उत्तराखंड विधानसभा चुनाव परिणाम: हिंदुत्व की लहर या विपक्ष का ढीलापन?
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अभी-अभी संपन्न हुए जिनमें एक राज्य उत्तराखंड भी रहा जिसे इसकी प्राकृतिक सुंदरता, विशिष्ट धार्मिक स्थलों और खासकर टूरिज्म के आकर्षण के लिए देवभूमि के नाम से भी प्रचारित किया जाता रहा है। वैसे तो उत्तर-प्रदेश के मुकाबले उत्तराखंड के चुनावी नतीजे देश की राजनीति में कुछ खास मायने नहीं रखते हैं मग़र फिर भी हिंदी-भाषी राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण भी हैं।
पिछले कुछ वर्षों से, भाजपा-आरएसएस उसके राजनीतिक संघर्ष का जो पाठ्यक्रम हिंदी-हार्टलैंड के लिए तैयार करती आ रही है, उत्तराखंड की सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान भी उसके स्रोतो में से एक है; फिर चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो, या कांवड़ यात्रा हो, चारधाम के स्थल हों, या फिर कुछ और, जिसके ऊपर वह अपना एकाधिकार समझने लगी है। देश और प्रदेश की भाजपा-आरएसएस ने इन सभी स्थलों-मेलों और यात्राओं का कुछ इस तरह से राजनीतिकरण कर दिया है कि अब आम व्यक्ति के लिए इन सभी-विषयों पर धर्म, संस्कृति और राजनीति को अलग कर पाना मुश्किल सा हो गया है।
ये सारे स्थान देश व प्रदेश की एक अच्छी बड़ी संख्या को हर वर्ष आकर्षित करते हैं, नतीजतन कई बार इन सबमें राज्य सरकार, स्थानीय प्रशासन और अन्य विभागों द्वारा बनाये गए नियमों-परामर्शों का पालन करने से खुद सरकार व प्रशासन ही इंकार कर देते हैं, क्यूंकि, राज्यों भर से आए हुए श्रद्धालुजन, जो अधिकांशतः, कम से कम मौजूदा वक़्त में भाजपा का वोटर या फिर समर्थक रहता है, कहीं हाथ से फिसल न जाये इस डर से उसको हर तरह की खुली छूट मिलती है। यहाँ के वोटर में भी राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर भाजपा द्वारा इसकी विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान की भावनाओं से ओत-प्रोत कर दिया गया है।
वोटर के पास रहने के लिए घर है या नहीं, वो ग्रामीण जो अभी भी गाँव में बचे हैं उनकी खेती और जगह-जमीन का भविष्य क्या होगा, वो जो अच्छी सुविधाओं की चाह और तलाश में गाँव से पलायन कर देहरादून, दिल्ली या अन्य नगरों-उपनगरों में अपने बचे-खुचे संसाधन इन्वेस्ट कर रहे हैं क्या उसके लिए अच्छी शिक्षा व रोजगार की कोई गारंटी होगी या नहीं, शैक्षणिक संस्थाओं की जो दयनीय स्थिति है वो बदलेगी तो कैसे, समूचे ग्रामीण क्षेत्रों में (चमोली-बद्रीनाथ से लेकर उतरकाशी तक) स्वास्थ्य-सुविधाओं की जो भयंकर लचर स्थिति है वो दुरुस्त होगी तो कैसे, वस्तुओं के दाम लगातार इतनी तेज़ी से बढ़ रहें हैं कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि एक परिवार जिसमें न तो कोई नौकरी-पेशा करता है न दूसरा कोई रोजगार का साधन है वो कैसे दो वक़्त की रोटी कैसे जुटा पा रहा है। उसकी हालत सुधरेगी तो कब और कैसे। शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर अन्य दर्जनों विभागों में हजारों-हजार पद ख़ाली पड़े हैं, डिग्रीधारी-बेरोजगार या तो कोचिंग इंस्टीटूट्स की तरफ मोड़ दिए गए हैं या फिर बिना काम दर-दर भटकने के लिए मजबूर हैं- उनकी ज़िंदगियों में तब्दीली आएगी तो कब और कैसे- लगता है इन सभी प्रश्नों पर अब वोटर ने सोचना बंद कर दिया है क्यूंकि सत्ता के इस सियासी खेल ने उसे उसके जीने की वास्तविक स्थिति से मीलों दूर भटका दिया है।
