ब्रिगेड की अनुगूंज और उसे दबाने के लिये फुस्स पटाखे
अत्यंत भोले होते हैं वे जो राजनीति को संयोगों और संभवों की कला मानते हैं । समझते हैं कि अचानक से कुछ घटता है और चतुर राजनीतिज्ञ वह है जो उसे अपने हिसाब से दुहता है । राजनीति के शब्दकोष में "भोला" इन्नोसेंट का नहीं मूर्ख का समानार्थी होता है । इन भोले और भले लोगों की दम पर चतुर सुजान राज करते रहते हैं और इनके भोलेपन का निखार बनाये रखने की हरचन्द कोशिश करते रहते हैं ।
राजनीति का हर माइक्रो इवेंट एक मैक्रो प्लान का हिस्सा होता है । एक ग्रैंड नैरेटिव का एक प्रसंग भर होता है ; यहाँ कुछ भी अचानक नहीं होता, कुछ भी अनायास नहीं होता । शेक्सपीयर के शब्दों में ये सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं - सब कुछ ऊपर वाले के हाथो में होता है । जो संवादों को स्वतःस्फूर्त मान लेते हैं, उन्हें पटकथा के साथ नहीं बांचते वे अनजाने में ही खलमण्डली का हिस्सा बन जाते हैं । तीन फरवरी के कोलकता को इस प्राक्कथन के साथ देखने से उसे समझना आसान हो जाता है ।
ब्रिगेड परेड मैदान में हुयी वाम की साझा रैली इस मैदान में हुयी अब तक की सबसे बड़ी रैलियों में से एक और 19 जनवरी को हुयी ममता बनर्जी की बहुप्रचारित, "ये भी आजा, वो भी आजा, तू भी आजा तू भी आजा" रैली से हर हालत में दो से ढाई गुनी बड़ी रैली थी । इस रैली का देशव्यापी चमत्कारिक असर हुआ । इसने ख़ुशी और प्रेरणा का संचार सिर्फ वाम समर्थकों - शुभचिंतकों के बीच ही नहीं किया बल्कि उसके प्रभाव से सैकड़ो गुना भारतीयों को भी आल्हादित कर दिया ।
ऐसा होने की साफ़ और ख़ास वजहें हैं ; वाम की मौजूदगी भर ही समूचे वातावरण में आश्वस्ति भर देती है । उन्हें भी सुकून और विश्वास से सराबोर कर देती है जो वाम के साथ नहीं है, यहां तक कि काफी हद तक वाम के खिलाफ है लेकिन फासिस्ट नहीं हैं ।
वाम का मतलब है जैसा है उसे गुणात्मक रूप से सुधारने वाला बदलाव और दुनिया को सबके लायक बनाने का दृढ भाव : इस तरह दुनिया में जो भी रचनात्मक और सकारात्मक है उसके पीछे वाम है। वाम सभ्य समाज का कॉन्शस कीपर ही नहीं है, उसका कुतुबनुमा है । एक ऐसा उत्प्रेरक है जो अपनी मात्रा से खूब बड़ी मात्रा के गुणधर्म में बदलाव की ताकत रखता है । सिर्फ वाम ही है जो इस तरह के उपकरण और व्यक्तित्व, दिशा और प्रवाह तैयार करने की सामर्थ्य देताहै ।
पं नेहरू ने ऐसे ही नहीं लिखा कि " वाम के बिना इस भारत के बारे में सोचने में डर लगता है । जिस दिन इस देश में वामपंथ कमजोर हो गया वह दिन इस देश के लिए बहुत अशुभ और खतरनाक होगा ।" विंस्टन चर्चिल जैसे खांटी कम्युनिस्ट विरोधी का कहना कि "35 साल की उम्र तक यदि कोई कम्युनिस्ट नही है तो वह 'फिट' नहीं है ।'' ऐसे ही व्यक्त की गयी अललटप्पू राय नहीं है । यह समाज के सभ्य बने रहने और उत्तरोत्तर संस्कारित होने में वाम की अपरिहार्यता की स्वीकारोक्ति है ।
भारतीय समाज में जो भी अच्छा और सहेजे जाने योग्य है उसके पीछे वाम है - वैचारिक वाम, सामाजिक वाम से लेकर राजनीतिक वाम तक । कल्पना कीजिये कि आजादी के तत्काल बाद उधर कठमुल्ले और इधर मनु-गौतम स्मृतिधारी पोंगे-पण्डे सरकार में आ बैठते तो शिक्षा-औरत-समाज-लोकतंत्र-शासन प्रणाली-जीवन शैली-फ़िल्म-साहित्य-संस्कृति समेत हर मामले में कैसा होता देश ? क्या अब तक एकजुट भी बचता देश ?
ठीक यही वजह है कि 3 फरवरी की ब्रिगेड मैदान की रैली ने पूरे देश में ऊर्जा का संचार किया । और ठीक यही वजह है कि सी पी (कोलकता पुलिस) और सी बी आई (मोदी वाहिनी) ने अपनी नूरा कुश्ती के लिये इस विराट समावेश के पूरा होने के एकदम बाद का समय चुना ।
क्या जिस भाजपा ने शारदा चिट फण्ड घोटाले के नायक मुकुल रॉय को अपने माथे का चन्दन बना रखा है वह इस महाघोटाले के प्रति इतनी गंभीर और उसकी पालतू सीबीआई इतनी स्टुपिड है कि जिस कमिश्नर के पास 12 फरवरी तक की अंतरिम जमानत है उसे 3 तारीख को ही गिरफ्तार करने और बिना "सर्च वारंट" के छापा मारने जायेगी ? उसके पहुँचने के पहले ही कोलकता पुलिस उसे धर पकड़ने के लिए तत्पर बैठी होगी ? ममता दीदी और उनके प्राणों से प्यारे मोदी भैया इस देश की जनता को मामू समझते हैं क्या ?
