“वर्चस्व की संस्कृति के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की संस्कृति” के लिए लेखक-कलाकारों का आह्वान
“बिहार की धरती हमेशा से प्रतिरोध की धरती रही है। जहां वर्चस्व की सत्ता-संस्कृति को हमेशा से चुनौती दी जाती रही है। यहां क्रांति और प्रतिक्रांति के बीच हमेशा संघर्ष रहा है। आज वर्चस्व की संस्कृति तानाशाही में तब्दील हो गयी है। अपने अपने काल में समाज में वैचारिक क्रांति करनेवाले कबीर और नागार्जुन जैसे जन रचनाकार जीवित होते तो या तो वे जेल में होते या उनकी ह्त्या हो गयी होती। ऐसे में प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करना ही लेखक-कलाकारों का प्रमुख कार्यभार होना चाहिए।” उक्त आह्वान डा. चौथीराम यादव ने जन संस्कृति मंच के छठे राज्य सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए किया।
बुद्ध की नगरी कहे जानेवाले बिहार प्रदेश की गया नगरी में 26-27 नवम्बर को यह सम्मेलन आयोजित हुआ। जिसमें बिहार समेत कई अन्य स्थानों से पहुंचे वाम धारा एवं सामाजिक जन सरोकारों से जुड़े लेखक-स्वतंत्र मीडियाकर्मी एवं वरिष्ठ शिक्षाविद-बुद्धिजीवी के अलावे कई नुक्कड़ नाट्य-गीत मंडलियों के कलाकार प्रतिनिधि शामिल हुए।
“उठो मेरे देश” के केंद्रीय आह्वान के साथ “वर्चस्व की संस्कृति के ख़िलाफ़ जन संस्कृति के लिए” थीम को लेकर यह सम्मेलन हुआ। सम्मेलन स्थल (गया संग्रहालय सभागार) को वरिष्ठ जन आलोचक व साहित्यकार डा. मैनेजर पाण्डेय नगर के नाम समर्पित था। बिहार के वरिष्ठ जन रचनाकार रहे रामनिहाल गुंजन और उर्दू साहित्यकार जनाब अब्दुल अलीम हिलाल के नाम से सभागार एवं मंच का नामकरण किया गया था। जबकि जाने-माने जन चित्रकार राकेश दिवाकर और मगध क्षेत्र के क्रन्तिकारी जनगायक अनूप नंदन (सुनील बिन्द) के नाम पर द्वार था।
उद्घाटन सत्र में गाज़ा में मारे गए मासूमों तथा समकालीन जनमत पत्रिका की प्रबंध संपादक व जसम संस्थापकों में शामिल रहीं मीना राय जी समेत हाल में दिवंगत सभी लेखक-कलाकारों-शहीदों की स्मृति में ‘एक मिनट की मौन श्रद्धांजलि’ दी गयी।
जनकवि गोरख पाण्डेय लिखित ‘वतन का गीत-हमारे वतन की नयी ज़िन्दगी हो’ के समूह गायन से सम्मेलन की शुरुआत की गयी।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं आलोचक डा. चौथीराम यादव ने सम्मेलन का उद्घाटन किया। अपने उद्बोधन में देश की सत्ता-संस्कृति पर काबिज़ “वर्चस्व की संस्कृति” से मुकाबले के लिए सभी वाम-प्रगतिशील-दलित-बहुजन एवं धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक धारा के सभी सांस्कृतिक संगठनों और संस्कृतिकर्मियों की व्यापक एकता को आवश्यक बताया। “वर्चस्व की संस्कृति के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की संस्कृति” खड़ा करने के लिए बिहार में आयोजित जन संस्कृति मंच के सम्मेलन को बेहद प्रासंगिक बताया। प्रतिरोध की संस्कृति की ऐतिहासिक परम्परा की चर्चा करते हुए कहा कि- आदिकाल से ही जब भी “वर्चस्व की संस्कृति” हावी हुई तो उसके विरोध में “प्रतिरोध की संस्कृति” भी उठ खड़ी हुई है। जिसका जीवंत प्रमाण खुद गौतम बुद्ध की कर्मभूमि यह गया क्षेत्र की धरती रही है। जहां बुद्ध ने सामाजिक जन जागरण-क्रांति की ऐसी अलख जगायी कि पूरी दुनिया में उनके विचार-दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा था। मौजूदा समय में देश की सत्ता-संस्कृति पर काबिज़ वर्चस्व की संस्कृति ने इस देश को सुनियोजित “चमत्कारों का देश” बनाने पर इस क़दर आमादा हैं कि एक ही रात में एक ही समय पर गणेश जी की मूर्ति कई टन दूध पी जा रही हैं। इस “वर्चस्व की संस्कृति” के ख़िलाफ़ सार्थक विकल्प का निर्माण कबीर और नागार्जुन की प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करके ही किया जा सकता है।
मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव मनोज सिंह ने भी सभी प्रतिबद्ध सांस्कृतिक शक्तियों की व्यापक ज़मीनी एकता को ज़रूरी बताया। आरएसएस-भाजपा सरकारों द्वारा संविधान व लोकतंत्र के साथ साथ वर्षों पुरानी ‘हिन्दुस्तानी गंगा-जमुनी तहजीब’ की साझी शहादत-साझी विरासत परम्परा को नष्ट करने का आरोप लगाया। जो सिर्फ और सिर्फ “नफ़रत-हिंसा और विभाजन की राजनीति” करके पूरे देश और यहां की जनता को चंद निजी-कॉर्पोरेट कंपनियों-घरानों के हवाले करने पर आमादा हैं। जन संस्कृति मंच के विगत संचालित सांस्कृतिक अभियानों का हवाला देते हुए जोर दिया कि- अभी सबसे ज़रूरी है कि लेखक-कलाकार सीधे जनता के बीच जाकर अपनी रचनाशीलता से जनता के संघर्षों को मुखर स्वर दें। सिर्फ तभी वर्चस्व की संस्कृति का कारगर और प्रभावी जवाब संभव है।
आमंत्रित वक्ता के रूप में बोलते हुए चर्चित नाटककार राजेश कुमार ने जन नाट्यकर्मियों को सुझाव दिया कि- समय की मांग-चुनौतियों के अनुरूप ही हमें अपने कलात्मक औज़ार विकसित करने होंगे। सिर्फ कला के कथ्य में ही नहीं अपितु कला के नए-मौलिक शिल्प-रूपों का विकास करना होगा। लोक कलाओं को सार्थक माध्यम बनाकर जनता से सीधे जीवन संवाद की आज सबसे अधिक ज़रूरत पड़ गयी है।
बिरादराना संगठनों की ओर से जनवादी लेखक संघ के डा. अली इमाम ने कहा कि- वर्तमान तानशाह सत्ता का कारगर मुकाबले के लिए हमें नए सिरे से अपनी एकता को मजबूत बनाने के साथ साथ व्यापक कतारों को भी वैचारिक रूप से तैयार करना होगा। समकालीन लोकयुद्ध के संपादक संतोष सहर ने प्रतिरोध की ज़मीनी सांस्कृतिक ताक़तों की व्यापक गोलबंदी के लिए गांव गांव जाने पर जोर दिया। वर्तमान कला की चुनौतियों के सम्मुख खुद को स्थापित करने के लिए उभर रहीं नयी कलात्मक विशिष्टताओं के अनुरूप अपनी क्षमता के विकास को आवश्यक बताया।
समकालीन जनमत के संपादक मंडल सदस्य एवं युवा आलोचक सुधीर सुमन ने व्यापक सांस्कृतिक एकता को आवश्यक बताते हुए कहा कि- आज सच बोलने के पक्ष में जो भी है उस पर सत्ता-दमन की तलवार लटकी हुई है। कर्मचारियों के चर्चित मज़दूर नेता श्यामलाल जी ने सम्मेलन स्वागत समिति की ओर से अपनी बातें रखीं। सम्मेलन में आये लोगों का स्वागत करते हुए साहित्य अकादमी (उर्दू) सदस्य और वरिष्ठ उर्दू रचनाकार अहमद सगीर ने ‘हिंदी-उर्दू की एकता’ धारा को फिर से मजबूत करने पर जोर देते हुए कहा कि- मौजूदा “गैप” को पाटा जाय और दोनों ही भाषाओँ में जो कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है उससे घनिष्ठ रचनात्मक संवाद को मजबूत बनया जाय। युवा मीडियाकर्मी प्रीति प्रभा ने सांस्कृतिक जगत में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी और अधिक बढ़ाने व उन्हें टिकाने पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता बतायी।
सम्मेलन के प्रतिनिधि विमर्श सत्र में जसम राज्य सचिव एवं युवा नाट्यकर्मी दीपक सिन्हा ने कार्य रिपोर्ट और भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत की। जिसमें ये प्रस्तावित किया गया था कि- आने वाले महीनों में ‘उठो मेरे देश’ के तहत सांस्कृतिक-यात्रायें निकालने, वर्तमान कलात्मक चुनौतियों के अनुरूप विशेष रूप से नए नए संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने तथा उनके लिए विशेष ‘लेखन और नाट्य-गायन कार्यशालाएं’ आयोजित करने, “घर घर मोदी” के मुकाबले “घर घर जनचेतना” का विशेष सांस्कृतिक अभियान संचालित करने के साथ साथ “पुस्तकालय आंदोलन” इत्यादि चलाने पर जोर दिया गया था। जिस पर कई प्रतिनिधियों के अलावे विशेष आमंत्रित संस्कृतिकर्मियों ने अपने विचार रखे। संगठन सत्र में सर्वसम्मति से वरिष्ठ कवि जितेन्द्र कुमार व रंगकर्मी दीपक सिन्हा को पुनः राज्य अध्यक्ष व सचिव चुना गया। इसके अलावे 101 सदस्यीय राज्य परिषद और 33 सदस्यीय कार्यकारिणी व अन्य पदाधिकारियों का भी चुनाव किया गया।
सांस्कृतिक सत्र में चर्चित बिरहा गायन ‘पुकार टीम’ की प्रस्तुतियों के अलावे मंच की कई जन नाट्य मंडलियों तथा कई चर्चित जन गायकों द्वारा सांस्कृतिक प्रस्तुतियां की गयीं। 26 नवम्बर की शाम ‘कवि सम्मेलन व मुशायरा’ का भी आयोजन किया गया। जिसमें काफी संख्या में युवा रचनकार शामिल हुए। सम्मेलन स्थल पर एक्टिविस्ट शिक्षाविद ग़ालिब जी परिकल्पित एवं चित्रकार सीताराम जी निर्मित चित्र-प्रदर्शनी ने लोगों को बेहद आकर्षित किया।
“हम होंगे क़ामयाब” के समूहगान से सम्मेलन एक नए जोशो-खरोश के साथ संपन्न हुआ।
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