इस बार के चुनावी मौसम में उत्तराखंड की यही कुछ तस्वीर नजर आयी। एक सफल और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आने वाली सरकार का चुनाव वहां की जनता के मूलभूत मुद्दों और आवश्यक सुविधाओं के ऊपर किसी भी पार्टी के घोषणापत्र यानी उसकी कार्यनीति क्या रहेगी, के आधार पर केंद्रित होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश राज्य में भाजपा और कांग्रेस, दोनों बड़ी सियासी पार्टियों के पास ऐसी कोई व्यावहारिक कार्ययोजना नजर नहीं आई। जिससे पहाड़ के जन-जीवन को एक बेहतर योजना के तहत मूलभूत सुविधाओं से जोड़ा जा सके और पहाड़ के मानव-संसाधन पहाड़ की ही बेहतरी के लिए उपयोग किये जाएँ। कांग्रेस द्वारा जो घोषणापत्र चुनाव के लिए तैयार किया गया था, पार्टी उस घोषणापत्र पर जनता का ध्यान केंद्रित करवाने में पूरी तरह से असफल रही। वहीं दूसरी ओर, भाजपा अन्य जगहों की तरह यहाँ भी बिना जनता के मुद्दों के, और महज समीकरणों के हेर फेर से ही बाजी मार गयी। केंद्र की कुछ चल रही इंफ्रास्टक्टर निर्माण की योजनाओं के अलावा भाजपा के पास तो उत्तराखंड राज्य की आवाम के लिए किसी भी तरह की कोई नीति या योजना इस पूरे चुनाव में दिखी नहीं। ठीक इसके उलट, आरम्भ में भाजपा ने तो हरिद्वार में तथाकथित 'धर्मसंसद' का आयोजन करवाकर माहौल का साम्प्रदायीकरण व ध्रुवीकरण करने की पूरी कोशिश की, लेकिन कम से कम उत्तराखंड में तो इसका कोई खास असर नहीं हुआ, मग़र फिर भी जितना भी हुआ उसके पक्ष में ही हुआ। अर्थात, इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि जो विशेषज्ञता भाजपा-आरएसएस ने अद्भुत सोशल इंजीनियरिंग करते हुए चुनावी राजनीति में हासिल की है उसका मुकाबला कर पाने की राजनैतिक क्षमता अभी तक विपक्ष की किसी भी पार्टी में नहीं दिखती।
गुमराह करने की यह सारी राजनीतिक प्रक्रिया एक वोटर को उसकी वास्तविक समस्या से मीलों दूर ले जाती है और साथ ही साथ अपने राजनीतिक एजेंडे की प्राप्ति के लिए उसका कुछ इस तरह से मैन्युफैक्चरिंग करती है कि भाजपा का राजनीतिक एजेंडा उस व्यक्ति के एजेंडे में तब्दील कर दिया जाता है। यानी एक व्यक्ति या नागरिक को महज एक वोटर के रूप में कम कर दिया गया है, उससे उसके नागरिक होने की सोच व अधिकार छीन लेना, उसे वास्तविकता से दूर अति-वास्तविक दुनिया में ले जाकर झूठ के अंधेरों में जुगनुओं की लौ दिखाकर रौशनी कायम होने का विश्वास दिलाना कोई मामूली सजा नहीं है।
यह एक नागरिक, जो अब सिर्फ वोटर में तब्दील कर दिया गया है, को सजा है जिसके दर्द का असर उसकी पीढ़ियों तक रहेगा। लेकिन भाजपा द्वारा बिना कोई व्यावहारिक एजेंडे के, साथ ही पहचान की राजनीति के हर पहलू को एक्सप्लॉइट करके, ध्रुवीकरण को मुख्य हथियार बनाकर सत्ता को वापस हासिल करना, और सबसे महत्वपूर्ण कि पहाड़ की वास्तविक समस्याओं को बिना सम्बोधित किये सत्ता को प्रचंड बहुमत से बरक़रार रखने की जमीनी हकीकत एकतरफ़ा न होकर बहुतरफा भी हैं। इसमें पहला तो है कॉर्पोरेट हाउस (स्थानीय और नेशनल दोनों स्तर पर) द्वारा भाजपा के पूरे पोलिटिकल एपरेटस पर बेलगाम पूँजी लगाना, दूसरा है भाजपा-आरएसएस का सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से बेजोड़ और अद्भुत तरीके से संगठित होना। मग़र कॉर्पोरेट-सांप्रदायिक ताकतों के गठबंधन की जीत पर, इन दोनों घटकों के साथ ही एक तीसरा मुख्य घटक है वह है विपक्षी ताकतों की असंगठित ऊर्जा व कार्यनीति, अयोग्य नेतृत्व, विरोध करने जैसा सिर्फ शोरगुल दिखाना मगर गम्भीरता की गंभीर कमी।
