पूंजीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के बिना अंबेडकर के भारत का सपना अधूरा
जब बाबा साहेब अंबेडकर संविधान बना रहे थे, उस वक्त आर.एस.एस के लोग मनुस्मृति को ही संविधान बनाने की मांग कर रहे थे। मनुस्मृति वह ग्रंथ है जिसे अंबेडकर के नेतृत्व में 1927 में जलाया गया था क्योंकि मनुस्मृति में कहा गया है कि शूद्र वेदवाक्य सुन ले तो उसके कान में पिघला हुआ शीशा डाल देना चाहिए। इसी तरह की और भी कई अपमानजनक बातें शूद्रों के प्रति लिखी गई हैं। आखिर शूद्रों को वेद वाक्य सुनने से क्यों वंचित किया जाता था? प्राचीन भारत के प्रख्यात इतिहासकार आर.एस. शर्मा ने अपनी चर्चित कृति ‘‘प्राचीन भारत में शूद्रों का इतिहास’ में कहा है “उन्हें इस कारण रोका जाता था कि यदि शूद्र वेद का पाठ करने लगेगा तो खुद अपने होने वाले शोषण की विधियों के प्रति सचेत हो जाएगा।’’ आर.एस. शर्मा ने यह दिलचस्प बात भी बतायी कि शूद्रों को वेदवाक्य सुनने पर तो प्रतिबंध हुआ ही करता था पर कौशल प्रशिक्षण या शिल्प वगैरह सीखने पर कोई पांबंदी नहीं थी। कौशल या शिल्प प्रशिक्षण लगभग वही है जिसे आजकल मोदी जी स्किल इंडिया कहते हैं।
अंग्रेज़ी राज को स्थायी बनाने के लिए शिल्प व कौशल प्रशिक्षण
1882 के भारतीय शिक्षा आयोग, जिसे हंटर कमीशन के नाम से जाना जाता है, उसमें एक अंग्रेज़ अधिकारी ने कहा था कि अंग्रेज़ो को भारत में यदि अपनी सत्ता को स्थायी बनाना है तो उसे स्किल ट्रेनिंग, टेक्नीकिल एजुकेशन पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र आदि मत पढ़ने दो। इससे भारतीयों में अपने अधिकारों के प्रति सजगता आ जायेगी और अंग्रेजों को अपना राज बनाए रखना मुश्किल होगा। आज मोदी जी स्किल इंडिया की बात कर रहे हैं। भारतीयों को अधिक से अधिके स्किल यानी मिस्त्री बनने का प्रशिक्षण दे दो। आज भारत में चाहे आई.आई.टी हो या आई.आई.एम जैसे तकनीकी व प्रबंधन संस्थानों, इनसे जो भी छात्र निकल रहे हैं, वे किसी न किसी मल्टीनेशनल में बतौर मिस्त्री बनकर ही गौरवान्वित हैं। दूसरी ओर जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के ह्यूमैनिटिज विषयों के शोध के पैसों में कटौती की जाती है।
नीत्शे मनुस्मृति से और हिटलर नीत्शे से प्रभावित था
अंबेडकर ने मनुस्मृति की चर्चा करते हुए करते हुए बतलाया है कि जर्मन चिंतक नीत्शे को अतिमानव की प्रेरणा इसी ग्रंथ से मिली। नीत्शे ने अतिमानव, महामानव की अवधारणा को सामने रखा कि कुछ मानव जन्मजात प्रतिभाशाली होते हैं, बुद्धि विवेक से तेज होते हैं, इसलिए वे दूसरों पर शासन करने के लिए बने होते हैं। मनुस्मृति में ब्राह्मण के विशेषाधिकार की बात की गई है। उनमें महामानव के गुण होते हैं। बाद के दिनों में हिटलर को प्रेरणा उसी नीत्शे से मिली। आर्यों के रक्त को असली व शुद्ध मानने का फासिस्ट सिद्धांत हिटलर को नीत्शे से प्राप्त हुआ था।
स्टालिन को नेता बनते सुन भावुक हो उठे थे अंबेडकर
हिटलर के फासीवाद ने यूरोप सहित पूरी दुनिया को किस तरह युद्ध व हिंसा के दलदल में धकेला उससे हम सभी वाकिफ हैं। हिटलर के रथ को रोकने वाली जोसेफ स्टालिन के नेतृत्व वाली रूस की लाल सेना थी। अंबेडकर वैसे तो कम्युनिस्टों से दूरी बनाए रखते थे, लेकिन स्टालिन के प्रति उनके मन में काफी सम्मान था। जब जोसेफ स्तालिन वहां सत्ता में आए तो अंबेडकर उस कम्युनिस्ट सत्ता के प्रति भावुक हो उठे कि एक गरीब चमार के बेट को राज्य का प्रधान बनाया गया है। स्टालिन द्वारा अपने विरोधियों के प्रति फैलाये गए आतंकवाद की ख़बरों के बावजूद, अंबेडकर के अंदर उसके प्रति सॉफ्ट कार्नर बना रहा। जिस दिन स्तालिन की मृत्यु हुई, ऐसा कहा जाता है कि अंबेडकर ने उनकी मौत के शोक में उपवास रखा।’’
