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तबाही का साल 2021: भारत के हिस्से में निराशा, मगर लड़ाई तब भी जारी रहनी चाहिए

साम्प्रदायिक विद्वेष और दलित विरोधी हिंसा के चलते हमारी स्थिति पहले भी बहुत ख़राब थी, लेकिन मौजूदा स्थिति कहीं ज़्यादा ख़राब है। नफ़रत 2021 की हमारी नयी पहचान बन गयी और भारत सरकते हुए बहुत नीचे चला गया है।
dharm sansad
फोटो साभार : अमर उजाला

अगर भारत के लिए जिस साल को तबाही का साल कहा जाये,तो इसी साल को कहा जायेगा,क्योंकि यह साल कहीं ज़्यादा ज़हरीला रहा है।

बेशक,हर लिहाज़ से पिछला साल तबाही का साल था,क्योंकि SARS-CoV-2 वायरस ने दुनिया भर में कोहराम मचा दिया था, लेकिन भारत के लिए यह साल पिछले साल से कहीं ज़्यादा तबाही का साल रहा। इस साल न सिर्फ़ विध्वंसक वायरस अपने तांडव रूप में सामने आया, बल्कि वायरस ने लाखों लोगों की जानें ले लीं। तबाही का ऐसा मंज़र देश ने एक सदी तक नहीं देखा था, ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था सुस्त रही और भारत की आत्मा के लिए ख़तरा पैदा करने वाली नफ़रत की राजनीति तारी रही और दोनों के ज़हरीले मिश्रण को इस साल ने सामने ला दिया।

मगर, हमारी उस उम्मीद का क्या, जो पिछले साल को अलविदा कहते हुए एक डोर से बंधी हुई थी ? उम्मीद की वह डोर दिन-ब-दिन घिसती चली गयी है, और कई दशकों में पहले के मुक़ाबले वहीं ज़्यादा कमज़ोर लगती है।

नरेंद्र मोदी सरकार ने 2014 में 25 दिसंबर को सुशासन दिवस के रूप में मनाने की बात की थी, गृह मंत्री अमित शाह ने ग़रीब और हाशिए पर रह रहे भारतीयों के लिए अथक रूप से काम करने वाले अपने बॉस, यानी प्रधानमंत्री मोदी की सराहना की थी। शाह ने तो नहीं चाहा रहा होगा कि यह दावा एक क्रूर मज़ाक बन जाये,लेकिन सचाई है कि मौजूदा स्थिति उस दावे के सबसे स्याह रूप में हमारे सामने है।

साल 2021 विदा हो रहा है, मगर शासन मुश्किल से कहीं दिखाई दे रहा है। 2021 की शुरुआत में आयी दूसरी लहर में जिस तरह का चौंकाने वाला कुप्रबंधन था,उसे देखते हुए इस महामारी के साथ निपटने की भारत की कोशिश आशंका की ओर ले जाती है; आर्थिक सुधार के संकेत कम और बहुत कम दिखायी दे रहे हैं, पहले के मुक़ाबले ग़रीब लोगों की तादाद बढ़ती ही जा रही है, और भारत की सांप्रदायिक भट्ठी की आग हर गुज़रते दिन के साथ भड़कती ही जा रही है। यह सब मोदी-शाह की नज़र में है। यह अराजक लोकतांत्रिक गणराज्य एक ग़रीब हिंदू राष्ट्र की तरह दिखता है।

भारत के हिंदू प्रधानमंत्री!

भारत सोची-समझी लामबंद होती नफ़रत के तूफ़ान की चपेट में है। इसे लेकर कोई ग़लती न करें। हिंदू धर्म संसद, जिसे सही मायने में हरिद्वार नफ़रत सभा कहा जाना चाहिए, उसने हिंदुत्व प्रोजेक्ट के चेहरे से नकाब को उतार दिया है। ईश्वर पर परिचर्चा करने के लिए इस संसद में शामिल हुए स्वयंभू पुरुष और महिला साधुओं ने अल्पसंख्यकों,ख़ासकर मुसलमानों के प्रति अपनी-अपनी नफ़रतें उगलीं और यहां इकट्ठा हुए लोगों से हथियार उठाने, हिंदू राष्ट्र के लिए मरने और मारने को लेकर तैयार रहने का आह्वान किया, सेना से भारत में भी म्यांमार (रोहिंग्याओं के ख़िलाफ़ हिंसा) को दोहराने का आह्वान किया और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की हत्या की बात तक कही। एक टेलीविज़न एंकर ने इसी तरह की प्रतिज्ञा का सरेआम उच्चारण किया और वायरल हुए एक वीडियो में नाबालिग़ स्कूली बच्चों को यही प्रतिज्ञा लेते देखा गया। इस धर्म संसद के मुख्य आयोजक यति नरसिम्हनंद गिरि कथित तौर पर अपने नफरत भरे पिछले भाषणों के सिलसिले में पुलिस की जांच के घेरे में हैं। फिर भी, वह एक ऐसा आज़ाद शख़्स है, जो नरसंहार के आह्वानों की अध्यक्षता कर रहा है और क़ानून पर फ़ब्तियां कस रहा है। 2020 में हुई उनकी धर्म संसद ने उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगों से पहले ऐसा ही कुछ किया था।

