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बिहारः लघु उद्योग सिंहोरा ख़त्म होने के कगार पर

चंपारण के कारीगरों के सामने गंभीर संकट पैदा हो गया है। पैसे की कमी के चलते ये उद्योग समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुका है।
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कारखाना में तैयार किया गया ये सिंहोरा जल्द ही डीलर को भेज दिया जाएगा।

आसमान छू रही प्याज़ की क़ीमत के चलते लोगों ने अपने खाने में इसके इस्तेमाल को कम कर दिया है। कई लोग तो काफी समय से प्याज़ नहीं खा रहे है। इन्हीं लोगों में से एक उत्तर बिहार के पश्चिम चंपारण ज़िले के बुजुर्ग जतन ठाकुर जो लकड़ी पर नक्काशी करते हैं वे कहते हैं, "हमें प्याज चखे हुए कई हफ्ते हो गए हैं।" ठाकुर अपने इस पारंपरिक काम और 2.5 कट्ठे में अनाज उपजा कर चार लोगों के परिवार का पालन पोषण करते हैं। वे आगे कहते हैं, "मैं अमीर नहीं हूं, बबुआ।" ठाकुर कहते हैं, "सब्जियां आजकल महंगी हैं, मैं अपनी थोड़ी आमदनी में इसे कैसे ख़रीद सकता हूं?"

sinhora 2_1.jpg कारीगर जतन [बाएं] एक मध्यम आकार का सिंहोरा तैयार कर रहे हैं। कारखाना के मालिक बबलू प्रसाद यहां पहले तैयार किए गए सिंहोरा को दिखाते हुए।

आसमान छू रही प्याज़ की क़ीमतों ने प्रसाद जैसे ख़रीदारों को दूर रखा है। वे कहते हैं, “दशहरा और दिवाली के बीच मीट की दुकानों में लोगों की भीड़ होती है। हम महीने में एक बार ही चिकन ख़रीद सकते हैं। कल मैंने एक लौकी 30 रुपये में ख़रीदा है।” शायद ही कभी वे अपने परिवार की पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा कर पाते हैं। वे आधिकारिक पर घोषित ग़रीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे जी रहे हैं और उन्हें उचित मूल्य की दुकान से 20 किलो चावल ही मिल पाता है। लेकिन वह अपर्याप्त है और वे आम बाज़ार से भी अनाज खरीदते हैं। वे सरकार से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के ज़रिए सब्जी वितरण शुरू करने का आग्रह करते रहे हैं ताकि ग़रीब लोग अपने बुनियादी खाद्य ज़रूरतों को पूरा कर सकें।

हर दिन ठाकुर साइकिल से अपने गांव परसा-गिरि टोला के पुरानी गुदड़ी इलाके में लकड़ी से बनी चीज़ों को बेचने के लिए जाते हैं। इलाक़े के अन्य शिल्पकारों की तरह वे बबलू प्रसाद के कारख़ाना में काम करते हैं। यह एकमात्र कारख़ाना जो अभी भी क़ायम है। वे सिन्होरा (लकड़ी का बक्सा) बनाते हैं जिसमें हिंदू विवाहित महिलाएं बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सिंदूर रखती हैं।

ठाकुर खुद को एक प्रतिभाशाली कारीगर के रूप में नहीं बल्कि एक मजदूर के रूप में देखते हैं। काफी कठिन समय है। वे कभी भी स्कूल नहीं गए, और उन्हें पता नहीं है कि उनकी उम्र क्या है, लेकिन सरकार से 400 रुपये प्रति महीने वृद्धावस्था पेंशन हासिल करने की लिए उन्होंने अपने ग्राम पंचायत में कुछ काग़ज़ात जमा किए हैं। इस पर काम होना अभी बाकी है।

ठाकुर का संबंध हजाम जाति से है और उन्होंने कभी भी अपनी जाति से जुड़े काम में दिलचस्पी नहीं ली। लेकिन विरासत में मिला उनका कोई ऐसा धंधा भी नहीं था जिसे वे करते। इसलिए, वे निर्माण और कृषि मज़दूर के रूप में काम करते रहे। तब उन्होंने स्थानीय परंपरा की शैली में लकड़ी की छोटी मूर्तियों को उकेरना सीखा। तब से पुरानी गुदड़ी उनका अड्डा बन गया और वे वहां जाने लगे।