इन बातों को आनन्द तुलतुम्बुडे संपादित पुस्तक 'इंडिया एंड कम्युनिज्म‘ में देखा जा सकता है। 'इंडिया एंड कम्युनिज्म' अंबेडकर की अंतिम पुस्तक मानी जाती है। हाल ही में इसे 'लेफ्टवर्ड' ने प्रकाशित किया है। अंबेडकर ने इस पुस्तक के मात्र दो चैप्टर ही लिखे पाए थे। उसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी थी। अंबेडकर का अंतिम भाषण बुद्ध और कार्ल मार्क्स था जिसमें उन्होंने टिप्पणी कि बौद्ध धर्म प्राचीन मार्क्सवाद है और मार्क्सवाद आधुनिक बौद्ध धर्म है।
फ्रांसीसी क्रांति के समर्थक, रूसी क्रांति के आलोचक थे अंबेडकर
अंबेडकर रूसी क्रांति के प्रति प्रशंसा का भाव रखते हुए भी उसके आलोचक भी थे। अंबेडकर का मानना था कि रूसी क्रांति ने समानता के पहलू को तो सामने लाया है परन्तु भाईचारे और स्वतंत्रता की कीमत पर इस समानता का क्या महत्व होगा। रूसी क्रांति में हुई हिंसा के कारण भी अंबेडकर उसके आलोचक थे। लेकिन अंबेडकर फ्रांसीसी क्रांति के बड़े प्रशंसक थे। बुद्ध की सामाजिक-राजनीतिक क्रांति की तुलना उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति से की थी।
लेकिन जहां तक हिंसा का प्रश्न है फ्रांसीसी क्रांति में हिंसा, रूसी क्रांति के मुकाबले बहुत अधिक हुई थी।
अंबेडकर के मार्क्सवाद के संबन्ध में विचार जॉन डेवी से प्रभावित था
"इंडिया एंड कम्युनिज्म’ में आनंद तेलतुंबड़े ने इस बात को भी रेखांकित किया है कि अंबेडकर 1930 के दशक में कम्युनिज्म के खिलाफ नहीं थे। अंतराष्ट्रीय प्रवृत्ति के बतौर कम्युनिज्म से उन्हें दिक्कत नहीं थी, लेकिन बंबई के कम्युनिस्टों के साथ उनके अनुभव ने उनको कम्युनिस्टों से जुड़ी किसी भी चीज के प्रति कटु बना डाला था।"
वे आगे कहते हैं "उनके बौद्धिक व वैचारिक विकास में उनका बचपन का धार्मिक वातावरण तथा कोलंबिया विश्विद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स (ग्रेट ब्रिटेन के फेबियन लोगों द्वरा स्थापित) में छात्र रहने के दौरान के उदारवादी व फेबियनवाद प्रभाव ने मार्क्सवाद में उनकी दिलचस्पी में बाधा पहुंचायी। अंबेडकर कोलंबिया विश्विद्यालय के अपने प्रोफेसर जॉन डेवी से गहरे रूप से प्रभावित थे। जॉन डेवी अपने समय के बेहद प्रभावशाली चिंतकों में से थे। वे एक नेतृत्वकारी व्यावहारिक दार्शनिक तथा फेबियन समाजवादी होने के साथ-साथ डेवी ‘लीग फॉर इंडस्ट्रियल डेमोक्रेसी’ के चेयरमैन भी थे। यह लीग ग्रेट ब्रिटेन के फेबियन सोसायटी का अमरीकी प्रतिरूप था। अंबेडकर के मार्क्सवाद संबंधी अधिकांश आपत्तियों को इसी फेबियन साहित्य में ढ़ूंढ़ा जा सकता है।’’
पूंजीवाद के कारण टिका है ब्राह्मणवाद
अंबेडकर के व्यक्तित्व की इन पहलुओं के आधार पर आजकल दलित नेतृत्व में कुछ ऐसी ताकतें सक्रिय हैं जो दलितों की स्वाभाविक सहयोगी वामपंथियों से उसकी नजदीकी बनने ही नहीं देना चाहती है। ये लोग अंबेडकर और कम्युनिस्टों के मध्य की निकटता के पहलुओं को धुंधला बना देना चाहते हैं। ब्राह्मणवाद से तो लड़़ने की बात की जाती है पर पूंजीवाद से लड़ने में इनके पांव लड़खड़ाते हैं। निजी क्षेत्र को दलितों के लिए फलदायी तक बताते हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि यदि पूंजीवाद से निर्णायक लड़ाई नहीं छेड़ी गयी तो ब्राह्मणवाद को भी हराया नहीं जा सकता है। ब्राह्मणवाद को भौतिक आधार पूंजीवाद से ही मिलता है।
