दलित चेतना- अधिकार से जुड़ा शब्द है
मीडिया पर कई शोध हुए हैं जिनमें ये तथ्य सामने आया है कि मीड़िया में सरकारी शब्दों और भाषा का चलन लगातार बढ़ा हैं। दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं करने का सुझाव मीडिया में सरकारी दखल का विस्तार है। समाज की तमाम गतिविधियों को चलाने के लिए विभिन्न तरह की संस्थाएं होती है और हर संस्था अपने चरित्र के अनुसार अपनी भाषा व शब्दावलियां तैयार करती है।
दलित शब्द सरकार का शब्द हो ही नहीं सकता है। यह एक राजनीतिक चेतना से लैश अर्थों वाला शब्द है। ब्रिटिश सत्ता के विरोध में जब आंदोलन चल रहा था तो इस शब्द का इस्तेमाल कॉग्रेंस करने लगी थी। महात्मा गांधी ने अछूत शुद्रों के लिए एक नया शब्द हरिजन तैयार किया था लेकिन डा. अम्बेडकर का भारतीय राजनीति पर इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कॉग्रेस अछूत की जगह दलित शब्द का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य हुई। पार्टी के अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया द्वारा लिखित कॉंग्रेस का इतिहास 1935 में छपकर आया तो उसमें दलित शब्द की भरमार थी। इस पुस्तक के परिशिष्ट 9 -10 में दलित जातियॉ शीर्षक से सुरक्षित निर्वाचन के संबंध में कॉग्रेस ने अपनी राय स्पष्ट की है। यहां तक कि दलित जातियों की स्थिति शीर्षक से एक अन्य स्पष्टीकरण में कॉग्रेस ने स्त्रियों का भी उल्लेख किया है।
पहली बात कि सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में पीसने वाले हरेक को दलित के व्यापक अर्थों में लिया जाता रहा है।शुद्र वे भी कहें जाते थे जिन्हें सरकारी शब्दावली में पिछड़ा कहा जाने लगा है। शब्दों में गति होती है और उनके अर्थ सिमटते भी है और उनका विस्तार भी होता है।दलित शब्द एक अर्थ में सिमटा तो दूसरे स्तर पर उसका विस्तार भी हुआ है।मसलन दलित से अर्थ उन जातियों के समूह से लगाया जाने लगा है जिन्हें सरकारी दस्तावेजों में अनुसूचित जाति माना गया है और उसका विस्तार इस रुप में है कि उसमें अधिकार का बोध और भविष्य के प्रति सामूहिक चेतना की गति जुड़ी है। महात्मा गांधी ने जब शुद्रों में अछूतों के लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल किया तो वह हिन्दू पौराणिक कथाओं से प्रेरित भावना थी जिसमें सबरी के बेर खाने के मिथक को राम की महानता के रुप में स्थापित करने की कोशिश की गई है। गांधी हरिजन शब्द के जरिये डा. अम्बेडकर के दलितों को एक सहानुभूति के दायरे में बांधने की कोशिश कर रहे थे।लेकिन ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आंदोलन और संविधान के लागू होने के बाद अपने अधिकारों का बोध और स्वतंत्रता की चेतना का जो विस्फोट हुआ वह दलित के जरिये ही अपना विस्तार कर सकता था और आज चेतना के नये तेवर और आकांक्षाओं को संबोधित यही शब्द कर सकता है।
जिस राजनीतिक दिशा में लोगों को ले जाना होता है उसका रास्ता शब्दों से ही बना होता है। राजनीतिक पार्टियों की शब्दावलियों का अध्ययन करें तो ये स्पष्ट हो सकता है। अध्ययन करें कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ ने दलित शब्द का इस्तेमाल करना कब से शुरु किया? उसका जोर यदि वंचित शब्दों पर होता है तो इसके क्या निहितार्थ हैं? वंचित अधिकार बोध और चेतना को संबोधित नहीं करता है। बतौर उदाहरण भाजपा झारखंड की जगह वनांचल नाम देना चाहती थी। यह राजनीतिक प्रवृतियों को समझने के लिए उदाहरण मात्र हैं।