यह महज़ दुर्घटना नहीं है कि तक़रीबन 200 मिलियन नागरिकों के गणतंत्र से मुक्ति का यह संकल्प गणतंत्र की खुलेआम धज्जियां उड़ाता है, इससे भड़के हुए गिरोह क्रिसमस के दौरान चर्चों में तोड़फोड़ करते हैं और सांता क्लॉज का पुतला जलाते हैं, जय-श्री-राम के नारे लगाते हुए मुसलमानों को तयशुदा जगह पर शुक्रवार की नमाज़ को अदा करने से रोका जाता है और दक्षिण बेंगलुरु का लोकसभा सांसद उसी दरम्यान अल्पसंख्यकों को उनके "मातृ धर्म" में वापस लाये जाने की मांग करता है,जब प्रधानमंत्री बार-बार संकेतों से औरंगज़ेब (और उसके उत्तराधिकारियों) को निशाने पर लेने हैं और हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों में अपनी मौजूदगी का दिखावा करते हैं।

नफ़रत की यह धारा हर तरफ़ फ़ैल जाने के लिहाज़ से अपने पूरे प्रवाह में है। उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तो ख़ुशी ही हो रही होगी, जिसकी हिंदुत्व परियोजना के लिए भाजपा ने पर्याप्त गुंज़ाइश बना रखी है और संरक्षण दिया है। यह सवाल अक्सर किया जाता है कि क्या प्रधानमंत्री को अपने धर्म के साथ जीने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। उनके इस अधिकार से कोई इनकार नहीं करता है। उनसे पहले के तमाम प्रधानमंत्रियों ने भी पूजा स्थलों की यात्रायें की थीं, लेकिन उन यात्राओं में जो फ़र्क़ था,उस पर ग़ौर करना चाहिए; जहां बाक़ी प्रधानमंत्री अलग-अलग धर्मों के पूजा स्थलों पर जाते थे, वहीं मोदी कभी-कभार गुरुद्वारे को छोड़ दिया जाये,तो साफ़ तौर पर मंदिरों के पक्षधर हैं।

अल्पसंख्यकों पर लगातार हो रहे ज़बानी और शारीरिक हमलों पर चुप्पी साधे रखते हुए हरिद्वार से मुस्लिम नरसंहार और हत्या के आह्वान वाली प्रतिज्ञाओं की निंदा नहीं करके वह हर दिन हिंदुत्ववादियों को साफ़-साफ़ संकेत देते हैं कि हिंदू राष्ट्र के उनके सपने को साकार करने को लेकर उन पर भरोसा किया जाना चाहिए। 2021 में अपने शब्दों और कृत्यों के ज़रिये उन्होंने बार-बार यह संदेश देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि वह एक हिंदू प्रधानमंत्री या हिंदू भारत के प्रधानमंत्री हैं।

नये हालात और चल रही कश्मकश

मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति घृणास्पद और हिंसक शब्दों में जतायी जा रही नफ़रत, चुनावी रैलियों में विरोधी राजनीतिक पार्टियों की महिलाओं को दी जा रही नफ़रत भरी गालियां, दलितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ घृणा-द्वेष, लिंचिंग और पिटाई की घटनाओं में व्यक्त हो रही ज़हरीली नफ़रत का वीडियो का बनाया जाना और इन वीडियो को हिंदू प्रभुत्व के सुबूत के तौर पर प्रसारित किया जाना अब उतना ही सामान्य हो गया है, जितना कि कोविड -19 के साथ जीना है। नफ़रत की धारायें कई दिशाओं से बह रही हैं, नफ़रत ज़ोरदार है और खम ठोककर सामने है, और नफ़रत राजनीतिक पूंजी बन गयी है। यह नफ़रत न्यायिक प्रणाली की कार्रवाई के लिए ललकारती है और इसके साफ़ दिखते आत्मसमर्पण पर अट्ठास कर रही है। क्या आपने हरिद्वार नफ़रत सभा की स्त्री और पुरुष साधुओं के साथ पुलसिवालों को हंसते हुए वीडियो नहीं देखा है ?