सामंतवाद की सहायता से ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म को पराजित किया
पूंजीवाद आज ब्राह्मणवाद को ठीक वैसे ही सहायता पहुंचा रहा है जैसा छठी-सातंवी शताब्दी में सामंतवाद ने पहुंचाया था। नगरों के पराभव के बाद राजाओं द्वारा दिए गए लैंड ग्रांट्स की मदद से ही ब्राह्राणों की ताकत बढ़ी और अपने प्रमुख दुश्मन बौद्ध धर्म को भी पराजित करने में वह सफल हुआ। ‘जाति, वर्ग व संस्कृति’ पुस्तक के लेखक नरेंद्र कुमार के अनुसार ‘‘जब तक ब्राह्मण लोग घंटी डुलाते रहे वे बौद्ध धर्म का कुछ नहीं बिगाड़ सके लेकिन ज्योंहि उसने गुप्त काल के समय सामंतवाद का सहारा लिया, सामंतों की आर्थिक ताकत के सहारे बौद्ध धर्म को भारत से उखाड़ फेंकने में उन्हें मदद मिली।’’ ब्राह्मणवाद हमेशा अपने युग की प्रमुख व्यवस्था के साथ तालमेल बिठा कर चलती है। जैसे बौद्ध धर्म को हराने में उसने सामंतवाद का साथ लिया वैसे ही आज वो पूंजीवाद के साथ एकाकार हो गयी है। अतः ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए सबसे आसान है कि उसकी आर्थिक जड़ों यानी पूंजीवाद पर हमला किया जाए। हिंदुस्तान में कम्युनिस्ट क्रांति के बगैर जाति का विनाश संभव नहीं है।
हिंदुस्तान के दो दुश्मन : ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद
अंबेडकर ने 1936 में जो पहली पार्टी की स्थापना की उसका नाम था ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ (आई.एल.पी)। इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के झंडे का रंग लाल था। इस पार्टी ने हिंदुस्तान के दो दुश्मनों के रूप में ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को चिन्हित किया था। आज पूंजीवाद के प्रभाव में शिक्षा के सभी क्षेत्रों का निजीकरण कर दिया जा रहा है। यानी जिसके पास पैसा नहीं होगा वह पढ़ नहीं सकेगा। तमाम विश्विद्यालयों में इसी कारण फीस बढ़ायी जा रही है। जब इस बारे में शासकों से पूछा जाता है तो उनका दो टूक जवाब होता है कि सरकार उच्च शिक्षा के लिए छात्रों को लोन प्रदान कर रही है। छात्र कर्ज लेकर पढ़ें और जब नौकरी हो जाए तो उसे धीरे-धीरे चुका दें। कर्ज लेकर पढ़ाई का वही हश्र होगा जो खेती करने वाले किसानों का हुआ। तीन लाख से अधिक किसानों को आत्महत्या करने ओर मजबूर होना पड़ा। कर्ज लेकर पढ़ाई की बात दरअसल छात्रों को आत्महत्या के पथ पर अग्रसर करता प्रतीत होता है। क्योंकि पढ़ाई के बाद रोजगार की कोई गारंटी नहीं है। यह तो छात्रों को शिक्षा से ही वंचित करने का प्रयास है। प्राचीन काल मे छात्रों को शिक्षा से वंचित करने का काम उपनयन संस्कार के माध्यम से किया जाता था। अंबेडकर ने अपनी प्रसिद्ध किताब 'शूद्र कौन थे’ में इस बात को स्पष्टता से रेखांकित किया है कि किस प्रकार गरीबों व शूद्रों को पढ़ने-लिखने से वंचित किया जाता है। अंबेडकर बताते हैं कि ब्राह्मणवाद ने बड़ी चालाकी से यह नियम बना डाला कि पढ़ने-लिखने का अधिकार उसे ही होगा जिसका उपनयन संस्कार हुआ हो। इस प्रकार मात्र उपनयन संस्कार की शर्त रखकर शूद्रों को शिक्षा व संपत्ति से वंचित कर दिया गया। जो काम पुराना ब्राह्मणवाद कर रहा था वही कार्य नया पूंजीवाद कर रहा है।
हमने गांव के गरीबों के लिए कुछ नहीं किया: अंबेडकर
