हिन्दी कभी भी शोषकों की भाषा नहीं रही
हिन्दी अपने नामकरण और शाब्दिक व्युत्पत्ति से ही हमारे देश की गंगा-जमुनी तहजीब को प्रदर्शित करती है। वृहत्तर इंडो यूरोपियन भाषा परिवार की इंडो ईरानी शाखा के अंतर्गत इंडो आर्यन उपशाखा की सदस्य हिंदी इस उपशाखा की अन्य भाषाओं संस्कृत, उर्दू, मराठी, बांग्ला, नेपाली,कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, गुजराती, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी,मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी आदि से अविभाज्य रूप से अंतः संबंधित है। यही कारण है कि देश की 78 प्रतिशत आबादी आसानी से हिन्दी बोल-समझ लेती है।अपने देश में लोकप्रियता के मामले में हिन्दी चीन की मंदारिन को पीछे छोड़ देती है जिसे केवल 62 प्रतिशत चीनी ही समझ और बोल पाते हैं। दरअसल चीन में प्रचलित 56 बोलियां अथवा उपभाषाएं मंदारिन से नितांत भिन्न हैं।
विद्वानों का एक वर्ग कुछ आनुवंशिक और पुरातात्विक खोजों का आश्रय लेकर आर्य-द्रविड़ विभाजन को अस्वीकार करता है और इसे साम्राज्यवादियों की विभाजनकारी नीतियों की उपज मानता है। विद्वानों का यह समूह आर्य और द्रविड़ भाषा परिवार के विभाजन को भी अस्वीकार करता है और यह तर्क भी देता है कि अधिकांश भारतीय भाषाओं (जिन्हें अब आर्य तथा द्रविड़ भाषा के रूप में गलत ढंग से वर्गीकृत कर दिया गया है) की लिपियां प्राचीन ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं।
हमारे देश में हिन्दी बोलने वालों की संख्या बढ़ी है। सन 2001 से 2011 के मध्य 10 करोड़ नए लोगों ने हिंदी बोलना प्रारंभ किया और वर्तमान में हिन्दी को मातृ भाषा मानने वालों की संख्या 52 करोड़ है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दी 43.63 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा बन गई है जो 2001 के 41.03 प्रतिशत से लगभग ढाई प्रतिशत अधिक है। हिन्दी विश्व भाषाओं में उपयोगकर्ताओं की संख्या की दृष्टि से कौन से स्थान पर है यह विवाद का विषय रहा है। कई विद्वान विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली मंदारिन के संबंध में चीन द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को संदेहास्पद बताते हैं। इनके मतानुसार मानकीकृत चीनी भाषा का दर्जा मंदारिन को प्राप्त है किंतु चीन सरकार अपने आंकड़ों में गुआन(उत्तरी मंदारिन), वू, यू, मीन, शियान, हाक्का और गान बोलियों अथवा उपभाषाओं के प्रयोगकर्ताओं के समेकित आंकड़े प्रस्तुत करती है। टोकियो विश्विद्यालय के प्रो होजुमी तनाका ने 1999 में यांत्रिक अनुवाद पर केंद्रित एक संगोष्ठी में मंदारिन को प्रथम और हिन्दी को द्वितीय स्थान दिया था। जबकि डॉ. जयंती लाल नौटियाल ने अपने विभिन्न शोधों द्वारा हाल के वर्षों में यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि हिन्दी अब संख्यात्मक दृष्टि से प्रथम स्थान पर आ गई है।
आंकड़ों के इस खेल में पेचीदगियां बहुत हैं। अंग्रेजी भले ही अब संख्यात्मक दृष्टि से पिछड़ रही है लेकिन इसके वैश्विक दबदबे को सब स्वीकार करते हैं और इसके रुतबे से भयभीत भी होते हैं। हम हिंदुस्तानी यह गर्व से कह सकते हैं कि हिन्दी कभी भी शोषकों की भाषा नहीं रही। यह कभी भी उपनिवेशवाद के समर्थन में खड़ी नहीं दिखती। यह धर्मप्रचारकों का औजार भी कभी नहीं रही। हिन्दी के जितने भी बोलने-लिखने-जानने वाले हैं हिन्दी उनके हृदय की भाषा रही है।
विश्व के जिस भी देश में हिंदुस्तानी लोग पहुंचे -मॉरिशस, फिजी,सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो-कभी बतौर श्रमिक और कभी बतौर व्यापारी- अपने परिश्रम एवं प्रतिभा से उन्होंने उस देश को समृद्ध किया तथा हिन्दी को न केवल जीवित रखा बल्कि वैश्विक स्वरूप भी दिया।