सरकार ने इस इलाक़े में स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में प्रत्येक परिवार को भूमि रखने को लेकर एक सीमा तय कर दिया था। इसका उद्देश्य कृषक, भूमिहीन और ग़रीबों के बीच भूमि का पुनर्वितरण करना था। लेकिन ठाकुर को कोई मदद नहीं मिली क्योंकि इस योजना को गंभीरता से लागू नहीं किया गया था। उनका गांव बरहरवा-योगपति-गिरि टोला नामक बस्तियों के एक समूह का हिस्सा है जो कुलीन जाति के मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहारों के प्रभुत्व वाला है। इन समुदायों के सदस्य ज़्यादातर भूमि के मालिक हैं।

मशहूर फिल्म निर्माता प्रकाश झा का संबंध इसी गांव से है और वे भी ठाकुर हैं। उन्होंने इस क्षेत्र में एक चीनी मिल स्थापित करने का प्रयास किया था और कहा जाता है कि कम क़ीमत पर स्थानीय भूखंडों का अधिग्रहण किया है। लेकिन दस साल बाद भी इस मिल का काम शुरू नहीं हुआ है।

11_1.JPGऊपर बाएं से नीचे दाएं तक: 1. लकड़ी के टुकड़े को शाफ्ट पर कसकर लगाते हुए। 2. कारीगर छेनी या रुखानी की मदद से लकीरें खींचते हुए। 3. सिंहोरा के पल्ला या ऊपरी हिस्से को तराशने के बाद, टेर्री या पेनी या कंटेनर वाले हिस्से को रुखानी से उकेरते हुए। 4. अगले चक्र के लिए शाफ्ट को साफ करते हुए।

स्थानीय लोगों का मानना है कि सिन्होरा एक ऐसी चीज़ है जिस हर विवाहित महिला को रखना पड़ता है। हिंदू समाज में शादियां इसके बिना अधूरी रहती हैं। हालांकि, लोकगीत में इसके शामिल होने से पता चलता है कि ये काफी पुराना है। ठाकुर का इलाक़ा कभी लाह, या लाह के कैरमाइन रंग से पहचाना जाता था। इस इलाक़े में कभी सिंहोरा चौराहा होता था, जिसका नाम इलाक़े के प्रमुख व्यापार और शिल्प के नाम पर रखा गया था।

कुछ साल पहले कम से कम आधा दर्जन सिंहोरा का कारखाना था लेकिन अब केवल एक ही कारखाना बबलू प्रसाद का है। अन्य कारखाने वित्तीय संकट के चलते ख़त्म हो गए। कभी गर्व दिलाने वाला उद्योग अब समाप्त हो चुका है।

45 वर्षीय प्रसाद के संबंध तेली जाति से है जो पारंपरिक रूप से तेल निकालने का काम करने वाले हैं। उन्होंने पाया कि ये पेशा "मुनासिब" नहीं था और अपने दादा के समय में ही सिंहोरा बनाने के काम में लग गए। 1970 के दशक में इलेक्ट्रो-मैकेनिकल वर्कस्टेशनों की शुरुआत की गई और बबलू ने अपने व्यवसाय का विकास और विस्तार किया और नक्काशी की मांग को पूरा किया। अब इस व्यापार में भी तेज़ी से गिरावट आ रही है।

प्रसाद कहते हैं, ''इस तकनीक ने निश्चित रूप से हमारी मदद की लेकिन हमारे कच्चे माल, लाह और आम की लकड़ी की बाजार क़ीमतें भी बढ़ गई हैं।" वे आगे कहते हैं, "सिंहोरा की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं लेकिन उन्हें बनाने की बढ़ती लागत को पाया नहीं जा सकता है।"

क़रीब दस साल पहले आम की लकड़ी 200 रुपये प्रति क्यूबिक फीट में बेची जाती थी। अब इसकी क़ीमत 400 रुपये प्रति क्यूबिक फीट है। लाह की क़ीमत में उतार-चढ़ाव आया है। इस साल यह 400 रुपये प्रति किलो के निचले स्तर से बढ़कर 1,000 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गया।

