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बात बोलेगी : किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है...!

इंच-इंच करके वे हमारे दिमाग पर कब्जा कर रहे हैं, हमारी जम्हूरियत को तहस-नहस करने पर उतारू हैं। यह ख़तरा पहले के किसी भी ख़तरे से कई गुना ज्यादा बड़ा और भयावह है।
प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : India Today

जोमेटो प्रकरण से जो बात निकली है, वह बहुत दूर तक जा रही है। उसने हमारे भारतीय समाज के भीतर संस्थागत होती नफ़रत की ओर बहुत परेशान-कुन इशारा किया है। यह कोई अचानक या यक-ब-यक हुई घटना नहीं है। यह एक लंबी जहरीली सोच-रणनीति का हिस्सा है, जो सतह के नीचे धीमे-धीमे सुलगायी जा रही है, जो जरा से कुरेदने या धक्के से फटकर बाहर निकल पड़ती है। अभी अपने देश का हाल यह है कि कहीं भी, किसी भी जगह, किसी भी मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम रंग दिया जा सकता है।

सवाल यहां सिर्फ उस शख़्स का नहीं है जिसने जोमेटो एप्प पर अपने खाने का ऑर्डर एक मुस्लिम नाम वाले व्यक्ति के हाथों भेजे जाने पर आपत्ति की। हालांकि यह ताज़ा विवाद शुरू वहीं से हुआ। मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में रहने वाले अमित शुक्ला ने जोमेटो पर अपने ऑडर पर तब हंगामा किया जब उन्हें पता चला कि इसकी डिलीवरी करने वाला शख़्स मुसलमान है। अमित शुक्ला ने नाकाम कोशिश की डिलीवरी करने वाले लड़के को बदलवाने की और उनका हिंदी-मुस्लिम एजेंडा विफल हुआ तो वह बुरी तरह से बिफर गये। इस प्रकरण में जोमेटो ने जो स्टैंड लिया, वह निश्चित तौर पर काबिले-तारीफ़ है। जोमेटो के स्टाफ और बाद में सीईओ– दीपेंद्र गोयल ने जिस तरह से कहा कि, खाने का कोई धर्म नहीं होता है, भोजन खुद एक धर्म है। और हम अपने मूल्यों के लिए आर्थिक नुकसान उठाने के लिए तैयार हैं, हमआइडिया ऑफ इंडिया को लेकर गर्व महसूस करते हैं और इससे समझौता करने को तैयार नहीं...। इस पर सोशल मीडिया पर दोनों तरफ से खूब बैटिंग-बॉलिंग हुई। जैसी आशंका थी, जोमेटो को खूब ट्रॉल किया गया, उसे हिंदू विरोधी घोषित किया गया। उसकी रेटिंग नीचे गिराने का हिंदुत्व मिशन चालू हो गया। यह सिलसिला कहां रुकेगा, रुकेगा भी या नहीं, पता नहीं... लेकिन इसने जो बवाल पैदा किया उसकी मार दूर तक पड़ेगी। जैसे ही मामला हिंदू-मुस्लिम होता है, सबसे पहले तिलांजलि दी जाती है विवेक और तर्क को। जोमेटो के मालिक ने भारत की जिस अवधारणा की बात का जिक्र किया, उसे पचा पाना इस उग्र जमात के लिए तकरीबन असंभव है। हिंदू-मुस्लिम करने वालों, हलाल-झटका पर बवाल काटने वालों से कोई पूछे तो कि भाई आपकी नजर में आलू-प्याज, टमाटर, लहसन, गाजर, पनीर, चाय-कॉफी...ये सब कहां के हैं। ये हिंदू हैं, मुस्लिम हैं, ईसाई हैं...या क्या हैं। भारत की मूल अवधारणा ही सबको अपना बनाने वाली रही है, हमारे भोजन में अनगिनत चीजों-जगहों का समावेश है और इसलिए यह इतना स्वादिष्ट और विविध है। लेकिन नफ़रत के इन प्रचारकों से संवाद की गुंजाइश भी लगातार कम होती जा रही है। सुनना-समझना इस जमात ने मुद्दत से छोड़ दिया है।  