आज जब हम हिन्दी को भविष्य की विश्व भाषा के रूप में देखते हैं और विश्व आर्थिक मंच हिन्दी को विश्व की दस सबसे शक्तिशाली भाषाओं में शुमार करता है तो इसका कारण यह है कि हमारा देश विश्व के सबसे युवा देशों में एक है और हमारा युवक वैश्वीकरण के इस दौर की व्यापारिक-वाणिज्यिक-वैज्ञानिक गतिविधियों को नियंत्रित करने की क्षमता रखता है- हिन्दी इस प्रतिभावान युवक की भाषा ही नहीं उसका संस्कार है, उसकी तहजीब है जो उसे पूरी दुनिया को अपना परिवार समझने की सीख देती है एवं पूरा विश्व भी इस बात की तसदीक करता है कि हम उदार और सहिष्णु हैं क्योंकि हम हिंदुस्तानी हैं।
कई बार इस बात का भय होता है कि कहीं हिन्दी को सम्मान दिलाने की हमारी कोशिशों के मूल में उसे अंग्रेजी के समकक्ष खड़ा करने की आकांक्षा तो नहीं है? कहीं हम हिन्दी की अद्वितीयता के विषय में सशंकित तो नहीं हैं? हिन्दी, अंग्रेजी का स्थान ले ही नहीं सकती और ले भी क्यों? औपनिवेशिक गुलामी से संघर्ष में हिन्दी की उल्लेखनीय भूमिका रही है। रामविलास शर्मा ने सर्वप्रथम हिन्दी नवजागरण शब्द का प्रयोग करते हुए यह रेखांकित किया कि भक्ति कालीन लोकजागरण आम जनता की आवाज़ था जबकि उपनिवेशवाद से आक्रांत भारत का नवजागरण उच्च शिक्षा प्राप्त मध्यवर्ग द्वारा संचालित था और इसका प्रभाव कुछ शहरों तक सीमित था। भले ही इसमें अंग्रेज शासकों के राजनीतिक विरोध का स्वर बहुत क्षीण था किंतु सामाजिक-धार्मिक जागृति लाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। कुछ विद्वानों ने यह रेखांकित किया है कि हिन्दी नवजागरण में समाज सुधारकों से अधिक साहित्यकारों की भूमिका देखने में आती है। पराधीन भारत में स्वातंत्र्य चेतना की उत्पत्ति और विकास को हिन्दी पत्रकारिता तथा साहित्य से गुजर कर ही देखा-समझा जा सकता है। स्वाधीनता संग्राम के शीर्ष नेताओं- महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और इन जैसी कितनी ही विभूतियों का हिन्दी प्रेम हिन्दी को मुक्ति और स्वाधीनता की भाषा बना देता है। हिन्दी सहयोग और सहकार की भाषा है। हिन्दी भाषी इतना उदार है कि वह अपनी भाषा को लेकर कभी हिंसक नहीं होता। वह भाषा की राजनीति नहीं करता। देश का सर्वोच्च नेतृत्व हिन्दी भाषी है अथवा नहीं- यह विषय विवाद तो दूर चर्चा के योग्य भी नहीं माना जाता। हिन्दी विरोध के नायकों में भी यदि प्रगतिशील तत्व हैं तो हिन्दी जगत उनका आदर करता है जैसा हमने स्वर्गीय श्री करुणानिधि के देहावसान के बाद हिन्दी समाचार पत्रों में उन पर प्रकाशित प्रशंसात्मक आलेखों और मार्मिक शोकांजलियों में देखा। हिन्दी जगत के इस अतिशय औदार्य को हिन्दी के प्रति उसकी अश्रद्धा समझना हमारी भूल है। यह विशाल हृदयता हिन्दी ने ही अपने पाठकों को दी है। हिन्दी अपनी इसी उदारता और विनम्रता के कारण ही हिन्दी विरोधियों से भी अपने लिए आदर अर्जित कर लेगी। यदि हमारा हिन्दी प्रेम हिन्दी का आधिपत्य स्थापित करने की ओर अग्रसर होने लगा तो क्षेत्रीय भाषाओं के साथ टकराव के अवसर भी बढ़ेंगे।
हिन्दी का तत्समीकरण शायद उसे अन्य भारतीय भाषाओं- विशेषकर दक्षिण की भाषाओं के निकट ला सकता है किंतु यह उसे लोकव्यवहार की हिन्दी से बहुत दूर ले जाएगा। संस्कृतनिष्ठ होना शुद्ध हिन्दी की पहचान नहीं है। हिन्दी के विकास और प्रकृति को समझने के लिए केवल संस्कृत के साथ उसके संबंधों का विवेचन काफी नहीं। रामविलास शर्मा के अनुसार प्राचीन काल में एक आर्य भाषा नहीं अनेक आर्य भाषाएं बोली जाती थीं। इंडोयूरोपियन परिवार की भाषाओं (जिनमें हिन्दी भी सम्मिलित है) का संबंध एक आर्य भाषा से नहीं बल्कि अनेक आर्य भाषाओं से है। उनके अनुसार संस्कृत संश्लिष्ट भाषा है हिन्दी विश्लिष्ट है।-----पश्तो,बलोची, कुर्द आदि ईरानी क्षेत्र की भाषाओं के गैर फ़ारसी तत्वों पर ध्यान दिए बिना भारतीय आर्य भाषाओं की ऐतिहासिक भूमिका समझ में ही न आएगी।