इसीलिए यह समझना मुश्किल नहीं हैं कि किसी शब्द के इस्तेमाल पर रोक की जरुरत किस तरह की राजनीति को होती है। शब्द राजनीतिक युद्ध के सबसे महत्वपूर्ण औजार होते हैं।शब्द को बदल दिया जाता है या शब्द को अपने अर्थों के अनुकूल ढाल देने की कोशिश की जाती है। लेकिन आंदोलन अपने शब्दों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता है तो उन्हें सत्ता दूसरे तरह से अपने अर्थों में ढालने की कोशिश शुरु कर देती है। उतराखण्ड को जब आंदोलनकारियों ने नहीं छोड़ा तो उतराखंड के भीतर समाहित अर्थों को ही उतरांचल में तब्दील करने प्रक्रिया देखी गई।
शब्द उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण होते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए सत्ता की नींव को मजबूत करना चाहते हैं।इसीलिए ऐसी राजनीतिक संस्कृति के पक्षधर चिन्हों , प्रतीकों, रंगों जैसी चीजों पर सबसे ज्यादा अपनी उर्जा खर्च करते हैं और युद्ध भी लड़ने को तैयार होते हैं।
दलित शब्द का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह को झटपट मानकर केन्द्र सरकार द्वारा परिपत्र जारी करने की घटना आश्चर्य जनक नहीं है। यह न्यायालय के प्रति आज्ञाकारिता का उदाहरण नहीं है बल्कि अपने राजनीति अनुकूलता को लागू करने की तत्परता है। न्यायालय से पहले सामाजिक न्याय मंत्रालय भी इस तरह के परिपत्र जारी कर चुका है।भारतीय राजनीतिक पार्टियां चूंकि हिन्दूत्व के इर्दगिर्द धूम रही है इसीलिए वे सांस्कृतिक स्तर पर सत्ता द्वारा किए जा रहे बारीख बदलाव के प्रति संवेदनशील नहीं हो सकती है। लेकिन उस आंदोलन जैसे दलित आंदोलन के लिए यह बेहद जरुरी है कि वह सांस्कृतिक स्तर पर अपनी उपबल्धियों पर हमले के प्रति संवेदनशीलता का भी परिचय दें और दृढ़ता का भी प्रदर्शन करें.
भाजपा की सत्ता ने झारखंड की राजधानी रांची में बिरसा मुंडा की चौराहें पर लगी प्रतिमा को बदल दिया। बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश हुकूमत को इसीलिए हिलाकर रख दिया था क्योंकि वह आदिवासियों के संसाधनों को अपने कब्जे में ले रही थी। उन्होने ब्रिटिश हुकूमत को बराबरी का टक्कर दिया। ब्रिटिशों से सत्ता हस्तानांरित होने के बाद बिरसा मुंडा की प्रतिमाएं लगाई गई और उन्हें बेड़ियों से जकड़ी अवस्था में दिखाया गया। लेकिन 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने निर्देश दिया कि झारखंड में बिरसा मुंडा की जितनी भी प्रतिमाएं लगी हैं, उन्हें बेड़ियों से मुक्त किया जाए। क्यों कि 'जंजीरों से जकड़ी बिरसा मुंडा की प्रतिमाएं युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।' जबकि झारखंड में युवा इस प्रतिमा से यह अर्थ लगाते हैं कि उनके लिए यह आजादी नाकाफी है और उन्हें बिरसा मुंडा की तरह बलिदानी के लिए प्रेरित कर सकती है। झारखंड में क्या ब्रिटिश सत्ता द्वारा आदिवासियों के संसाधनों पर कब्जे का जो सिलसिला चला, वह रुक पाया है ? आंदोलन के शब्द, प्रतीक, चिन्ह् सत्ता को बेहद परेशान करते हैं। भाजपा भूख से मरने वाले हालात में शाइनिंग इंडिया के प्रचार की सकारात्मक प्रभाव डालने वाले विज्ञापन के रुप में व्याख्या करती है लिहाजा वह दलित शब्द व बिरसा मुंडा की बेड़ियों में जकड़ी तस्वीरों को कैसे स्वीकार कर सकती है।
रही बात संवैधानिक संस्थाओं के फैसलों और निर्देशों की तो इस बारे में निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि इस वक्त न्यायाधीश फैसले सुना रहे हैं, अदालतें फैसले नहीं कर रही है। इसका अर्थ ये होता है कि गैर बराबरी वाली समाजिक सत्ता समानता की पक्षधर संवैधानिक संस्थाओं का इस्तेमाल कर रही है।
सामाजिक सत्ता जिसे संविधान की भावनाओं के जरिये बराबरी के स्तर पर लाना था उस सत्ता की लड़ाई संवैधानिक सत्ता के साथ जारी है।तभी ऐसे फैसलों के खिलाफ लोगों को संघर्ष के लिए उतरना पड़ता है।
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