यहां चिंता सिर्फ एक मामले की वजह से नहीं है। यह तो सिर्फ एक बानगी पेश करता है। यह जो नफ़रत और वैमनस्य फैलाने वाली सोच है, उसका लंबा इतिहास है, जिसे सुनियोजित ढंग से लोगों के दिलो-दिमाग में बैठा दिया गया है। मुसलमानों, अन्य अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ यह नफ़रत लगातार जहरीली बेल की तरह फैल रही है और हमारी जम्हूरियत की साझा विरासत का खून चूस रही है। इसे शर्मनाक ढंग से, पूरी निर्लज्जता के साथ न सिर्फ राजनीतिक वरदहस्त मिला हुआ है, बल्कि सत्ता का गठजोड़ इसे पल्लवित-पुष्पित कर रहा है। मौजूदा समय से इस कातिल गठजोड़ का खूनी शिकंजा कभी गाय के नाम पर हो रही लिंचिंग में नजर आता है, कभी जय श्रीराम के जयकारे को रक्त पिपासु उद्घोष में तब्दील करने वाली भीड़ में, तो कभी मुसलमानों के आर्थिक बॉयकॉट करने के आह्वान में। इसी तरह की नफ़रत, युवा दिलों में पनपते प्रेम को बदनाम करने के लिए रची गई, जिसे लव-जेहाद का नाम दिया गया और इसके इर्द-गिर्द हिंसक-हत्यारी भीड़ को तैयार किया गया। इसी तरह से गोमांस को लेकर दशकों से बहुत सुनियोजित ढंग से दिलों में दरार डालने का अभियान शुरू किया गया, जो अब अपने पूरे वीभत्स रूप में लिंचिंग के रूप में सामने आया है।

ऐसा नहीं है कि इस नफ़रत का जन्म रातों-रात हुआ। ये हमारे दिलों में पहले से थी—विभाजन की खूनी लकीर हमारे नक्शे पर दर्ज है। ये सिलसिला आज़ादी-विभाजन से पहले से जारी है, इसका ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता रहा और पिछले पांच छह साल में तो इसमें खूंखार ढंग से उछाल आया है। जाति आधारित नफ़रत हमारा बेसिक इंस्टिंक्ट है, वर्ण व्यवस्था इसी का मल ढोते हुए आगे बढ़ी है। हिंदू राष्ट्र के सपने को अपना मिशन मानने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी औऱ तब से लेकर 2019 तक उसने अपना जो कैडर बेस तैयार किया है, जिस तरह से पूरी सत्ता पर अपना कब्जा जमाया है और विष-वमन को भारतीय सोच में गहरे बैठाया है, उसे समझे बिना देश भर में हो रही इन हिंसक व असंवैधानिक घटनाओं को नहीं समझ सकते हैं। अक्सर हम जान-बूझकर इन तमाम घटनाओं को एकसाथ देखने के बजाय अलग-अलग देखते हैं, अलहदा वाकयों के रूप में। ऐसा करने पर हमें भी सुविधा रहती है कि तेजी से उग्र राष्ट्र में तब्दील होते अपने राष्ट्र से हम आंखें मूंदे रहते हैं और नफ़रत की घातक तलवार के गहरे-स्थायी वार को तात्कालिक समझकर टालने या रफा-दफा करने की मनोवृत्ति का शिकार हो जाते हैं। यह प्रवृत्ति मौजूदा भयावह संकट से आंखें चुराने जैसा है।

जबकि हमें करना इसके बिल्कुल उलट चाहिए। सच को सच कहने की हिम्मत और उसे बार-बार दोहराने और उसके लिए जगह बनाने की जरूरत है। जिस तरह से लिंचिग को देश का नया नॉर्मल बनाया गया उसी तरह से अब विभाजन या अलगाव (Segregation) को नया नार्मल बनाया जा रहा है। जहां पहले लिचिंग के लिए गोमांस का झूठ फैलाया जाता था, उसकी जगह अब जय श्रीराम के जयकारे लगवाने ने ले ली है। संस्कृति और हमारी संवेदना को इस मोड़ पर ढकेल दिया गया है कि सड़क पर इस जुमले पर ठुमके लगते हैं—जो न बोले जय श्रीराम भेज दो उसको कब्रिस्तान। इसे भी अब नॉर्मल यानी ऐसा ही चलेगा के तौर पर स्वीकार करने की मानसिकता अवाम पर थोपी जा रही है।  