सिंहोरा निर्माताओं का क़िस्मत पश्चिम अफ्रीका के कोको किसानों से बहुत अलग नहीं है जिसे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अफ्रीकी अध्ययन केंद्र के शोधकर्ता माइकल ई ओडिजिए की टिप्पणियों से समझा जा सकता है। कोको किसानों की तरह सिंहोरा निर्माताओं का क़ीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं है। वे दूसरे के बनाए हुए क़ीमत ही केवल लेते हैं।

प्रसाद कहते हैं, '' हम एक साल में नौ महीने तक एक दिन में दर्जनों सिंहोरा बनाते हैं, लेकिन उन्हें कम क़ीमतों पर दुकानदारों को बेचना पड़ता है।'' छोटे पैमाने के इस व्यवसाय से उच्च उत्पादन लागत और कम लाभ ने उत्पादकों को निराश किया है। इलेक्ट्रोमैकेनिकल वर्कस्टेशन में 10 लीटर डीजल की आवश्यकता होती है जिसकी लागत प्रतिदिन 600 रुपये होती है। इस इलाक़े में अक्सर बिजली सप्लाई नहीं होती है। इस कारखाने में कारीगर प्रतिदिन 300 से 500 रुपये कमाते हैं। नूर कहते हैं, "जब खुद संकट का सामना करना पड़ रहा है तो बबलूजी कैसे ज़्यादा मज़दूरी दे पाएंगे।"

नूर मियां गुणवत्ता की जांच कर रहे है। लकड़ी की चिकनाई से संतुष्ट होकर वह सिंहोरा पर लाह लगा रहे है। इस तरह वे अंतिम रुप दे रहे है।

प्रसाद ने लघु उद्योगों के लिए सरकारी योजनाओं से लाभ उठाने का प्रयास किया लेकिन वे सफल नहीं हो पाए। वे कहते हैं, “मैं आधिकारिक तौर पर अपने कारखाने के पंजीकरण की प्रक्रिया का पता लगाने के लिए कई बार ब्लॉक कार्यालय गया। अधिकारियों ने हमेशा मेरी मदद करने से इनकार किया। वे केवल कहते कि ये प्रक्रिया ऑनलाइन हो गई है।” उन्होंने ज़िले की वेबसाइट को खंगाला लेकिन पंजीकरण करने वाला पोर्टल नहीं मिल पाया।

नतीजतन उनके उदयोग को "मान्यता" नहीं मिली है और विकसित करने के लिए ऋण का लाभ भी नहीं उठा सकते हैं। पंजीकरण कराने की कोशिश शुरू करने के लगभग चार साल बाद वह ख़त्म होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।

ख़ास तौर से आर्थिक तंगी के कारण प्रसाद मैट्रिक से आगे की अपनी पढ़ाई नहीं कर सके लेकिन अपने बच्चों आरोही और खुशी जो कक्षा 6 और 3 में पढ़ रहे हैं उन्हें पढ़ाना चाहते हैं। लेकिन उसकी आमदनी कम हो गई है और उन्हें 5% के मासिक ब्याज दर पर क़र्ज़ लेना पड़ता है। वे कहते हैं, "इनके भविष्य की शिक्षा के बारे में सोचने पर मुझे डर लगता है।" प्रसाद का बेटा जसवंत 10 वीं कक्षा में पढ़ता है। उसका भाई जसवंत की शिक्षा के लिए 300 रुपये प्रति माह देता है।

हर एक सिंहोरा को रंग और आकार देकर मुकम्मल करने में क़रीब बीस मिनट का समय लगता है। जतन को कुछ ज़्यादा समय लगता है फिर भी अधूरा रहता है और ये काम नूर मोहम्मद के पास जाता है जो पारंपरिक बढ़ई है और इस काम को पूरा करते हैं। पान खाते नूर इस काम को पूरा करने की तैयारी करते हैं। वह घूमते हुए मशीन पर हर एक सिंहोरा को लगाते हैं और रुखानी हाथ में लेते हैं और आकार देने के लिए रुखानी को लकड़ी पर इधर उधर घुमाते हैं। इस तरह वे इस रूखानी और अपनी कौशल की मदद से लकड़ी पर तरह तरह का आकार देते हैं। इसके बाद वे इस पर पॉलिश करते हैं। इलेक्ट्रोमैकेनिकल वर्कस्टेशन लकड़ी के सिलेंडरों को तराश नहीं सकता है, इसलिए ये प्रक्रिया पूरी तरह से मैनुअल तरीके से होता है।

