामाजिक जीवन और शिक्षा की मुख्यधारा में वापस लाने का दावा किया जा रहा है। इसके अलावा, किशोर सुधार गृहों में किशोर अपराधियों को शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने की गतिविधियां भी संचालित की जा रही हैं लेकिन, इनके परिणाम अपेक्षा से कोसों दूर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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