अंबेडकर के अंतिम दिनों में बी.एस.बाघमारे के नेतृत्व में जब कुछ लोगों का एक दल उनसे मिलने गया तो उन्होंने बेबाकी स्वीकार किया कि हमारे तौर तरीकों से सिर्फ शहरी दलितों को फायदा हुआ है। गांव के गरीबों के लिए हमलोग कुछ नहीं कर सके। यदि तुम लोग कुछ करना चाहो तो गॉंवों में जाकर काम करो।
तब बाघमारे के नेतृत्व में संघर्ष हुआ जिसमें लगभग सत्रह सौ कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए। फिर दादा साहब गायकवाड़ के नेतृत्व में चलाये गए संघर्ष में बीस हजार लोग जेल में डाले गए। 1966 में भूमि को लेकर सशक्त संघर्ष चलाया गया। जमीन के लिए चली इस लड़ाई में सोशलिस्टों व कम्युनिस्टों दोनों ने साथ दिया। इससे शासकवर्ग में खौफ हो गया कि ऐसा न हो कि भूमि के पुर्नवितरण के लिए चलने वाले संघर्ष रैडिकल दिशा पकड़ ले। तब उन्होंने चाल चली और दादा साहब गायकवाड़ को राजयसभा का सदस्य बनाकर भेजा गया। धीरे-धीरे आंदोलन की धार कुंद होती चली गयी।
मज़दूरों के नहीं, 'अछूतों’ के प्रतिनिधि के रूप में अंग्रेजों को स्वीकार्य हुए अंबेडकर
ब्रिटिश शासक वर्ग ने अंबेडकर के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही किया था जब 'इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी’ के माध्यम से डॉ अंबेडकर आम श्रमिकों के मुद्दों को लेकर चुनाव मैदान में आए और उनके दल को अच्छी सफलता भी मिली। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें श्रमिकों का प्रतिनिधि नहीं बने रहने दिया। दलित मुद्दों पर निरंतर लेखन करते रहने वाले बजरंग बिहारी तिवारी के कहते हैं ‘‘1942 में क्रिप्स मिशन भारत आया। स्टेफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व वाला यह कैबिनेट मिशन मात्र धार्मिक या जातीय प्रतिनिधियों को ही मान्यता दे रहा था। यह उन्हीं से बात करने के लिए अधिकृत था। ‘मजदूर’ एक आर्थिक-राजनीतिक श्रेणी है लिहाजा ‘स्वतंत्र मजदूर दल’ के प्रतिनिधि के रूप में डॉ अंबेडकर मिशन से नहीं मिल सकते थे। नतीजतन उन्हें ‘शिड्यूल कास्ट फेडेरेशन’ बनाना पड़ा। वे ‘अछूतों’ के प्रतिनिधि के रूप में ही औपनिवेशिक सत्ता को स्वीकार्य हुए।’’
लगता है कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो जाऊं: अंबेडकर
अपने अंतिम वर्षों में अंबेडकर के पुराने विचारों में परिवर्तन आ रहा था। कम्युनिस्टों से अंबेडकर की निकटता को गोविंद पनसारे द्वारा संपादित पुस्तक में दी गयी चिट्ठी से समझा जा सकता है। 1953 में दादा साहब गायकवाड़ को लिखी चिट्ठी में उन्होंने यह विचार प्रकट किया कि आरक्षण वगैरह के माध्यम से प्रगति के रास्ते में काफी वक्त लग जाने की संभावना है इस कारण क्यों न कम्युनिस्ट पाटी में शामिल हो जाया जाए।
आज हिंदुस्तान उसी मोड़ पर खड़ा है। उन्होनें हिंदुस्तान के दो दुश्मन बताये थे-- ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद। यही बात फूले भी कहा करते थे की हिंदुस्तान के दो मुख्य शत्रु हैं ‘भट्ट जी और सेठ जी'। भट्ट जी का मतलब ब्राह्मणवाद और सेठ जी का मतलब पूंजीवाद। फूले भारत में दो द्विवर्णी संघर्ष की बात करते हैं। एक ओर ब्राह्राण हैं तो दूसरी ओर शूद्र-अतिशूद्र। यह मार्क्स के वर्ग संघर्ष के अवधारणा के बेहद करीब है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसी बात को दूसरे ढ़ंग से कहा है कि भारत का वर्ग संघर्ष दो पाँव पर टिका है--सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के विरूद्ध संघर्ष।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)
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