कांग्रेस को 2014 के लोकसभा और उसके बाद विभिन्न प्रदेशों में हुए विधानसभाओं चुनावों के उपरान्त देश और प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में बनाये रखने के लिए राजनीति से प्रेरित मीडिया के नेतृत्व वाले नैरेटिव को अब बदल देना चाहिए। क्यूंकि कांग्रेस विपक्ष की भूमिका निभाने में न सिर्फ पूरी तरह फेल हुई है बल्कि इससे दूसरे दलों को भी, (विशेषकर लेफ्ट पार्टियों को) मीडिया जगत में कोई खास जगह नहीं मिल पाई है जिन्होंने जनता के मुद्दों पर लगातार कुछ न कुछ जमीनी संघर्ष छेड़े हैं।
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कांग्रेस के भीतर नेतृत्व के संकट के उदाहरण यहीं से मिल जाते हैं कि हाल में हुए पाँचों राज्यों के चुनावों में इसका पतन जारी रहा। सफल नेतृत्व के साथ साथ सफल योजना और कार्यनीति की गहरी कमी पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तरप्रदेश में से विशेषकर उत्तराखंड में रही। जहाँ पिछले चुनाव के मुकाबले इसको थोड़ी बहुत बढ़त भी मिली। तो क्या कांग्रेस को उत्तरप्रदेश की बजाय उत्तराखंड पर ही अपना ध्यान और ऊर्जा केंद्रित करनी चाहिए थी, जहाँ एक तो सत्ता-विरोधी मनोभाव जबरदस्त तरीके से मौजूद था और दूसरा जहाँ भाजपा के पास भी सफल नेतृत्व की भारी कमी थी। यह कमी तभी प्रदर्शित हो गयी थी जब एक ही अवधि में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को बदलना पड़ता है, और तत्पश्चात चुनाव में लगभग केंद्रीय नेतृत्व को ही राज्य में भाजपा की बागडोर संभालनी पड़ती है।
मौजूदा हालात में राजनीतिक और आर्थिक संकटों की विकट परिस्थितियों में जहाँ भाजपा के असफल नेतृत्त्व एवं कुशासन के विरोध में आम जनता के बीच गहरा रोष एवं नाराजगी रही, राज्य की सभी विपक्षी पार्टियां आमजन के रोष को संगठित कर पाने में और उसको चुनाव में एक आकार दे पाने में पूरी तरह नाकामयाब रहीं। उत्तराखंड क्रांति दल (यू.के.डी.), जो राज्य का एकमात्र मुख्य क्षेत्रीय दल है, और जिसके पास राज्य के लिए विशिष्ट दर्जे, पहचान, राज्य में संसाधनों की लूट के खिलाफ और इसके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उत्थान के लिए एक प्रौढ़ सोच और नीति होनी चाहिए, यह सोच और दृष्टि उसकी पॉलिटिक्स से पूरी तरह गायब है। परिणामस्वरूप, यह दल दो बड़ी सियासी पार्टियों के सियासी खेल के बीच सिर्फ अपना अस्तित्व सँभालते हुए नजर आता है। कांग्रेस और इसके वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने जिस उत्तराखण्डियत को बचाने और बनाने से लेकर भू-कानून पर काम करने की हलकी-फुलकी इच्छा अपने घोषणापत्र में जताई, यह भी भाजपा के दांव-पेच, चुनावी चालबाजियों के बीच जनता के दृष्टि से दूर रही, और साथ ही साथ जनता कहीं न कहीं कांग्रेस की भी असली मंशा जान चुकी है कि गर कांग्रेस को तथाकथित उत्तराखण्डियत और राज्य के लिए भू-कानून पर अमलीजामा पहनाना होता तो पिछले कई वर्षों तक जब कांग्रेस का शासन रहा, तब उसने ऐसा क्यों नहीं किया?