'नये आम हालात' वाला यह वाक्यांश गंभीर रूप से अक्षम, भावरहित और शिथिल है। हमारे सामान्य हालात तो काफ़ी बुरे थे,उनमें सांप्रदायिक संघर्ष और दलित विरोधी हिंसा थी। लेकिन, जो नया सामान्य हालात बने हैं,वे तो बहुत ही बुरे हैं। नफ़रत 2021 की पहचान बन गयी है, और भारत सरकते हुए बहुत नीचे चला गया है।

इस बहुसंख्यक नफ़रत के तूफ़ान में कहीं न कहीं स्वीकृति, सहिष्णुता, गुंज़ाइश और कुछ कश्मकश के छोटे-छोटे द्वीप हैं। सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को हरिद्वार में नफ़रत भरे भाषणों का संज्ञान लेने के लिए चिट्ठी लिखी। ऑल इंडिया प्रोफ़ेशनल कांग्रेस (AIPC) के सदस्यों ने नफ़रत फैलाने वालों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज करवाये। कई जगहों पर हरिद्वार के नफ़रत भरे इन भाषणों के विरोध में सभायें आयोजित की गयीं और उसकी निंदा की गयी।

गुरुग्राम में जहां शुक्रवार की नमाज़ से मुसलमानों को एक साथ हफ़्तों तक रोके रखा गया, वहीं सिखों ने शांति से नमाज़ अदा करने के लिए अपने गुरुद्वारे के दरवाज़े खोल दिये। दक्षिणपंथी समूहों के दबाव में भारत के अलग-अलग शहरों में कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारुक़ी के 12 शो इसलिए रद्द कर दिये गये,क्योंकि उन जगहों पर तोड़फोड़ करने की धमकी दी गयी थी, जहां उन्हें वे शो करने थे। ऐसे हालात में राज्य कांग्रेस इकाई ने मोर्चा संभाला। उन्होंने उसे दक्षिण मुंबई में एक प्रतिष्ठित मंच प्रदान किया और किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हो,इसके लिए मुंबई पुलिस को तैनात किया गया।

ये अहम पहल हैं और ये एकजुटता के लिहाज़ से एक अहम संकेत भी हैं। कोई शक नहीं कि ये जिस हद तक भी है,सरहनीय है,लेकिन ये नफ़रत की सुनामी के ख़िलाफ़ पर्याप्त नहीं हो सकते। असल में ये व्यक्तियों या छोटे-छोटे समूहों और सामूहिक प्रयासों की क़वायद हैं। नफ़रत और आतंक फैलाते वे हिंदुत्व संगठन दरअस्ल सरकार और प्रशासन के बाहर के तत्व हैं और जैसा कि कई मौक़ों पर यह साफ़ हो चुका है कि इन्हें सरकार की मौन स्वीकृति हासिल है।

ठीक है कि यह बराबरी की ताक़त की लड़ाई नहीं है, लेकिन तब भी इसे लड़ा जाना ज़रूरी है। जो लोग शब्दों और अपने कर्मों से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, वे इससे बहने वाली तमाम नफ़रत और आतंक को रोक पाने में सक्षम तो नहीं हो सकते हैं, लेकिन वे यह संदेश भेज पाने में ज़रूर कामयाब हैं कि नफ़रत को चुनौती दी जा सकती है और इसका सामना किया जा सकता है। एक टूट रहे ताने-बाने में पैबस्त हो रहे ऐसे तमाम पैबंदों का स्वागत है।

महामारी और आर्थिक गिरावट

मोदी सरकार ने कोविड-19 महामारी का जिस तरह से घोर और शर्मनाक कुप्रबंधन किया था,उससे दूसरी लहर ने भारत में तबाही मचा दी थी और वह मंज़र अब भी दस्तावेज़ों में अच्छी तरह से दर्ज है। अप्रैल-मई-जून 2021 के वे ख़ौफ़ानक़ दिन और रातें अब भी यादों में दहशत बनी बैठी हैं, जब देश के लोग अस्पताल के बिस्तर या ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए मारे-मारे फिर रहे थे और गिड़गिड़ा रहे थे। वे हालात अब भी दिल-ओ-दिमाग़ में सुरसुरी पैदा कर देती है,जब सामूहिक अंतिम संस्कार की तपिश को महसूस किया जा सकता था और मोदी की प्यारी नदी गंगा पर तैरते अनगिनत शव नज़र आये थे,लेकिन भारत के प्रधानमंत्री को न कुछ दिखायी दे रहा था और न कुछ सुनायी पड़ रहा था। इसी तरह की स्थिति भारत के गृह मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री की भी थी। जिस मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ़ कभी भी उनके किसी भी ग़लत क़दम से गिरता नहीं दिख रहा था,तबाही के उस मंज़र ने लोकप्रियता के उस ग्राफ़ को ज़मीन पर ला दिया था।यह लोगों के ग़ुस्से की हद को दर्शाता है। लेकिन यह समझ से बाहर है,मगर ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे साल बीतने के क़रीब आता गया है, वह ग़ुस्सा ग़ायब होता चला गया है।

