आम चुनावों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के बारे में विचार की जरूरत
लोकसभा चुनाव-2019 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बेशक दोबारा जीत हासिल कर ली और नरेंद्र मोदी फिर देश के प्रधानमंत्री बन गये, लेकिन इस चुनाव में भाजपा को सिर्फ 37 फीसदी वोट मिले हैं। यह बात जानबूझकर बहुत कम बतायी गयी है। सिर्फ 37 प्रतिशत वोटों के बल पर उसने लोकसभा की कुल 545 सीटों में से 300 से ज्यादा सीटों पर कब्जा कर लिया, और केंद्र में अपनी सरकार बना ली। भाजपा को मिले वोट प्रतिशत के आधार पर इतनी ज्यादा सीटें उसे नहीं मिलनी चाहिए थीं।
अगर हमारे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर होता तो यह 'करिश्मा' संभव नहीं हो पाता। चूंकि हमारे यहां एक व्यक्ति-एक वोट प्रणाली लागू है, इसलिए सारा जोर इस पर है कि किसको कितना वोट मिला।
इस बात की जरूरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी है कि हमारी चुनाव प्रणाली में वोट प्रतिशत व सीट प्रतिशत के बीच तर्कसंगत व विवेकसंगत अनुपात होना चाहिए। इसके लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लागू करने के बारे में विचार करने की जरूरत है। जैसा कि पड़ोसी देश नेपाल ने अपने यहां संसदीय लोकतंत्र में लागू किया है।
नेपाल की संसदीय लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली को ध्यान से देखने-समझने की जरूरत है। वहां चुनाव में आनुपातिक प्रतिनिधत्व प्रणाली लागू है और एक व्यक्ति को दो बार वोट देने का अधिकार है। यानी, एक बार में एक व्यक्ति दो बार वोट देता या देती है। इस तरह नेपाल ने वोट प्रतिशत व सीट प्रतिशत के बीच खाई व विसंगति को काफी हद तक दूर किया है। और नेपाल की संसद में महिलाओं, सभी समुदायों, राष्ट्रीयताओं, वंचित समूहों, धार्मिक/ जातीय अल्पसंख्यकों, आदि को उचित प्रतिनिधित्व-समानुपातिक प्रतिनिधित्व—बहुत हद तक मिला है।
हम अपने यहां खासकर उत्तर प्रदेश के एक-दो उदाहरणों से इस विसंगति को समझने की कोशिश करेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को 10 सीटें और करीब 25 प्रतिशत वोट मिले। समाजवादी पार्टी (सपा) को पांच सीटें और करीब 17 प्रतिशत वोट मिले। 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को करीब 20 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन सीट एक भी नहीं मिली थी। सपा को 22-23 प्रतिशत के करीब वोट मिले थे, और सीट तब भी पांच ही मिली थी। अब इस विरोधाभास और विसंगति को किस तरह समझा जाए ! बिहार में इस बार लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को काम लायक वोट मिलने के बावजूद एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली।
जो लोग 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत को 'प्रचंड जीत’ कह कर शोर मचा रहे हैं, उनसे कहा जाना चाहिए कि 37 प्रतिशत वोट को 'प्रचंड जीत’ नहीं कहा जा सकता।
अलबत्ता लोकसभा में भाजपा को सीटें बहुत ज्यादा मिल गयीं, जबकि उन्हें वोट प्रतिशत के हिसाब से होना चाहिए था। 'प्रचंड जीतवादियों’ को याद दिला दिया जाये कि 1984 के लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें और करीब 40 प्रतिशत वोट मिले थे।
इसी के साथ चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के इस्तेमाल, प्रासंगिकता और विश्वनीयता पर भी विचार करने की जरूरत है। मतदान के लिए ईवीएस मशीन का उपयोग बराबर कठघरे में रहा है और इसकी विश्वसनीयता को लेकर गंभीर सवाल खड़े होते रहे हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव भी—ईवीएम मशीन के इस्तेमाल के सवाल पर संदेह के दायरे में रहा है। इसकी अनदेखी करना संसदीय लोकतंत्र के लिए नुकसानदेय है।
(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक-सांस्कृतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)
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