पिछली सरकार में भाजपा द्वारा मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को बदलने की जो उठापटक हुई, पिछले दो सालों में जो कोविड महामारी के चलते, भाजपा की जनविरोधी नीतियों और इसके कुशासन के कारण जनता के रोजमर्रा के असली मुद्दों को दरकिनार करते हुए सिर्फ वोट जोड़ने की नीति रही, इसके कुशासन और जनता के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में कांग्रेस को जिस तरह से आम जनता को भाजपा की जन-विरोधी कृत्यों के खिलाफ जनता को लामबंद करना चाहिए था, इस पूरी जिम्मेदारी से कांग्रेस खुद को लगभग पीछे की पंक्ति में ही रखे रही। असल बात यह कि जनसंघर्ष कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र में शामिल ही नहीं है।
जनपक्षीय मुद्दों पर जनसंघर्ष के लिए अक्सर जाने जाने वाले लेफ्ट राजनीतिक पार्टी संगठनों के भीतर भी यहां गंभीरता की कमी देखने को मिलती है। पहला तो यह कि राज्य के गठन के बाद जिस तरह से सभी योजनाएं, सरकारी नीतियां एवं संसाधन सिर्फ राजधानी देहरादून में केंद्रित होकर रह गयीं हैं, और जिस प्रकार से पहाड़ की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की समस्याओं की सभी सरकारों द्वारा अवहेलना हुई है, पहाड़ की खेती-बागवानी का खात्मा हो चला है, इसके ऊपर लेफ्ट पार्टियों को साफ़ विज़न, योग्य संगठन और निर्णायक संघर्ष खड़ा करने की आवश्यकता है।
दूसरा, अधिकांश जिलों में गांव के स्कूलों, कॉलेजों की हालत जर्जर है, कहीं पर भवन नहीं हैं, कहीं शिक्षक व गैर-शिक्षक कर्मीं नहीं, कहीं जरुरी कोर्सेज नहीं, तो कहीं पढ़ाई नहीं। स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत पर नजर दौड़ाई जाए तो पाते हैं कि आमजन के भीतर इन मसले पर इतना रोष पैदा हुआ है कि या तो वह खुद के नसीब को कोसने लगे हैं या फिर राजनीतिक अभिजात वर्ग के राजधानी के मोह के इस कुचक्र को। बद्रीनाथ, चमोली, घाट, घूनी, थराली, गैरसैण, बदियासेम, रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग, देवाल, पौड़ी, धूमाकोट जैसे सैकड़ों ऐसे हलके हैं जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर जमीनी हकीकत यह है कि लोग एक महिला को प्रसव-पीड़ा के समय आयी कोई इमरजेंसी में भर्ती करने का रिस्क नहीं लेना चाहते, लेकिन संसाधनों के आभाव में उसे उसे महिला की जिंदगी को आखिर वहीँ पर दांव पर लगाना पड़ता है।
मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग तो खांसी-जुखाम लगने पर भी सीधे मैक्स, जॉलीग्रांट जैसे महंगे प्राइवेट हॉस्पिटलों की तरफ दौड़ जाते हैं, मगर गाँव का ग्रामीणवासी को जिसमें कई बार उसकी जान को भी कुछ खतरा बन पड़ता है, अपना इलाज अपने ही क्षेत्रों में जहाँ न जरुरी उपकरण और विशेषज्ञ मौजूद हैं, करवाना पड़ता है। इन सभी मसलों और रोजगार के साधनों की भारी कमी होते हुए, पहाड़ के भीतर रोजगार निर्मित करने की कोई ठोस नीति न तो सरकार की रही न ही आम जनता के इन सभी सवालों पर लेफ्ट पार्टियां खुलकर सम्बोधित कर पायीं हैं।