कुमारबाग इलाके के पकडीहाहा गांव में नूर का अपने घर में एक सिंहोरा बनाने का कारखाना भी है। लेकिन उनके पास अपनी कारखाने को चलाने के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं है, इसलिए वे इस कारखाने में मज़दूर के तौर पर काम करते हैं। उनके तीन बेटे होदा, अली और कुरेश रोज़ाना बढ़ई का काम करके अपना घर चलाते हैं।

ये लड़के राज्य के बाहर काम करते हैं। वे कश्मीर में करते हैं। नूर कहते है कि वे ज़्यादा कमाते हैं, अगर उन्हें ज़्यादा पैसे नहीं मिलेंगे तो घर से दूर जाने का कोई फायदा भी नहीं है।

प्रसाद और श्रमिकों ने इस कारीगरी को हाशिए पर धकेलने के लिए वित्तीय संकट को जिम्मेदार ठहराया। उन्हें लगता है कि "दिल्ली हाट जैसा बाज़ार" स्थानीय मांग को पूरा कर सकता है। अगर उनके पास ऐसा बाज़ार होता तो वे ग्राहकों में इस काम को लेकर दिलचस्पी पैदा करने के लिए इस कारिगरी को और बेहतर करते। वह कहते हैं कि सरकार ने बिहार के मैथिल क्षेत्र से चित्रों की मधुबनी शैली को केवल बढ़ावा दिया है। इसमें पश्चिम चंपारण का ज़िला आता है। प्रसाद कहते हैं, ''क्या सिंहोरा कोई कला और शिल्प नहीं है।"

छह बिहारी हस्तशिल्प को जियोग्रैफिकल इंडिकेटर या जीआई टैग मिला है, जिसमें पश्चिम चंपारण के थरुहाट क्षेत्र का सिक्की ग्रास वर्क शामिल है। दिलचस्प बात ये है कि सबसे प्रसिद्ध सिक्की ग्रास उत्पाद एक अलग प्रकार का कंटेनर है जिसे सिंदूर को रखने के लिए दुल्हन को उपहार में दिया जाता है। हालांकि, भारत सरकार सिंहोरा को हस्तकला के रूप में मान्यता नहीं देती है। इसके अलावा, प्रसाद और इन कारीगरों ने जीआई टैग या इसके महत्व के बारे में कभी नहीं सुना है।

प्रसाद कहते हैं, "कुछ साल पहले, एक पूर्व ज़िला मजिस्ट्रेट की पत्नी ने यहां की लकड़ी से बनी वस्तु को ख़रीदा था।" यह ज़िला प्रशासन की तरफ से आए लोग की यह सहायता या दौरा उनकी एकमात्र स्मृति है। किसी भी योजना या कार्यक्रम ने कभी उनकी मदद नहीं की।

प्रसाद के क़रीबी रिश्तेदार 32 वर्षीय सुनील प्रसाद के पास सिंहोरा का एक कारख़ाना है जो यहां से ज़्यादा दूर नहीं है। अब वे सिर्फ एक मज़दूर है। वे कहते हैं, "मैंने उत्पादन बंद कर दिया क्योंकि मुनाफा अच्छा नहीं था।"

12_0.JPGसुनील प्रसाद

वह चार मिनट में एक सिंहोरा तैयार कर देते हैं और जब पूरा हो जाता है तो इसका बाज़ार मूल्य 100 रुपये होता है। इस कारख़ाने में बने पांच अलग-अलग साइज के सिंहोरा 100 रुपये से लेकर 300 रुपये तक के हैं। लेकिन खुदरा विक्रेता जब बेचते हैं तो उनकी क़ीमतों को दोगुना कर देते हैं।

सुनील के पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा है और उनके कारखाने ने कभी उनके रहने के आधे जगह को अपने क़ब्जे में ले लिया था। वे कहते हैं, "जगह की कमी ने भी मुझे कारखाने को बंद करने के लिए मजबूर कर दिया।" उनके साथ बूढ़ी मां, पत्नी और तीन बच्चे रहते हैं। उनके बच्चे स्कूल जाते हैं जबकि वे मेहनत करके मामूली पैसा कमा पाते हैं। लकड़ी की नक्काशी में उनका कौशल बेहतर है। अन्य कारीगरों की तरह वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं।

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