स्वघोषित धर्म प्रचारक (साध्वी) प्राची ने कांवड़ यात्रा के दौरान हिंदुओं से अपील की कि वे मुसलमान कारीगरों द्वारा बनाये गए कांवड़ न खरीदें। मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के इस तरह के अनगिनत ऐलान-घोषणाएं लंबे समय से होती रही हैं, जिन्हें संघ समेत तमाम हिंदुत्ववादी संगठनों का सहयोग-समर्थन-प्रोत्साहन हासिल रहता है। अगर ध्यान दें तो तकरीबन इतनी ही नफ़रत इस तबके को दलितों को मिलने वाले आरक्षण से भी होती है। दलितों और पिछड़ों के प्रति जब भी दबंग जातियों का गुस्सा फूटता है, उसके पीछे यह झूठ होता है कि इनकी वजह है ही उन्हें नौकरियां नहीं मिल रहीं, स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में दाखिले नहीं मिल रहे। जो दलित डॉक्टर-वकील-इंजीनियर आदि बन भी जाते हैं, उनके खिलाफ नफ़रत और बढ़ जाती है। इसकी नज़ीर मुंबई में डॉक्टर पायल ताडवी की आत्महत्या—जिसे संस्थागत हत्या भी कहा जा सकता है—के मामले में देखने को मिली। किस बर्बर ढंग से पायल को उसके सहयोगी डॉक्टरों द्वारा सताया जा रहा था, उसके जो ब्यौरे सामने आ रहे हैं, वे रोंगटे खड़े करने वाले हैं।

भारतीय समाज के डीएनए में जाति आधारित नफ़रत, धर्म आधारित वैमनस्य और पितृसत्ता का घोल है। मौजूदा हुक्मरान-हुकूमत ने इस तरह की जो बुराइयां चमड़ी के भीतर, दिमाग में गहरे परत-दर-परत दबी हुई थीं और जिन्हें पहले सार्वजनिक करने में संकोच होता था, उन्हें कुरेदकर उजागर कर दिया है। अब अगर आप मुस्लिमों से नफ़रत करते हैं, दलितों को हेय समझते हैं, स्त्रियों को दासी, बच्चे पैदा करने वाली मशीन समझते हैं—तो इसे पब्लिकली कह सकते हैं। एक इनसान की हत्या करते हुए उसका वीडियो बना सकते हैं और समाज में वह वीडियो वायरल होता है, तो समाज का एक हिस्सा आपको हत्यारे की तरह नहीं, हीरो के तौर पर देखता है। सांसद और मंत्री लिचिंग करने वालों के गले में माला डालकर फोटो खिंचवाते हैं, रैलियों में वे आगे बैठते हैं।

ये जो नया भारत बनाया जा रहा है, इसमें जो भेदभाव है, वह नस्ली भेदभाव से समानता लिये हुए है। अपने आसपास अगर देखिये तो संयुक्त राष्ट्र की रंगभेद-नस्लभेद की जो परिभाषा है, वह मूर्त रूप लेती नजर आएगी। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार नस्लभेदवादी व्यवस्था में आबादी के दो समूह रहते तो एक ही देश में हैं—लेकिन वे गैर-बराबर है और वे अलग-अलग हिस्सों में विभाजित (segregated) हैं।

इंच-इंच करके वे हमारे दिमाग पर कब्जा कर रहे हैं, हमारी जम्हूरियत को तहस-नहस करने पर उतारू हैं। यह खतरा पहले के किसी भी खतरे से कई गुना ज्यादा बड़ा और भयावह है। इससे लड़ने के लिए जोमेटो ने जो रीढ़ दिखाई है, उसकी सख्त जरूरत है। हमारे भारत की अवधारणा जिंदाबाद!

(इस लेख का शीर्षक वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल की कविता—ये कौन नहीं चाहेगा..से लिया गया है)

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