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पहाड़ के भीतर जनजीवन त्रस्त होने के कारण जहाँ आम व्यक्ति के अंदर खासा रोष है, न ही उसकी दशा दुरुस्ती की सरकार के पास कोई अच्छी नीति व नीयत है, तो वहीं दूसरी ओर कॉर्पोरेट वर्ग के लिए हर वो रास्ते, दरवाजे, खिड़कियां सरकार ने खोल रखीं हैं जिसके माध्यम से वो उसी पहाड़ के संसाधनों को धड़ल्ले से एक्सप्लॉइट कर भारी मुनाफा कमाता है। इसके साथ ही, पिछले दो सालों का राज्य की जनता का अनुभव सभी प्रदेशों जैसा कड़वा ही रहा, न सिर्फ कोविड से उपजी अव्यवस्था के कारण बल्कि सरकार के कुप्रबंधन और कुशासन के कारण भी। जब गाँव में मनरेगा का काम भी ठप हो चुका था, दिहाड़ीदारों के दिहाड़ी कमाने के सारे जरिये बंद कर दिए गए थे, मजदूर-दिहाड़ीदार, छोटा कामगार, छोटा किसान, खेतिहर मजदूर, और छोटा व्यापारी- इन सभी वर्गों के लिए दो वक़्त की रोटी का सवाल, बच्चों की शिक्षा, परिवार के सदस्यों की स्वास्थ्य की जिम्मेदारी और चार पैसे दिहाड़ी कमाने की चुनौती सबसे अहम थी, इनके लिए सरकार का तंत्र पूरी तरह फेल रहा।
लॉकडाउन की स्थिति सामान्य होने के उपरान्त भी सभी विपक्षी पार्टियों की जो भूमिका इन सभी वर्गों का नेतृत्व करने में होनी चाहिए थी, उसके साथ संपर्क साधने की जो प्रक्रिया राज्य भर में होनी चाहिए थी, उस सभी में पूरी तरह असफल रहे। लगभग विपक्षी पार्टियों के नेता घरों-दफ्तरों में बैठकर फेसबुक और ट्विटर पर ट्रेंड करते रहे, और अभियान और आंदोलनों के नाम पर इंटरनेट पर शोरगुल करते रहे जिसे वो सभी दलित, शोषित, और वंचित तबके के लोग न देख सकते थे न सुन सकते थे क्यूंकि उसके पास तो मीडिया, दूरसंचार और इंटरनेट कनेक्टिविटी का कोई आधुनिक उपकरण भी तो मुश्किल से था। वहीं दूसरी तरफ भाजपा-आरएसएस का एपरेटस सोशल इंजीनियरिंग करने में और वोटर का निर्माण करने में बेपरवाह लगा हुआ था। अर्थात, भाजपा की एक ही नीति एक ही मकसद देखने को मिला वो था चुनावी दंगल के लिए वोटर का निर्माण करना और लगभग इसी उद्देश्य पर ही इसकी सारी कार्यनीति केंद्रित रही।
आज जब हम राज्य में विधानसभा चुनावों के नतीजों का अध्ययन और विश्लेषण कर रहे हैं तो चौंकने या हैरान होने वाली कोई प्रतिक्रिया देना बेमानी है। जब सख्त लॉकडाउन के बीच राज्य के अवाम का एक बड़ा हिस्सा घरों में कैद बेहाल था, उस वक़्त विपक्षी पार्टियों को सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पर ट्रेंड करने की बजाय जनता के दर्द को लेकर सरकार व् प्रशासन को घेरने से नहीं हिचकना था, अपितु उस समय असंगठित क्षेत्र के उन सभी वर्गों के पास पहुँचने और