संस्कृतनिष्ठ हिंदी को पवित्र समझना उसी प्रकार अनुचित है जिस प्रकार फ़ारसी बहुल उर्दू को असली उर्दू मानना गलत है। हमारे बोलचाल की भाषा में हिन्दी और उर्दू की सीमा रेखा मिट जाती है। भाषा की शुद्धता का विचार जब हिन्दी को हिंदुओ और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाने की ओर अग्रसर होता है और धार्मिक अस्मिता के साथ जुड़ता है तब यह विभाजनकारी रूप ले लेता है। वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के लिए लिपिभेद को भुलाकर हिन्दी और उर्दू को साझा संघर्ष करना होगा। उर्दू के विद्वानों को यह डर हटाना होगा कि ऐसा करने पर हिन्दी उर्दू के अस्तित्व को समाप्त कर देगी। हिन्दी के विशेषज्ञ भी यह भ्रम त्याग दें कि इस प्रयास से हिन्दी अशुद्ध और अपवित्र हो जाएगी। वैसे भी भाषा यदि बन्द तंत्र की भांति व्यवहार करने लगे तो जीवित नहीं रह सकती। कोई भाषा तभी समृद्ध बनती है जब वह अन्य भाषाओं के शब्दों को उदारता से अंगीकार कर अपना बनाती है।
यदि भाषा के विमर्श को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक असमानता के साथ संयुक्त किया जाए तो यह विश्वव्यापी प्रवृत्ति दिखाई देती है कि शोषकों के पारस्परिक व्यवहार की भाषा शोषितों से अलग होती है तथा वे शोषितों की भाषा का अवलम्बन अपने शोषण तंत्र को सुदृढ़ करने हेतु ही लेते हैं। सामान्यतया होना तो यह चाहिए कि किसी भाषा को अपनी शक्ति, सामर्थ्य, स्वीकार्यता, प्रामाणिकता और व्यापकता का निरंतर प्रदर्शन करने पर ही शासन तंत्र द्वारा अपने काम-काज की भाषा बनाया जाए। इन कसौटियों पर हिन्दी एकदम खरी उतरती है।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने सर्वसहमति से हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने का निर्णय लिया। किन्तु हमारे देश में विडम्बना यह है कि हिन्दी जनता की चहेती और दुनिया की लाड़ली तो है लेकिन सत्ताधीश तथा सरकारी अफसर जनता को जिस तरह हीन समझते हैं उसी प्रकार हिन्दी को भी उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखते हैं। अंग्रेजी अभी भी सत्ता को प्रिय है और शोषण का औजार बनी हुई है। हिन्दी को शासन तंत्र में प्रवेश देने से रोकने के लिए जो युक्तियां अपनाई जाती हैं वह बचकानी होते हुए भी बहुत कारगर रही हैं। कभी हिन्दी में प्रशासनिक शब्दावली के अभाव का अस्वीकार्य तर्क दिया जाता है फिर हिन्दी की शुद्धता के दुराग्रह को मूर्खता की सीमा तक खींचते हुए हास्यास्पद प्रशासनिक शब्दावली के निर्माण के लिए वर्षों का समय लगाया जाता है। तदुपरांत इस शब्दावली को अप्रायोगिक बताकर खारिज कर दिया जाता है और नए सिरे से कोई नई कवायद शुरू कर दी जाती है। अधिकारी-कर्मचारियों को हिन्दी में कार्य करने का प्रशिक्षण देने हेतु कार्यशालाएं इतने धड़ल्ले से आयोजित हो रही हैं कि इनके अनौचित्य और निरर्थकता को रेखांकित करने के लिए भी साहस जुटाना पड़ता है। हिन्दी अपने ही देश में इतनी पराई हो गई है कि इसके प्रयोग हेतु प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ने लगी है। हिन्दी के प्रति अविश्वास और आत्महीनता की भावना के दर्शन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों की उन सुर्खियों में होते हैं जिनमें हमारे नेताओं द्वारा विश्व मंच पर हिन्दी में दिए गए भाषणों को उनके व्यक्तित्व की विलक्षण विशेषता के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सुर्खियां तब बननी चाहिए थीं जब हिंदुस्तानी नेता अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेजी में भाषण देते। लेकिन हमारे देश में उच्च वर्ग द्वारा अंग्रेजी का प्रयोग सहज घटना है और हिन्दी का उपयोग असाधारण घटना।