3 फरवरी को कोलकता में, उनके हिसाब से बहुतई परफेक्शन से, मंचित सीबीआई-सीपी के डब्लू डब्लू एफ का यह दृश्य एक ग्रैंड नैरेटिव का हिस्सा है । वाम को अलग थलग करने की कुटिल योजना का हिस्सा । पहले इसे एक दूसरे से होड़ लगाती सांप्रदायिकता को भड़का कर अमल में लाया गया - अब उसे एक दूसरे से लड़ते भिड़ते भेड़ियों की नकली मुठभेड़ के रूप में लागू किया जा रहा है । वे जानते हैं कि असली मुद्दों को लेकर राजनीति करने में वाम से पार पाना मुश्किल है । छद्म और विभाजनकारी उन्माद में लोगों को बांटकर ही ध्रुवीकरण किया जा सकता है ।
वाम की रैली में भागीदारी अभूतपूर्व थी, उसकी खबर चर्चा के केंद्र में आने से रोकना जरूरी था । इसलिए जरूरी थी एक ही अखाड़े के, एक ही उस्ताद के चेलों की यह दिखावटी फूँ-फां-फुस्स !! ममता को उम्मीद है कि वे सीबीआई की गिरती साख का फायदा उठा लेंगी । मोदी समूह को विश्वास है कि सांसद विधायकों की उनकी खरीद-फरोख्त तेज करने का माहौल बन जायेगा ।
ममता और भाजपा-मोदी के रिश्ते जगजाहिर हैं । दीदी की अटल -आडवाणी प्रशस्ति से आरएसएस की स्तुति तक ओन रिकॉर्ड है । इसके बाद भी कुछ हैं जिन्हें इस संघर्ष में ममता लोकतंत्र की यौद्धा नजर आती हैं । वह ममता जिसने सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ता मरवा डाले, सिर्फ सीपीएम ही नहीं प्रायः सभी विपक्षी दलों और संगठनों के दफ्तरों को दखल कर लिया अगर लोकतांत्रिक है तो फिर बेहतर होगा कि हिटलर और मुसोलिनी को पुनर्परिभाषित कर उन्हें 20 वीं सदी के सबसे सच्चे लोकतांत्रिक यौद्धा घोषित किया जाये ।
नवउदार अजगर और हिंदुत्वी विषधर के मेल के इस सांघातिक हमले के दौर में लूट को अपराजेय बना देने के मंसूबो के लिए वाम का जर्जर और कमजोर होना उनके पूँजी और पुराणपंथी वायरसों के लिए जीवन मरण का प्रश्न है । पढ़े लिखे वामोन्मुखी बुद्दिजीवी मारे जाने के बाद भी अँधेरे को चुनौती देते नजर आते हैं । जब देखो तब ये लाल झण्डा उठाये कभी किसानों को देश के एजेंडे पर ला धरते हैं तो कभी 16 करोड़ तो कभी 18 करोड़ तो अभी 20 करोड़ मजदूरों को हड़ताल पर उतार देते हैं । कारपोरेट और हिंदुत्वी देशतोड़कों की मुश्किल समझ आती है । ममता बनर्जी उनके लिए ही रास्ता आसान कर रही हैं ।
मगर मजेदार बात यह है कि इस तरह की भ्रान्ति कथित वाम के एक हिस्से - सिड़बिल्ले वाम - में भी है । जिसे अखबार में छपे और टीवी में दिखे के अलावा, उससे आगे कही कुछ नहीं दिखता । उसे लोकतंत्र की पूतना में स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी नजर आती है । उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता ।
इसी प्रजाति का जुड़वां एक छुटका कथित वाम और भी हैं
- बागड़बिल्ला वाम - जो बंगाल में इतना खून बह जाने के बाद भी किताब के किसी अच्छे और राजनीतिक मूल्यांकन के किसी सच्चे पैराग्राफ से अब तक चिपके बैठे हैं । जिनमे कार्यनीति और रणनीति में अंतर करने का शऊर नहीं है । वे अभी तक सिंगूर और नंदीग्राम की खुमारी, बंगाल की "बर्बादी" में बुद्ददेब भट्टाचार्य की कथित जिम्मेदारी और औद्योगिक नीति की बीमारी के स्वयं ओढ़े कम्बल में गाफिल पड़े हैं । इन भोलों-भलों के साथ संवेदना ही व्यक्त की जा सकती है। वे नहीं जान सकते कि ब्रिगेड मैदान में 15 लाख लोगों का पहुंचना अपने कितने साथियों की मृत देहों के बोझ के साथ गुजरना हुआ होगा । कितना कष्टपूर्ण और श्रम साध्य रहा होगा ।
3 फरवरी के कोलकता में एक ओर वास्तविकता की तरफ ध्यान दिलाती जनता थी तो दूसरी तरफ ध्यान बँटाऊ तिकड़मों के पांसे लिए बैठे शकुनि और घात लगाये बैठी राजनीति की ताड़काएं थीं । हम किनके साथ हैं यह असल सवाल से तय होगा , जो है देश और उसकी जनता की एकता की हिफाजत ; और यह काम सिर्फ वाम कर सकता है - उन्ही शक्तियों के सहयोग से हो सकता है जिनकी धुरी वाम हो ।
और वाम -
पर्सी बी शैली की पंक्तियों में बोलता है वाम ;
"हम वो हैं जो मौत से डरते नहीं
हम वो हैं जो मर के भी मरते नहीं। "
(ये लेख बादल सरोज के फेसबुक वॉल से लिया गया है। ये उनके निजी विचार हैं।)
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