तमाम मजदूर वर्गों से सम्बन्ध स्थापित करने और सत्ता-विरोधी रोष को संगठित करके भाजपा सरकार की नीतियों और नियतों के खिलाफ मोड़ने, उसे भाजपा की अयोग्यता और उसकी कॉर्पोरेट-परस्त नीयत के खिलाफ जगाने, और उसे उसके हकों-अधिकारों के लिए संगठित करने की जरुरत थी। जब जनता सभी प्रकार के संकटों से जूझ रही थी, भाजपा जनता के प्रति अपना दायित्व न निभाकर मुख्यमंत्रियों को अंदर-बाहर करने और चुनाव की भीतरी तैयारियों में व्यस्त थी, सारा विपक्ष उस समय भी एकजुट होकर सरकार को घेरने और उसका ध्यान उसके असली दायित्व पर केंद्रित करवाने में असफल रहा।
बावजूद इसके, सच तो यह है कि भाजपा उसकी अयोग्यता और कुप्रबंधन के चलते भी बेफिक्र लोगों के बीच अलग-अलग तरीकों से पहुँच कर उन्हें यह आभास करवाते रहे कि 'सब कुछ चंगा सी', और वहीं दूसरी ओर विपक्ष नाराज जनता के एक विशाल हिस्से से कटे रहे। विपक्ष का जनता के एक बड़े हिस्से से संपर्क स्थापित न होना, उसकी रोजमर्रा की समस्याओं को सम्बोधित करने के नाम पर खाना-पूर्ति करना, उसके अंदर वर्ग-चेतना का निर्माण करने की जिम्मेदारी न निभाना, हिंदुत्व की सत्ता और पूंजी के अभूतपूर्व गठजोड़ के खिलाफ उठने और सत्ता-परिवर्तन के लिए उसे न जगाना और न तैयार करने का ही नतीजा है दस तारीख़ के नतीजे। इसे हिंदुत्व की जीत न कहकर विपक्ष की विफलता कहा जाये तो ज्यादा उचित रहेगा।
राज्य के भीतर लेफ्ट पार्टियों समेत सभी सोशलिस्ट, धर्मनिरपेक्ष व लोकतान्त्रिक ताकतों को राज्य के भविष्य के लिए अपनी सही नीति तय करने की जरुरत है। जनता के हर हिस्से को जन-विरोधी सत्ता और पूंजीवादी-नवउदारवादी हमलों के बारे, उसके अंदर वर्ग चेतना को विकसित करने, और श्रमिकों के इन सभी असंठित वर्गों को संगठित कर, उसका सफल प्रतिनिधित्व करने की सख्त जरुरत है। भाजपा सरकार के हर उस जन-विरोधी फैसले और शासन के मनमाने रवैए और कार्य का डटकर मुकाबला करने तथा इन सभी परिस्थितियों का ठोस अध्ययन और ठोस विश्लेषण करके ठोस कार्यनीति ईजाद करने के साथ-साथ अपनी कार्य-क्षमता को भी बढ़ाने की जरुरत है। बुर्जुआ लोकतंत्र के अंदर जनता को सिर्फ सत्ता-परिवर्तन के लिए नहीं बल्कि एक निर्णायक सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिए भी तैय्यार किया जाना चाहिए। मगर यह संघर्ष भाजपा-आरएसएस के व्यूहकौशल और पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा संचालित संसदीय तिकड़म को समझे बिना खड़ा नहीं किया जा सकता। इसके कार्य करने के नवीन तरीकों, पद्दतियों की समझ होना और उसका उपयोग, अपनी कार्ययोजना को सुदृढ़ करना और निरंतर बदलते पोलिटिकल कल्चर को कुशलतापूर्वक समझना और उसके अनुसार कार्य करना आज के समय की मांग है। क्यूँकि, परम्परागत राजनीति के समाप्त होने के साथ-साथ वर्तमान की राजनीति का विश्लेषण परम्परागत दृष्टि व दृष्टिकोण से नहीं किया जाना चाहिए।