किंतु हिन्दी है कि इन सारी अपमानजनक स्थितियों को नजर अंदाज कर निरंतर प्रवाहमान है। उसे हिन्दी दिवस पर बेमन से आयोजित किए जाने वाले उन सरकारी कार्यक्रमों से कोई लेना देना नहीं है जो व्यंग्यात्मक स्थितियों के सृजन के लिए कुख्यात हैं। हिन्दी को विश्व हिन्दी सम्मेलनों में दिए जाने वाले लच्छेदार भाषणों से भी कुछ मतलब नहीं है जिनमें हिन्दी की शान में कई बार अंग्रेजी में कसीदे पढ़े जाते हैं। न ही वह इन सम्मेलनों में पारित उन प्रस्तावों से रंच मात्र प्रभावित होती है जिनमें हिन्दी के लिए चांद-तारे तोड़ लाने के कभी पूरे न होने वाले वादे किए जाते हैं। प्रशंसा और पैसे की भूख के कारण हिन्दी से जुड़े कितने ही लेखक-प्रकाशकों के झूठे आदर्शवाद से हिन्दी न कुपित होती है न उन्हें दुत्कारती है। हिन्दी कितने ही लोगों को आजीविका दे रही है, ये भी उनमें से ही हैं। अपनी रक्षा के लिए बनाए गए मठों और गढ़ों को हिन्दी मुदित भाव से देखती रहती है। जब इनके मठाधीश और क्षत्रप हिन्दी पर बाजारवादी शक्तियों तथा नव उपनिवेशवादी व्यवस्था की प्रतिनिधि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आक्रमण को रोकने के स्थान पर नाम, पैसे और ताकत की लड़ाई में लग जाते हैं तब भी हिन्दी विचलित नहीं होती। उसे देश की आम जनता पर भरोसा जो है। हिन्दी कितनी ही धाराओं-उपधाराओं में अविराम प्रवाहित हो रही है। कहीं लुगदी साहित्य अपने अनगढ़ ऐंद्रिक मनोरंजन के साथ अप्रशिक्षित पाठक को हिन्दी के साथ जोड़ रहा है तो कहीं हिन्दी सिनेमा अपने संवादों और गीत संगीत के जरिए दुनिया के लोगों को हिन्दी का दीवाना बना रहा है। कहीं लोकप्रिय टीवी सीरियलों के पात्र कभी खालिस तो कभी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी बोलते दिखते हैं तो कहीं समाचार चैनलों के एंकर कभी धाराप्रवाह तो कभी लड़खड़ाती हिंदी का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। कहीं आधुनिकतम भावबोध की जटिलतम अभिव्यक्ति करने वाले पण्डित कवि मिलते हैं तो कहीं हल्का फुल्का मनोरंजन तलाशते श्रोताओं के लिए वीर, श्रृंगार और हास्य रस का बाजारू सा लगने वाला संयोजन पेश करते मंचीय कवि नजर आते हैं। कहीं पहली बार चल रहे शिशु के डगमगाते कदमों की तरह हिन्दी के शब्द संजोते कॉरपोरेट प्रबंधक हैं तो कहीं बिना अंग्रेजी के ज्ञान के अपना व्यापारिक साम्राज्य खड़ा करने वाले उनके मालिकों की ठसक भरी हिन्दी है। कहीं सोशल मीडिया को परिष्कृत हिंदी देने की जद्दोजहद में लगे स्थापित साहित्यकार हैं जो पोस्ट के छोटे आकार और बोलचाल की भाषा के प्रयोग की चुनौतियों से संघर्ष कर रहे हैं तो कहीं एकदम चलताऊ किस्म की शेरो-शायरी, कविताओं और किस्से कहानियों के सोशल मीडिया में लोकप्रिय किन्तु अज्ञात रचयिता हैं। कहीं पुरानी किताबों की खुशबू और उनके पीले पड़ गए पन्नों में छिपे सूखे फूलों के सौंदर्य के दीवाने पाठक हैं तो कहीं वे नवयुवक पाठक हैं जिनका पुस्तकालय उनके मोबाइल फ़ोन में चलता है। इनकी डिजिटल लाइब्रेरी प्रतिपल समृद्ध भी हो रही है।
जनभाषा हिन्दी किसी शासकीय संरक्षण की मोहताज नहीं है। न ही वह इतनी दयनीय है कि किसी दिन विशेष पर उसे खैरात में कुछ मीठे बोल दिए जाएं। हिन्दी हमारी उदार और समावेशी संस्कृति की जीवन रेखा है। विनम्रता हिन्दी की कमजोरी नहीं बल्कि उसकी ताकत है।
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