उस समय घबराये और परेशान रहे लोगों के पास सिर्फ़ अपने संपर्क, साथी नागरिकों की उदारता और यूथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं जैसे अच्छे काम करने वाले लोगों का ही सहारा था। मेडिकल इमरजेंसी में फ़ंसे लोगों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म सहारे की जगह बन गये थे। यूथ कांग्रेस(YC) के राष्ट्रीय अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास और वार रूम में तैनात आपातकालीन कर्मचारियों के उनके जत्थे सबके लिए सुलभ थे और सबकी सहायता के लिए तत्पर थे। तबाही के उन हफ़्तों में भारत सरकार के मुक़ाबले ये जत्थे कहीं ज़्यादा नज़र आ रहे थे और अनुशासित थे। ग़ैर-भाजपा सरकार वाले राज्यों, ख़ासकर महाराष्ट्र और केरल, जहां कोविड-19 की तबाही सबसे ज़्यादा बतायी जा रही थी, केंद्र ने इन्हीं राज्य सरकारों को निशाने पर ले लिया था; उसी दरम्यान महाराष्ट्र में विपक्ष के रूप में भाजपा ने उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली सरकार को भी गिराने की कोशिश की थी।

2016 में मोदी के नोटबंदी के ऐलान के बाद की आपदा से भारत की जिस अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट आ रही थी, वह महामारी से थर्रा उठी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बार-बार यह भरोसा देने के बावजूद कि अर्थव्यवस्था के "पटरी पर आने के संकेत " दिखायी दे रहे हैं, आंकड़े रिकवरी के तमाम दावे को खारिज कर रहे थे। अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के जो संकेत दिख रहे हैं, वे शायद नाकाफ़ी हैं। विश्लेषकों का कहना है कि अगर अर्थव्यवस्था में सुधार भी होता है, तब भी इसके अनियमित रहने की संभावना है।

नौकरियां शायद ही मिल पा रही हैं, घरेलू बजट में मुद्रास्फीति लगातार सेंध लगा रही है, ईंधन की ऊंची कीमतें मोदी के प्रशंसकों के बीच भी एक क्रूर मज़ाक बन गयी हैं, शिक्षा प्रणाली से बाहर हो रहे बच्चे ख़ुद हिंदुत्व संशोधनवादियों के हमले की ज़द में हैं, पहले से कहीं ज़्यादा भारतीय भूखे सो रहे हैं, वरिष्ठ नागरिकों की बचत के मूल्य में महीने-दर-महीने चपत लग रही है, मुद्रा की विनिमय दर की प्रवृत्ति चिंताजनक है, और सरकार का टू ए (अंबानी और अदानी) वाला नज़रिया क्रोनी कैपिटलिज्म को चरम पर ले जा रहा है।ये सभी चीज़ें 2021 के कैलेंडर पर अंकित हैं।

आप इसे चाहे जिस तरह से भी देखें, यह साल भारत के लिए एक तबाही वाला साल रहा है। सिर्फ़ हिंदू राष्ट्र के सपने देखने वाले ही इस साल के आख़िर में ख़ुश होंगे। कई भूल-चूकों को देखते हुए मोदी-शाह को इस पर विचार करना चाहिए था और इसके सुधार की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन शाह भारत के गृह मंत्री के मुक़ाबले अपनी पार्टी के चुनाव प्रमुख कहीं ज़्यादा दिखते हैं और इसी तरह, मोदी प्रधानमंत्री के मुक़ाबले कैमरों के सामने अपने चेहरा चमकाने वाले कलाकार कहीं ज़्यादा नज़र आते हैं।

2022 का स्वागत करते हुए उम्मीदों को पाल पाना या विकल्पों की तलाश कर पाना तो मुश्किल है, लेकिन हमें ऐसा ज़रूर करना चाहिए।

(लेखक मुंबई स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राजनीति, शहरों, मीडिया और लैंगिक विषयों पर लिखने वाली एक स्तंभकार हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Annus Horribilis 2021 Leaves India Frayed, but Fight Must Continue

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