अर्थात, कांग्रेस के हरीश रावत जैसे वरिष्ठ, दिग्गज नेता का इतने बड़े अंतर से पीछे रह जाना, भाजपा के मौजूदा मुख्यमंत्री स्वयं पुष्कर सिंह धामी का हार जाना, अनाड़ी निर्दलीय उम्मीदवारों, जैसे खानपुर सीट से उमेश कुमार द्वारा भाजपा के मौजूदा विधायक को अच्छे अंतर से मात देना, केजरीवाल के दिल्ली मॉडल की खासी चर्चा के बावजूद राज्य की जनता द्वारा आम आदमी पार्टी में कोई खासी दिलचस्पी न दिखाना, कई विधानसभाओं में जनता द्वारा कांग्रेस-भाजपा और अन्य सभी दलों से विमुख होकर भारी संख्या में नोटा के तहत अपना मत सुनिश्चित करना, हरिद्वार ग्रामीण सीट से दिग्गज माने जाते रहे कैबिनेट मिनिस्टर यतीश्वरानंद को पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की बेटी और कांग्रेस की बिलकुल अनाड़ी उम्मीदवार अनुपमा रावत द्वारा 4472 वोटों से पछाड़ देना, मगर स्वयं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल का बहुत कम, 587 वोटों से मगर पराजित होना, तथा इसके साथ-साथ सहसपुर जैसी विधानसभा क्षेत्र में जहाँ चालीस से पचास हज़ार की भारी संख्या में मुसलमान मतदाता होते हुए भी अपनी ही कम्युनिटी (धार्मिक दृष्टि से) के एक उम्मीदवार, जनाब कमरुद्दीन जो माकपा के उम्मीदवार थे, का भारी मतों से पीछे रह जाना और सहदेव सिंह पुंडीर जोकि भाजपा के उम्मीदवार थे, को जनादेश मिलना, और मीडिया द्वारा निर्मित गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे कई मिथकों की कम से कम नीवें हिला देना- इन सभी संकेतकों का कुशलता से ठोस अध्ययन और विश्लेषण होना चाहिए।
इन तमाम संकेतों से निकलती कई संभावनाओं के बीच कॉमन चीज़ यह है कि आज का वोटर उस परम्परागत वोटर जैसा नहीं रहा जो किसी खास पार्टी या नेता चाहे वो कितना भी दिग्गज क्यों न रहा हो, में अनकंडीशनल श्रद्धा या विश्वास रखता हो, बल्कि वह निरंतर अपनी राजनीतिक स्थिति व दृष्टिकोण उसके इर्द-गिर्द बदलती राजनीति एवं भौतिक परिस्थितियों के अनुसार बदलने में संकोच नहीं करता। उसकी ऊर्जा, गतिशीलता और निरन्तर परिवर्तनशीलता को यदि सही दिशा में सामाजिक बदलाव की तरफ नहीं मोड़ा जाता है तो उसका उपयोग ठीक इसके उलट भाजपा जैसी बुर्जुआ समर्थित दक्षिणपंथी पॉपुलिस्ट पार्टियों द्वारा एक खास मकसद, समाज-विरोधी कार्य के लिए भी एक्सप्लॉइट किये जाने का डर कायम रह सकता है। बहरहाल, इस वक़्त वाम दलों समेत अन्य सभी विपक्षी दलों को गंभीरता से चुनावों की ठोस समीक्षा करने की जरुरत है और सामाजिक न्याय के इस अभूतपूर्व संघर्ष में अपनी निर्णायक भूमिका सुनिश्चित करने की भी।
(लेखक गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय से साहित्य में पीएचडी की पढ़ाई कर रहे हैं।)
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